एक किताब बहुत कुछ दे जाती है जानकारी, एक सोच और कुछ अच्छी बातें। अगर किताब इतिहास की होती है तो उसे रोचक क्या बनाता है? इतिहास की कहानियां, किस्से या कुछ महत्वपूर्ण कथन। लेकिन एक इतिहास की किताब में ये सब न हो। क्या तब भी वो उसे अच्छा कहा जाएगा? इस किताब को पढ़ने से पहले मेरा जवाब ‘न’ में होता। इस किताब के बारे में इतना तो मैं कह ही सकता हूं कि एक किताब सिर्फ जानकारियों से भी अच्छी हो सकती है। किताब का नाम है- 50 दिन 50 साल पहले। ये सिर्फ एक किताब नहीं है, ये एक डायरी है, आजादी के 50 दिन पहले की डायरी। जो किसी एक व्यक्ति की डायरी नहीं है, ये 1947 के हिंदुस्तान की डायरी है।
इस किताब की अच्छी बात ही यही है कि ये किसी एक पर फोकस नहीं है। इसमें करीब-करीब 200 से ज्यादा लोगों के नाम आये हैं। जिनमें से बहुतों के नाम हमने सुने होंगे और बहुतों के नहीं। कुछ लोगों का तो बस नाम दिया है उनके बारे में कुछ भी नहीं बताया गया है। ये किताब आपको कुछ नये नामों से रूबरू भी कराती है जो आपकी उत्सुकता को बढ़ाती है और शायद बाद में आप उनके बारे में खोजें। लेखक की लेखनी इतनी कठिन नहीं है जिसे आप समझ न पाएं। एक इतिहास की किताबें जिस भाषा में होती हैं, ये किताब भी उसी भाषा के करीब ही है। इस किताब को पढ़ा जाना चाहिए अपनी जानकारी के लिए, इस किताब को पढ़ा जाना चाहिए उस दौर को समझने के लिए, उस समय के माहौल को समझने के लिए और सबसे बड़ी बात उस दौर की सियासत को समझने के लिए।
इस किताब को लिखा है वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय ने। ये किताब 1997 में प्रकाशित हुई थी। मधुकर उपाध्याय मूलतः अयोध्या उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। उन्होंने ग्रेजुएशन उत्तर प्रदेश से ही की। उसके बाद भारतीय जनसंचार संस्थान नई दिल्ली से एक साल का पत्रकारिता में डिप्लोमा किया। बाद में 1990 में वे बी.बी.सी हिंदी में काम करने लगे। उससे पहले उन्होंने दो दशक तक भारतीय समाचार पत्रों में काम किया। मधुकर उपाध्याय इतिहास में खासी रूचि रखते हैं और इसी दिलचस्पी की वजह से उन्होंने गांधीजी की दाण्डी यात्रा की पुनरावृत्ति की। मधुकर उपाध्याय ने पैदल 400 किलोमीटर की पैदल यात्रा की। मेरी जानकारी में इस किताब के अलावा उनकी दो और किताबें प्रकाशित हुई हैं, पृथिवी और पंचलाइन।
इस किताब के बारे में काफी कुछ कवर पेज और उसके नाम से ही समझा जा सकता है। कवर पेज में मुस्कुराते जवाहर लाल नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना दिख रहे हैं और नीचे की तस्वीर में लोगों से घिरे महात्मा गांधी की तस्वीर है। आपको किताब में जिन्ना और जवाहर लाल नेहरू का खूब जिक्र मिलेगा। महात्मा गांधी बयान, दंगों को रोकने के लिए उनकी यात्राएं और प्रार्थना सभा का जिक्र भी काफी है। जैसा कि किताब के नाम से पता चल रहा है कि 15 अगस्त 1947 से 50 दिन पहले उस हिंदुस्तान में क्या सब हो रहा था? ये सब किताब में है। लेकिन यहां एक बात समझना जरूरी है कि इसमें न कोई किस्सा है, न किसी को महान बताया है और न ही किसी को छोटा। बस हर रोज जो-जो हो रहा था, बड़े और छोटे नेताओं ने जो कहा था वो सब ज्यों का त्यों रख दिया गया है।
किताब को दो पेजों से भी समझा जा सकता है पहले और आखिरी। दोनों पेज पर दो अलग-अलग नक्शे हैं। पहले नक्शे में मार्च 1947 के हिंदुस्तान का नक्शा है और दूसरे में 15 अगस्त 1947 का नक्शा है। उस पहले नक्शे से दूसरे नक्शे तक की बनने की पूरी कहानी है इस किताब में। किताब में सबसे पहली जो तारीख दी गई है वो है 22 मार्च 1947। जब लाॅर्ड माउंटबेटन को हिंदुस्तान का आखिरी वायसराय बनाकर भेजा गया था। बस यही से सब शुरू होता है। उस एक चैप्टर में लेखक 22 मार्च 1947 से 25 जून 1947 तक की कहानी संक्षेप में बता देते हैं। इस चैप्टर में जिन लोगों के इर्द-गिर्द बताया जाता है किताब के अंत तक इनके बीच में ही सब कुछ बताया जाता है। ये महत्वपूर्ण लोग हैं, वायसराय लाॅर्ड माउंटबेटन, जवाहर लाल नेहरू, महात्मा गांधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मोहम्मद अली जिन्ना और लाॅर्ड लिस्टोवेल। इसके बाद हर एक दिन के बारे में किताब में दिया गया है, जो बहुत लंबा नहीं है। हर दिन को एक पेज में समेटा गया है। लेकिन जिस प्रकार से लिखा गया है वो महत्वपूर्ण है। आज जब हम तकनीक के दौर में आ गये हैं तब चिट्ठियों के बारे में पढ़ना वाकई अच्छा लगता है। चिट्ठियों का खूब जिक्र है, हर रोज जिक्र है। उस समय के बारे में लेखक ने अधिकतर खतों के माध्यम से बताया है। माउंटबेटन, नेहरू, जिन्ना और गांधी आपस में संदेश खतों के माध्यम से ही पहुंचाते थे।
हम सबको मोटा-माटी पता है कि उस समय देश में क्या हो रहा था? लेकिन देश की सियासत में 50 रोज क्या-क्या फैसले लिए गये? बंटवारा कैसे हुआ? महात्मा गांधी इस पर हर रोज क्या कह रहे थे? वे क्यों जिन्ना को अच्छा और माउंटबेटन को चालाक कह रहे थे? इन सबके अलावा इसे बेहतरीन बनाती है किताब के चित्र। किताब में एक पेज पर एक दिन के बारे में बताया गया है और उसके ठीक बगल वाले पेज पर फोटो भी हैं। फोटो को शब्दों से ज्यादा प्रभावी माना जाता है। फोटों में उस दौर के अखबार भी हैं जिसमें पाकिस्तान बनने के बारे में भी है और माउंटबेटन के गर्वनर जनरल के बारे में भी। इस किताब को पढ़ते वक्त आपको लगेगा कि आप कुछ खास पढ़ रहे हैं, कुछ नायाब-सा। इसके पीले, पुराने पन्ने इस किताब को पुराना तो बनाते हैं लेकिन इसके असर को कम नहीं कर पाते या यूं कहें कि इसका पुरानापन ही इसे खास बनाता है। किताब के अंत होता है महात्मा गांधी के 15 अगस्त वाले बयान से जिसमें वो बी.बी.सी. से कहते हैं, भूल जाइए कि कभी मुझे अंग्रेजी आती थी।
किताब की सबसे बड़ी खूबी वो दौर है जिसके बारे में लिखा गया है। जिसके बारे में जितना भी लिखा जाए पढ़ा ही जायेगा। आजादी के पहले के हिंदुस्तान को हर कोई जानना चाहेगा। इसकी कोई विचारधारा नहीं है सीधे-सपाट शब्दों में उस दिन के बारे में बता दिया गया है। इसमें बहुत कुछ समझने को है, बहुत कुछ जानने के लिए है। किताब कुछ लोगों पर ज्यादा फोकस है जिससे आप 50 दिन में उनके बारे में आसानी से समझ सकते हैं।
किताब इतनी अच्छी है कि इसे हर किसी को पढ़ना चाहिए। भाषा शैली भले ही साहित्यिक न हो। लेकिन जानकारी इतनी है कि इस किताब को पढ़ा ही जाना चाहिए। जो अभी-अभी किताबों को पढ़ना शुरू कर रहे हैं उनके लिए इससे शुरू करना अच्छा रहेगा। क्योंकि 100 पेज की ये किताब जल्दी ही खत्म हो जाएगी। शुरू में हो सकता है आपको इसमें बोरियत आये लेकिन जैसे ही आप आगे बढ़ेंगे तो पीछे की बातें समझमें आने लगती है और फिर बोरियत दूर होने लगती है।
किताब का अंश
ये किताब कोई कहानी नहीं सुनाती, किसी के बारे में भी नहीं बताती। जो उन 50 दिनों में घटा, जो उस समय हुआ, जो उस समय कहा गया। वो सब इस किताब में पिरोया गया है। हो सकता है बहुत कुछ छूट गया हो लेकिन जो लेखक ने बताया है वो बेहद महत्वपूर्ण है, जो उसे पढ़ा जाना चाहिए।
किताब- 50 दिन 50 साल पहले।
लेखक- मधुकर उपाध्याय।
प्रकाशकः सारांश प्रकाशन प्रा. लि.।
कुल पेज- 119।
कीमत- 395 रुपए।
इस किताब की अच्छी बात ही यही है कि ये किसी एक पर फोकस नहीं है। इसमें करीब-करीब 200 से ज्यादा लोगों के नाम आये हैं। जिनमें से बहुतों के नाम हमने सुने होंगे और बहुतों के नहीं। कुछ लोगों का तो बस नाम दिया है उनके बारे में कुछ भी नहीं बताया गया है। ये किताब आपको कुछ नये नामों से रूबरू भी कराती है जो आपकी उत्सुकता को बढ़ाती है और शायद बाद में आप उनके बारे में खोजें। लेखक की लेखनी इतनी कठिन नहीं है जिसे आप समझ न पाएं। एक इतिहास की किताबें जिस भाषा में होती हैं, ये किताब भी उसी भाषा के करीब ही है। इस किताब को पढ़ा जाना चाहिए अपनी जानकारी के लिए, इस किताब को पढ़ा जाना चाहिए उस दौर को समझने के लिए, उस समय के माहौल को समझने के लिए और सबसे बड़ी बात उस दौर की सियासत को समझने के लिए।
किताब के लेखक। |
किताब के बारे में
इस किताब के बारे में काफी कुछ कवर पेज और उसके नाम से ही समझा जा सकता है। कवर पेज में मुस्कुराते जवाहर लाल नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना दिख रहे हैं और नीचे की तस्वीर में लोगों से घिरे महात्मा गांधी की तस्वीर है। आपको किताब में जिन्ना और जवाहर लाल नेहरू का खूब जिक्र मिलेगा। महात्मा गांधी बयान, दंगों को रोकने के लिए उनकी यात्राएं और प्रार्थना सभा का जिक्र भी काफी है। जैसा कि किताब के नाम से पता चल रहा है कि 15 अगस्त 1947 से 50 दिन पहले उस हिंदुस्तान में क्या सब हो रहा था? ये सब किताब में है। लेकिन यहां एक बात समझना जरूरी है कि इसमें न कोई किस्सा है, न किसी को महान बताया है और न ही किसी को छोटा। बस हर रोज जो-जो हो रहा था, बड़े और छोटे नेताओं ने जो कहा था वो सब ज्यों का त्यों रख दिया गया है।
किताब का पहला पन्ना। |
किताब को दो पेजों से भी समझा जा सकता है पहले और आखिरी। दोनों पेज पर दो अलग-अलग नक्शे हैं। पहले नक्शे में मार्च 1947 के हिंदुस्तान का नक्शा है और दूसरे में 15 अगस्त 1947 का नक्शा है। उस पहले नक्शे से दूसरे नक्शे तक की बनने की पूरी कहानी है इस किताब में। किताब में सबसे पहली जो तारीख दी गई है वो है 22 मार्च 1947। जब लाॅर्ड माउंटबेटन को हिंदुस्तान का आखिरी वायसराय बनाकर भेजा गया था। बस यही से सब शुरू होता है। उस एक चैप्टर में लेखक 22 मार्च 1947 से 25 जून 1947 तक की कहानी संक्षेप में बता देते हैं। इस चैप्टर में जिन लोगों के इर्द-गिर्द बताया जाता है किताब के अंत तक इनके बीच में ही सब कुछ बताया जाता है। ये महत्वपूर्ण लोग हैं, वायसराय लाॅर्ड माउंटबेटन, जवाहर लाल नेहरू, महात्मा गांधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मोहम्मद अली जिन्ना और लाॅर्ड लिस्टोवेल। इसके बाद हर एक दिन के बारे में किताब में दिया गया है, जो बहुत लंबा नहीं है। हर दिन को एक पेज में समेटा गया है। लेकिन जिस प्रकार से लिखा गया है वो महत्वपूर्ण है। आज जब हम तकनीक के दौर में आ गये हैं तब चिट्ठियों के बारे में पढ़ना वाकई अच्छा लगता है। चिट्ठियों का खूब जिक्र है, हर रोज जिक्र है। उस समय के बारे में लेखक ने अधिकतर खतों के माध्यम से बताया है। माउंटबेटन, नेहरू, जिन्ना और गांधी आपस में संदेश खतों के माध्यम से ही पहुंचाते थे।
हम सबको मोटा-माटी पता है कि उस समय देश में क्या हो रहा था? लेकिन देश की सियासत में 50 रोज क्या-क्या फैसले लिए गये? बंटवारा कैसे हुआ? महात्मा गांधी इस पर हर रोज क्या कह रहे थे? वे क्यों जिन्ना को अच्छा और माउंटबेटन को चालाक कह रहे थे? इन सबके अलावा इसे बेहतरीन बनाती है किताब के चित्र। किताब में एक पेज पर एक दिन के बारे में बताया गया है और उसके ठीक बगल वाले पेज पर फोटो भी हैं। फोटो को शब्दों से ज्यादा प्रभावी माना जाता है। फोटों में उस दौर के अखबार भी हैं जिसमें पाकिस्तान बनने के बारे में भी है और माउंटबेटन के गर्वनर जनरल के बारे में भी। इस किताब को पढ़ते वक्त आपको लगेगा कि आप कुछ खास पढ़ रहे हैं, कुछ नायाब-सा। इसके पीले, पुराने पन्ने इस किताब को पुराना तो बनाते हैं लेकिन इसके असर को कम नहीं कर पाते या यूं कहें कि इसका पुरानापन ही इसे खास बनाता है। किताब के अंत होता है महात्मा गांधी के 15 अगस्त वाले बयान से जिसमें वो बी.बी.सी. से कहते हैं, भूल जाइए कि कभी मुझे अंग्रेजी आती थी।
किताब का हर पेज कुछ इसी तरह से दिखता है। |
किताब की खूबी
किताब की सबसे बड़ी खूबी वो दौर है जिसके बारे में लिखा गया है। जिसके बारे में जितना भी लिखा जाए पढ़ा ही जायेगा। आजादी के पहले के हिंदुस्तान को हर कोई जानना चाहेगा। इसकी कोई विचारधारा नहीं है सीधे-सपाट शब्दों में उस दिन के बारे में बता दिया गया है। इसमें बहुत कुछ समझने को है, बहुत कुछ जानने के लिए है। किताब कुछ लोगों पर ज्यादा फोकस है जिससे आप 50 दिन में उनके बारे में आसानी से समझ सकते हैं।
कौन पढ़े?
किताब इतनी अच्छी है कि इसे हर किसी को पढ़ना चाहिए। भाषा शैली भले ही साहित्यिक न हो। लेकिन जानकारी इतनी है कि इस किताब को पढ़ा ही जाना चाहिए। जो अभी-अभी किताबों को पढ़ना शुरू कर रहे हैं उनके लिए इससे शुरू करना अच्छा रहेगा। क्योंकि 100 पेज की ये किताब जल्दी ही खत्म हो जाएगी। शुरू में हो सकता है आपको इसमें बोरियत आये लेकिन जैसे ही आप आगे बढ़ेंगे तो पीछे की बातें समझमें आने लगती है और फिर बोरियत दूर होने लगती है।
किताब का अंश
दिल्ली और कराची में माहौल कुल मिलाकर एक जैसा था। लोग, आदमी, औरतें, बच्चे सड़कों पर थे। दिल्ली में तिरंगा और कराची में पाकिस्तान का झंडा हर जगह लहरा रहा था। शहर के कोने-कोने में जुलूस निकाले जा रहा था। पता ही नहीं चल रहा था कि एक कहां खत्म हुआ और दूसरा कहां शुरू। यही हाल हर शहर, कस्बा और गांव का था। गर्वनमेंट हाउस में माउंटबेटन ने जिन्ना के साथ समारोह में जाने से पहले कहा, आप पर हमले और हत्या का खतरा अभी टला नहीं है। बेहतर होगा कि आप बंद कार में जाएं। जिन्ना ने ऐसा नहीं किया और खुली कार से गये। तीस तोपों की सलामी हुई और ‘कायदे आजम जिंदाबाद’ के नारे गूंजते रहे। माउंटबेटन ने जिन्ना से कहा- हम दोस्तों की तरह अलग हो रहे हैं जो एक दूसरे की इज्जत करते हैं। शाम को प्रार्थना सभा में महात्मा गांधी ने कहा, कल हम आजाद हो जाएंगे पर आज आधी रात को देश के दो टुकड़े हो जाएंगे।
ये किताब कोई कहानी नहीं सुनाती, किसी के बारे में भी नहीं बताती। जो उन 50 दिनों में घटा, जो उस समय हुआ, जो उस समय कहा गया। वो सब इस किताब में पिरोया गया है। हो सकता है बहुत कुछ छूट गया हो लेकिन जो लेखक ने बताया है वो बेहद महत्वपूर्ण है, जो उसे पढ़ा जाना चाहिए।
किताब- 50 दिन 50 साल पहले।
लेखक- मधुकर उपाध्याय।
प्रकाशकः सारांश प्रकाशन प्रा. लि.।
कुल पेज- 119।
कीमत- 395 रुपए।
how i get this book 50 दिन, 50 साल पहले
ReplyDelete9460643878
sanjay kararwal