‘कुछ बातें बार-बार कहनी पड़ती हैं, उन बातों में पानी एक है।’ ये पंक्ति इस किताब की नहीं है लेकिन इसे लिखने वाले नेे ये
बात कही है। लेखक ने सही ही कहा है, हम पानी की बात ही कहां करते हैं? बड़े शहरों में तो पानी की चर्चा सिर्फ कुछ दिवसों तक ही सीमित रहती है। हम नहीं सोचते कि आखिर हम पानी के उपभोक्ता कब से बन गए? हमारे पास इस बात का भी सोचने का समय नहीं है कि ये स्थिति कैसे और कब बनी? हालात जैसे बनते गए, हम उसके आदी होते गए। आपके इन न पूछे जाने वाले सवालों का जवाब देती ये किताब।
पानी के गणित को समझने के लिए, पानी को समझने के लिए, हमारे पुराने और बेहतरीन समाज को जानने का एक बेहतरीन दस्तावेज है ये किताब। ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पुस्तक में आपको तालाब के बारे में जानकारी मिलेगी। भारत में कभी 24 लाख तालाब थे और आज सिर्फ 2 लाख बचे हैं। इनके बनने और खत्म होने के बारे में किताब में अच्छी तरह से दिया गया है। अगर आपको तालाब और उसकी पद्धति को बहुत अच्छी तरह से समझना है तो इस किताब से बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता।
पानी के बारे में इस शानदार किताब को लिखा है अनुपम मिश्र ने। कहा जाता है कि अनुपम मिश्र को जानना है तो ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पढ़ लीजिए। अनुपम मिश्र जीवन भर पर्यावरण के लिए काम करते रहे। उन्होंने जमीन पर रहकर पानी का काम करने वाले लोगों को करीब से देखा है। उन्होंने राजस्थान के अलवर में जल संरक्षण का काम शुरू किया। उसके बाद उत्तराखंड में भी ऐसा ही कुछ किया।
अनुपम मिश्र का जन्म 1948 में महाराष्ट्र के वर्धा में हुआ था। बहुत कम लोगों को पता है अनुपम मिश्र हिन्दी के प्रसिद्ध कवि भवानी प्रसाद मिश्र के बेटे हैं। अनुपम मिश्र ने चिपको आंदोलन में जंगलों को बचाने में मदद की थी। इस किताब के लिए अनुपम मिश्र को 2011 में जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया। आज भी तालाब हैं खरे 19 भाषाओं में अनुवादित हो चुकी है। 2009 तक इस किताब की 1 लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुुकी थीं। गांधीजी की ‘माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ’ के बाद सिर्फ यही बुक ब्रेल लिपि में उपलब्ध है। अनुपम मिश्र का निधन 19 दिसंबर 2016 को हुआ था। अनुपम मिश्र ने इस किताब के अलावा 17 छोटी-बड़ी किताबें लिखी हैं। जिनमें से कुछ बहुत फेमस हैं, ‘साफ माथे का समाज’ और ‘राजस्थान की रजत बूंदें’।
किताब शुरू होती है एक कहानी से। कहानी जिसमें पारस है किसान है और एक राजा है। इस कहानी का अंत होता है राजा के एक वाक्य से, ‘जाओ! अच्छे-अच्छे काम करते जाना और तालाब बनाते जाना। बस तभी एक हर गांव में तालाबों की परंपरा हो गई। जहां तालाब होते, वहीं गांव बसे रहते। गांव के नाम इन्हीं तालाबों के नाम पर पड़ा करते थे। तालाब पहले पूरे भारत की धड़कन हुआ करते थे। इन्हें सिर्फ राजा नहीं लोग बनाया करते थे। सिर्फ बनाया नहीं करते थे, उनकी रक्षा भी करते थे। पहले अगर कुछ करना होता था तो तालाब बनाया जाता था। तालाब बनवाता एक था और सहयोग पूरा समाज करता था। तालाब बनना एक त्यौहार होता था। जिसे गांव के लोग साथ मिलकर मनाते थे। इस किताब में तालाब बनाने की देसी पद्धति बताई गई है। वो कहानी की तरह बताई गई है, जिसे पढ़कर आपको वहां होने का एहसास होगा। तालाब की जगह और दिशा को बड़े जतन से चुना जाता है। तालाब की इस विधि में आगौर, पाल, बाड़, गरट, गौरा, नेष्टा बनाने होते हैं। इन सबके बारे में अच्छे से समझाती है ये किताब। इस किताब को पढ़कर आप एक अच्छा तालाब बना सकते हैं।
सैकड़ों, हजारों और लाखों तालाब ऐसे ही अचानक प्रकट नहीं हुए थे। इसे बनाने वाले भी कुछ लोग थे और इसको संभालने वाले भी। देश के अलग-अलग हिस्सों में इनके अलग-अलग नाम थे। लेकिन कुछ सालों में हमने ऐसे लोगों को खो दिया और हम हजारों, लाखों तालाबों को शून्य की ओर ले जा रहे हैं। ये किताब बताती है कि पहले का समाज भी बहुत अच्छा था। तालाब को बनाने वाले और संभालने वालों का बहुत सम्मान हुआ करता था। वैसा ही जैसा आज डाॅक्टर का हुआ करता था। इन लोगों को आदर के रूप में उपहार भी मिलते थे। तालाब बनाने वाले ये लोग हिंदू और मुसलमान दोनों हुआ करते थे। इन लोगों का एक समुदाय हुआ करता था। जहां वो रहते थे, उस जगह का नाम भी वही पड़ जाता था। ये लोग बहुत सालों तक बने रहे क्योंकि ये लोग अपने शिष्यों को भी यही काम सिखाते थे। ये तालाब बनाने वाले कुछ नाम थे, गजधर, सिलावटा, जोड़िया, सिरभाव, जलसूंघा, पथरोट और टकारी। ये नाम अलग-अलग क्षेत्रों में बदलते गए। जैसे आज धन स्वाभिमान का प्रतीक है, पहले तालाब स्वाभिमान का प्रतीक हुआ करता था। तालाब रहते तो गांव रहता और तालाब सूखते तो गांव उजड़ जाते। तालाब में हर साल पानी आता है और हर साल जाता है। बस उसे बचाने का तरीका आना चाहिए। उसे तस्करी से बचाना आना चाहिए, ये तस्करी लोग नहीं सूरज करता है।
इस किताब में कई लोगों के बारे में भी बताया गया है, जो तालाब को अकेले बचाने का काम करते थे। ऐसे ही ‘गैंगजी’ के बारे में इस किताब में वर्णन दिया गया है। वे तालाब की रक्षक बने और लोगों ने उन्हें इसी वजह से संत बना दिया। पहले सिर्फ तालाब बनाया नहीं जाता था, उसकी बार-बार सफाई की जाती है। तालाबों से आज समाज कटने की सबसे बड़ी समस्या रख रखाव है। प्रशासन सफाई की जगह पर नया तालाब बनाने की बात करती है। लेकिन वो नहीं समझते कि पुराने तालाब कितने कामगर होते हैं। तब तालाब थे क्योंकि समाज अच्छा था। तालाब के या समुदाय के नाम पर उस जगह का नाम रखा जाता था। लेकिन ये किताब ये बताती है कि अलअलग तालाबों के अपने-अपने गुण होते हैं और उन्हीं गुणों के आधार पर तालाबों के नाम रखे जाते थे। सागर, सरोवर, सर, जोहड़-जोहड़ी, बंध-बंधिया, ताल-तलैया, पोखर-पोखरी, पुष्करणी, डिग्गी, कुंड, हौज, ताल, चाल, खाल और चौखरा। ये सभी नाम तालाबों अपने-अपने कुछ गुणों की वजह से रखे गए हैं। इस किताब में राजस्थान के घड़सीसर तालाब के बारे में दिया गया है। लेखक ने इसके बारे में खूब विस्तार से लिखा है।
किताब में गुणों, समाज, आकार और धर्म के लिए तालाब बनाने के बारे में भी जिक्र है। छत्तीसगढ़ में छेरा-छेरा त्यौहार तालाब के लिए ही मनाया जाता है। इसी तरह बुंदेलखंड में भी पूने के दिन हजार सालों तक नया तालाब बनते रहे। इस तरह राजस्थान में नवरात्र के आखिरी दिन तालाब पर जुटते हैं। जिससे पता चलता कि इस बार उनके तालाब में कितना पानी आया है? हम आज तालाब को नहीं जानते उसकी गलती हमारी तो है ही, अंग्रेजों की भी। समाज से तालाब को दूर किया अंग्रेजों ने। हम तालाब से दूर होते गए और तालाब खत्म हो गए। गजधर आज होते तो बताते कि हम संकट के समय से गुजर रहे हैं। अब तालाब से हमारी दूरी उतनी ही है, जितनी जमीन और आसमां की। अब तालाब से समाज भी दूर है और राज भी। पानी के इस संकट से बचने के लिए हमें फिर से साफ माथे का समाज बनना होगा। तभी कह पाओगे आज भी खरे हैं तालाब। वरना ये किताब सिर्फ एक दस्तावेज है, जिसे बस एक बार आंख भर के देख लिया गया है।
ये किताब रोचक और दुर्लभ जानकारी से भरी हुई है। लेखनी बेहद सरल और सहज है। बिल्कुल सरल शब्दों में लिखा गया है और लिखे को बहुत अच्छे तरीके से समझाया गया है। कभी उदाहरण के रूप में तो कभी कहानी के रूप में। आपको पढ़ते समय कभी भी बोर नहीं होंगे। पानी, समाज और तालाब के बारे में बहुत सारे किस्से, कहानी और भी ज्यादा खास बना देते हैं। हो सकता है कि आप तालाब बनाने की विधि भूल सकते हैं, लेकिन उसका किस्सा जरूर याद रहेगा। इस किताब को एक चीज और रोचक बनाती है, संदर्भ। लेखक ने संदर्भों के बारे में विस्तार से बताया है। किताब के लिए क्या लिया, कहां से लिया और कैसे लिया, इन सबके बारे में बताया गया है। किस विषयवस्तु के लिए किस शख्स से बात की, ये भी अच्छे से बताया गया है।
अनुपम मिश्र की ये किताब एक खजाना है, आज के संकट से उबरने के लिए। अनुपम मिश्र की ये किताब बूंदों, तालाब के महत्व और हमारी बेवकूफी के बारे में बताती है। इसे सुधारा भी जा सकता है, फिर भी अगर हम नहीं सुधरे तो इसके हालात बहुत बुरे होंगे। अनुपम मिश्र के शब्दों में कहूं तो, हमारे बड़े लोग जीडीपी, विकास, अर्थव्यवस्था पर बहुत चिंता करते हैं। अगर पानी पर ध्यान नहीं दिया तो इन पर कभी भी पानी फिर सकता है। आखिर में तालाब के बारे में इस किताब में ‘सीता बावड़ी’ के नाम की कविताः
बीचों बीच है एक बिंदु,
जो जीवन का प्रतीक है,
मुख्य आयत के भीतर लहरे हैं,
बाहर हैं सीढ़ियां।
चारों कानों पर फूल हैं,
जो जीवन को सुगंध से भर देते हैं।
पानी पर आधारित
एक पूरे जीवन दर्शन को
इतने सरल सरस ढंग से
आठ-दस रेखाओं में
उतार पाना एक कठिन काम है।
लेकिन हमारे समाज का बड़ा हिस्सा
बहुत सहजता के साथ
इस बावड़ी को
गुदने की तरह
अपने तन पर उकेरता है।
किताब- आज भी खरे हैं तालाब।
लेखक- अनुपम मिश्र।
प्रकाशक- प्रभात पैपरबैक्स।
कीमत- 125 रुपए।
आज भी खरे हैं तालाब। |
पानी के गणित को समझने के लिए, पानी को समझने के लिए, हमारे पुराने और बेहतरीन समाज को जानने का एक बेहतरीन दस्तावेज है ये किताब। ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पुस्तक में आपको तालाब के बारे में जानकारी मिलेगी। भारत में कभी 24 लाख तालाब थे और आज सिर्फ 2 लाख बचे हैं। इनके बनने और खत्म होने के बारे में किताब में अच्छी तरह से दिया गया है। अगर आपको तालाब और उसकी पद्धति को बहुत अच्छी तरह से समझना है तो इस किताब से बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता।
लेखक के बारे में
पानी के बारे में इस शानदार किताब को लिखा है अनुपम मिश्र ने। कहा जाता है कि अनुपम मिश्र को जानना है तो ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पढ़ लीजिए। अनुपम मिश्र जीवन भर पर्यावरण के लिए काम करते रहे। उन्होंने जमीन पर रहकर पानी का काम करने वाले लोगों को करीब से देखा है। उन्होंने राजस्थान के अलवर में जल संरक्षण का काम शुरू किया। उसके बाद उत्तराखंड में भी ऐसा ही कुछ किया।
अनुपम मिश्र। |
अनुपम मिश्र का जन्म 1948 में महाराष्ट्र के वर्धा में हुआ था। बहुत कम लोगों को पता है अनुपम मिश्र हिन्दी के प्रसिद्ध कवि भवानी प्रसाद मिश्र के बेटे हैं। अनुपम मिश्र ने चिपको आंदोलन में जंगलों को बचाने में मदद की थी। इस किताब के लिए अनुपम मिश्र को 2011 में जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया। आज भी तालाब हैं खरे 19 भाषाओं में अनुवादित हो चुकी है। 2009 तक इस किताब की 1 लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुुकी थीं। गांधीजी की ‘माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ’ के बाद सिर्फ यही बुक ब्रेल लिपि में उपलब्ध है। अनुपम मिश्र का निधन 19 दिसंबर 2016 को हुआ था। अनुपम मिश्र ने इस किताब के अलावा 17 छोटी-बड़ी किताबें लिखी हैं। जिनमें से कुछ बहुत फेमस हैं, ‘साफ माथे का समाज’ और ‘राजस्थान की रजत बूंदें’।
आज भी खरे हैं तालाबः किताब की नजर से
किताब शुरू होती है एक कहानी से। कहानी जिसमें पारस है किसान है और एक राजा है। इस कहानी का अंत होता है राजा के एक वाक्य से, ‘जाओ! अच्छे-अच्छे काम करते जाना और तालाब बनाते जाना। बस तभी एक हर गांव में तालाबों की परंपरा हो गई। जहां तालाब होते, वहीं गांव बसे रहते। गांव के नाम इन्हीं तालाबों के नाम पर पड़ा करते थे। तालाब पहले पूरे भारत की धड़कन हुआ करते थे। इन्हें सिर्फ राजा नहीं लोग बनाया करते थे। सिर्फ बनाया नहीं करते थे, उनकी रक्षा भी करते थे। पहले अगर कुछ करना होता था तो तालाब बनाया जाता था। तालाब बनवाता एक था और सहयोग पूरा समाज करता था। तालाब बनना एक त्यौहार होता था। जिसे गांव के लोग साथ मिलकर मनाते थे। इस किताब में तालाब बनाने की देसी पद्धति बताई गई है। वो कहानी की तरह बताई गई है, जिसे पढ़कर आपको वहां होने का एहसास होगा। तालाब की जगह और दिशा को बड़े जतन से चुना जाता है। तालाब की इस विधि में आगौर, पाल, बाड़, गरट, गौरा, नेष्टा बनाने होते हैं। इन सबके बारे में अच्छे से समझाती है ये किताब। इस किताब को पढ़कर आप एक अच्छा तालाब बना सकते हैं।
सैकड़ों, हजारों और लाखों तालाब ऐसे ही अचानक प्रकट नहीं हुए थे। इसे बनाने वाले भी कुछ लोग थे और इसको संभालने वाले भी। देश के अलग-अलग हिस्सों में इनके अलग-अलग नाम थे। लेकिन कुछ सालों में हमने ऐसे लोगों को खो दिया और हम हजारों, लाखों तालाबों को शून्य की ओर ले जा रहे हैं। ये किताब बताती है कि पहले का समाज भी बहुत अच्छा था। तालाब को बनाने वाले और संभालने वालों का बहुत सम्मान हुआ करता था। वैसा ही जैसा आज डाॅक्टर का हुआ करता था। इन लोगों को आदर के रूप में उपहार भी मिलते थे। तालाब बनाने वाले ये लोग हिंदू और मुसलमान दोनों हुआ करते थे। इन लोगों का एक समुदाय हुआ करता था। जहां वो रहते थे, उस जगह का नाम भी वही पड़ जाता था। ये लोग बहुत सालों तक बने रहे क्योंकि ये लोग अपने शिष्यों को भी यही काम सिखाते थे। ये तालाब बनाने वाले कुछ नाम थे, गजधर, सिलावटा, जोड़िया, सिरभाव, जलसूंघा, पथरोट और टकारी। ये नाम अलग-अलग क्षेत्रों में बदलते गए। जैसे आज धन स्वाभिमान का प्रतीक है, पहले तालाब स्वाभिमान का प्रतीक हुआ करता था। तालाब रहते तो गांव रहता और तालाब सूखते तो गांव उजड़ जाते। तालाब में हर साल पानी आता है और हर साल जाता है। बस उसे बचाने का तरीका आना चाहिए। उसे तस्करी से बचाना आना चाहिए, ये तस्करी लोग नहीं सूरज करता है।
इस किताब में कई लोगों के बारे में भी बताया गया है, जो तालाब को अकेले बचाने का काम करते थे। ऐसे ही ‘गैंगजी’ के बारे में इस किताब में वर्णन दिया गया है। वे तालाब की रक्षक बने और लोगों ने उन्हें इसी वजह से संत बना दिया। पहले सिर्फ तालाब बनाया नहीं जाता था, उसकी बार-बार सफाई की जाती है। तालाबों से आज समाज कटने की सबसे बड़ी समस्या रख रखाव है। प्रशासन सफाई की जगह पर नया तालाब बनाने की बात करती है। लेकिन वो नहीं समझते कि पुराने तालाब कितने कामगर होते हैं। तब तालाब थे क्योंकि समाज अच्छा था। तालाब के या समुदाय के नाम पर उस जगह का नाम रखा जाता था। लेकिन ये किताब ये बताती है कि अलअलग तालाबों के अपने-अपने गुण होते हैं और उन्हीं गुणों के आधार पर तालाबों के नाम रखे जाते थे। सागर, सरोवर, सर, जोहड़-जोहड़ी, बंध-बंधिया, ताल-तलैया, पोखर-पोखरी, पुष्करणी, डिग्गी, कुंड, हौज, ताल, चाल, खाल और चौखरा। ये सभी नाम तालाबों अपने-अपने कुछ गुणों की वजह से रखे गए हैं। इस किताब में राजस्थान के घड़सीसर तालाब के बारे में दिया गया है। लेखक ने इसके बारे में खूब विस्तार से लिखा है।
किताब में गुणों, समाज, आकार और धर्म के लिए तालाब बनाने के बारे में भी जिक्र है। छत्तीसगढ़ में छेरा-छेरा त्यौहार तालाब के लिए ही मनाया जाता है। इसी तरह बुंदेलखंड में भी पूने के दिन हजार सालों तक नया तालाब बनते रहे। इस तरह राजस्थान में नवरात्र के आखिरी दिन तालाब पर जुटते हैं। जिससे पता चलता कि इस बार उनके तालाब में कितना पानी आया है? हम आज तालाब को नहीं जानते उसकी गलती हमारी तो है ही, अंग्रेजों की भी। समाज से तालाब को दूर किया अंग्रेजों ने। हम तालाब से दूर होते गए और तालाब खत्म हो गए। गजधर आज होते तो बताते कि हम संकट के समय से गुजर रहे हैं। अब तालाब से हमारी दूरी उतनी ही है, जितनी जमीन और आसमां की। अब तालाब से समाज भी दूर है और राज भी। पानी के इस संकट से बचने के लिए हमें फिर से साफ माथे का समाज बनना होगा। तभी कह पाओगे आज भी खरे हैं तालाब। वरना ये किताब सिर्फ एक दस्तावेज है, जिसे बस एक बार आंख भर के देख लिया गया है।
क्या-क्या अच्छा?
ये किताब रोचक और दुर्लभ जानकारी से भरी हुई है। लेखनी बेहद सरल और सहज है। बिल्कुल सरल शब्दों में लिखा गया है और लिखे को बहुत अच्छे तरीके से समझाया गया है। कभी उदाहरण के रूप में तो कभी कहानी के रूप में। आपको पढ़ते समय कभी भी बोर नहीं होंगे। पानी, समाज और तालाब के बारे में बहुत सारे किस्से, कहानी और भी ज्यादा खास बना देते हैं। हो सकता है कि आप तालाब बनाने की विधि भूल सकते हैं, लेकिन उसका किस्सा जरूर याद रहेगा। इस किताब को एक चीज और रोचक बनाती है, संदर्भ। लेखक ने संदर्भों के बारे में विस्तार से बताया है। किताब के लिए क्या लिया, कहां से लिया और कैसे लिया, इन सबके बारे में बताया गया है। किस विषयवस्तु के लिए किस शख्स से बात की, ये भी अच्छे से बताया गया है।
किताब का एक अंश। |
अनुपम मिश्र की ये किताब एक खजाना है, आज के संकट से उबरने के लिए। अनुपम मिश्र की ये किताब बूंदों, तालाब के महत्व और हमारी बेवकूफी के बारे में बताती है। इसे सुधारा भी जा सकता है, फिर भी अगर हम नहीं सुधरे तो इसके हालात बहुत बुरे होंगे। अनुपम मिश्र के शब्दों में कहूं तो, हमारे बड़े लोग जीडीपी, विकास, अर्थव्यवस्था पर बहुत चिंता करते हैं। अगर पानी पर ध्यान नहीं दिया तो इन पर कभी भी पानी फिर सकता है। आखिर में तालाब के बारे में इस किताब में ‘सीता बावड़ी’ के नाम की कविताः
बीचों बीच है एक बिंदु,
जो जीवन का प्रतीक है,
मुख्य आयत के भीतर लहरे हैं,
बाहर हैं सीढ़ियां।
चारों कानों पर फूल हैं,
जो जीवन को सुगंध से भर देते हैं।
पानी पर आधारित
एक पूरे जीवन दर्शन को
इतने सरल सरस ढंग से
आठ-दस रेखाओं में
उतार पाना एक कठिन काम है।
लेकिन हमारे समाज का बड़ा हिस्सा
बहुत सहजता के साथ
इस बावड़ी को
गुदने की तरह
अपने तन पर उकेरता है।
किताब- आज भी खरे हैं तालाब।
लेखक- अनुपम मिश्र।
प्रकाशक- प्रभात पैपरबैक्स।
कीमत- 125 रुपए।