इस समय पूरी दुनिया में स्वच्छता पर बहुत ध्यान दिया जा रहा है। भारत में तो इस पर एक अभियान चल रहा है। जिसके तहत पूरे देश में शौचालय बनाए जा रहे हैं। शौचालय में लोग जा रहे हैं या नहीं जा रहे हैं वो अलग बात है। मगर सवाल ये है कि क्या शौचालय से स्वच्छता आएगी? ये शौचालय करते क्या हैं? हमारे मल को जल और मिट्टी तक ले जाते हैं। इससे तो हमारी नदियां, हमारा भूजल और हमारी जमीन को नुकसान हो रहा है। इसी मल का जल और थल के संबंधों, समस्याओं और इन्हीं के इर्द-गिर्द सवालों पर सोचने को मजबूर करती है सोपान जोशी की किताब ‘जल थल मल’।
जल थल मल में सिर्फ शौचालय की बात नहीं की गई है। इसमें विज्ञान, पर्यावरण, नदियां, भोजन के बारे में बहुत गहन तरीके से बताया गया है। सोपान जोशी उन अनदेखे पहलुओं के बारे में बताते हैं। जिनके बारे में हमें या तो पता नहीं है या फिर हम उस ओर ज्यादा ध्यान नहीं देते। इस किताब को सिर्फ पढ़ना ही नहीं चाहिए बल्कि इसके हर पहलुओं पर बात और चर्चाएं भी करनी चाहिए।
जल थल मल को लिखा है सोपान जोशी ने। सोपान जोशी का जन्म 1973 में मध्य प्रदेश के इंदौर में हुआ। दिल्ली में स्कूली शिक्षा पूरी की और 1996 में दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य से गे्रजुएशन किया। सोपान जोशी पेशे से पत्रकार हैं। पहले वो अखबारों और पत्रिकाओं में काम किया करते थे। खेती-किसानी, विज्ञान, पर्यावरण, जल प्रबंधन, खेल पर रिपोर्टिंग की है। अब दिल्ली में रहकर ही स्वतंत्र लेखन करते हैं। इस किताब के अलावा उनकी दो और किताबें हैं, एक था मोहन और बापू की पाती।
सोपान जोशी ने अपनी इस किताब को 10 अध्यायों में बांटा है। हर अध्याय में अलग-अलग विषय पर बात होती है। किताब के पहले पन्ने पर भगवान बराह का सुअर रूपी चित्र बना हुआ है। आगे पढ़ते हुए इस बारे में समझमें आ जाता है। किताब का पहला अध्याय है ‘जल थल मल’। शुरू में लेखक इस सृष्टि के बनने और उसमें रहने वाले जीवों के बारे में बताते हैं। वे इस संसार के नियमों के बारे में बात करते हैं। प्रलय कैसे हुआ, मनुष्य की प्रजाति कैसे आई? इस बारे में पता चलता है। शुरू में पढ़ते हुए लगता है कि मैं कोई विज्ञान की किताब पढ़ रहा हूं। लेकिन जल्दी ही लेखक मूल विषय पर चर्चा करते हैं, मल। लेखक लिखते हैं, ’हमारी आबादी चौगुनी हुई है तो हमारा मल-मूत्र भी चौगुना बढ़ा है लेकिन उसके ठिकाने चौगुने नहीं हुए हैं।’
इस बारे में किताब में कई आंकड़े दिए जाते हैं जो बेहद भयावह हैं। जिन आधुनिक शौचालय का हम इस्तेमाल करते हैं वो जल प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है। इस मल का विर्सजन कैसे किया जाए? कहां किया जाए? इस बारे में उदाहरण सहित बताती है ये किताब। इसमें लंदन की टैम्स नदी का उदाहरण है जो 1850 में नाला बन गई थी। इसके अलावा कोलकाता के भेरिया के बारे में बताते हैं जो शहर के गंदे पानी से मछली पालन करते हैं। सोपान जोशी बताते हैं कि सबसे ज्यादा मल कहीं पैदा होता है तो वो है, ट्रेन। मल और रेल का पूरा गणित समझाती है ये किताब। तब लगता है कि इस बारे में हमने तो कभी सोचा ही नहीं। सरकार शौचालय के लिए योजनाएं सालों से बनवा रही है। हर बार स्वच्छता के नाम पर बस उनके नाम बदल दिए जाते हैं। न तो इन सालों में शौचालय की पद्धति बदली और न ही उनका निकासी तंत्र।
किताब में बहुत सारे चित्र बने हुए हैं। जिनको उकेरा है सोमेश कुमार ने। इस वजह से किताब पढ़ते हुए उन चित्रों को घटनाओं और लेखक की बातों से जुड़ पाते हैं। ये चित्र किताब को और अधिक प्रभावी बनाते हैं। आगे बढ़ने पर किताब आधुनिकता वाले मल के एक बेहद चिंताजनक पहलू को बताती है। ये पहलू है उस प्रथा का जिसमें एक जाति विशेष के लोग मैला ढ़ोते हैं। दूसरे देशों में इसके लिए प्रशिक्षण और उपकरण दिए जाते हैं लेकिन हमारे देश में ऐसा कुछ नहीं है। किताब में ही ऐसी कई घटनाओं का जिक्र है जिसमें सीवर सफाई करते हुए लोगों की मौत हो गई। 1993 में इस प्रथा को बंद कर दिया गया था। किताब में एक जगह लेखक लिखते हैं कि देश भर में करीब सात लाख लोग हाथ से मैला ढो रहे हैं। लेखक ऐसा काम करने वाली जातियों और उनके इतिहास के बारे में भी बताते हैं।
लेखक किताब में बार-बार शुचिता का जिक्र करते हैं। शुचिता का अर्थ है पवित्र भाव। आगे किताब में नदी से हमारी दूरी के बारे में जिक्र है। हमने कैसे नदियों को नाला बना दिया और फिर उसे साफ करने के लिए सीवर तंत्र लगा दिए। इन सबकी खामियां और आलोचना करती है ये किताब। मैले पानी को कैसे साफ किया जाए? उसकी कुछ सफल पद्धतियों के बारे में भी बताती है ये किताब। हमारे मल और शौचालय ने कितनी की नदियों को पाट दिया है। इसमें इसमें दिल्ली की यमुना की सहायक नदियां, मुंबई की मिट्ठी जैसी तमाम नदियां हैं। पहले ये देश तालाबों और नदियों का देश कहलाया जाता था। लेखक कहता है कि आज पानी को सहेजने की प्रणाली ‘नाले’ बन चुकी हैं।
किताब में लिखा है कि पहले मल को सिर्फ नदियों में नहीं बहाया जाता था। मल को खाद के रूप में उपयोग किया जाता था। इतिहास के कई उदाहरण भी इसमें बताए गए हैं जिसमें लोग मल को खेती के लिए खरीदते हैं। गांव के लोग पहले इसलिए खेतों मल विर्सजन करने जाते थे। सोपान जोशी बताते है, मल को पहले सोने की उपमा दी जाती थी। हरित क्रांति आई तो ये मल खेतों की जगह नदियों में जाने लगा। लद्दाख में एक पद्धति है ‘छागरा’। जिससे मल खेतों के लिए आज भी इस्तेमाल किया जाता है। शौचालय कैसे होेने चाहिए? उस बारे में भी विस्तार से बताती है ये किताब। इसमें इतिहास के कई घटनाएं, विषयों के बारे में गहन चर्चा और उदाहरण से इसमें गहनता आती है।
ये किताब कई अहम मुद्दों पर लिखी गई है। जल प्रदूषण, मल तंत्र और थल के बारे में। इन तीन मुददों को लेकर किताब कई विषयों को समेटती है जिसमें नदियां, उद्योग, सीवर, खाद्य तंत्र, शौचालय और फसल आदि चीजें हैं। ये किताब इसलिए खास है क्योंकि एक जगह पर इतनी सारी बातों पर गहन अध्ययन मिलना मुश्किल है। इसमें एक और खास चीज है, संदर्भ। लेखक ने संदर्भ के लिए 20 पेज दिए हैं। हर अध्याय के लिए संदर्भ कहां से और कैसे लिया? इसको विस्तार से बताया है। इस प्रकार से संदर्भ बहुत कम किताबों में मिलते हैं। ऐसे ही संदर्भ मुझे अनुपम मिश्र की ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में मिले थे।
किताब पढ़ने पर पता चलता है कि इसमें कितना रिसर्च की गई, लेखक ने कितनी स्टडी की है। जैसा कि मैंने शुरू में ही कहा कि आप ज्यों-ज्यों इसको पढ़ेंगे आप उसके बारे में सोचना शुरू कर देंगे। किताब में भाषा बिल्कुल सहज और सरल है। इसे पढ़ने में किसी भी प्रकार की समस्या नहीं होगी। इस किताब को देश के हर नागरिक को पढ़ना चाहिए। अगर हम इन विषयों के बारे में अच्छे से जान लेेंगे। उसके बाद शायद हम वो गलतियां न करें जो आज करते हैं।
जल थल मल की कीमत समझाती है ये किताब। ये सब कुछ आता है शुचिता के भाव से। लेखक कहता है कि शुचिता की परख हमारे सामाजिक संबंधों की पड़ताल है। शुचिता का काम आधुनिकता और परंपरा की थकी हुई बहस नहीं है। इसमें आधुनिकता भी होनी चाहिए और परंपरा भी। ये किताब पढ़ी जानी चाहिए क्योंकि ये शुचिता के पटल को खोलती है। इसको पढ़ा जाना चाहिए ताकि हम विवश को उस गंदगी के बारे में सोचने को। जो हमें जल थल मल के मोल को नहीं समझने दे रही है।
किताब- जल थल मल
लेखक- सोपान जोशी
कीमत- 278 रुपए
प्रकाशन- राजकमल प्रकाशन
कुल पृष्ठ- 208।
जल थल मल में सिर्फ शौचालय की बात नहीं की गई है। इसमें विज्ञान, पर्यावरण, नदियां, भोजन के बारे में बहुत गहन तरीके से बताया गया है। सोपान जोशी उन अनदेखे पहलुओं के बारे में बताते हैं। जिनके बारे में हमें या तो पता नहीं है या फिर हम उस ओर ज्यादा ध्यान नहीं देते। इस किताब को सिर्फ पढ़ना ही नहीं चाहिए बल्कि इसके हर पहलुओं पर बात और चर्चाएं भी करनी चाहिए।
लेखक के बारे में
लेखक। |
जल थल मल को लिखा है सोपान जोशी ने। सोपान जोशी का जन्म 1973 में मध्य प्रदेश के इंदौर में हुआ। दिल्ली में स्कूली शिक्षा पूरी की और 1996 में दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य से गे्रजुएशन किया। सोपान जोशी पेशे से पत्रकार हैं। पहले वो अखबारों और पत्रिकाओं में काम किया करते थे। खेती-किसानी, विज्ञान, पर्यावरण, जल प्रबंधन, खेल पर रिपोर्टिंग की है। अब दिल्ली में रहकर ही स्वतंत्र लेखन करते हैं। इस किताब के अलावा उनकी दो और किताबें हैं, एक था मोहन और बापू की पाती।
किताब के बारे में
सोपान जोशी ने अपनी इस किताब को 10 अध्यायों में बांटा है। हर अध्याय में अलग-अलग विषय पर बात होती है। किताब के पहले पन्ने पर भगवान बराह का सुअर रूपी चित्र बना हुआ है। आगे पढ़ते हुए इस बारे में समझमें आ जाता है। किताब का पहला अध्याय है ‘जल थल मल’। शुरू में लेखक इस सृष्टि के बनने और उसमें रहने वाले जीवों के बारे में बताते हैं। वे इस संसार के नियमों के बारे में बात करते हैं। प्रलय कैसे हुआ, मनुष्य की प्रजाति कैसे आई? इस बारे में पता चलता है। शुरू में पढ़ते हुए लगता है कि मैं कोई विज्ञान की किताब पढ़ रहा हूं। लेकिन जल्दी ही लेखक मूल विषय पर चर्चा करते हैं, मल। लेखक लिखते हैं, ’हमारी आबादी चौगुनी हुई है तो हमारा मल-मूत्र भी चौगुना बढ़ा है लेकिन उसके ठिकाने चौगुने नहीं हुए हैं।’
इस बारे में किताब में कई आंकड़े दिए जाते हैं जो बेहद भयावह हैं। जिन आधुनिक शौचालय का हम इस्तेमाल करते हैं वो जल प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है। इस मल का विर्सजन कैसे किया जाए? कहां किया जाए? इस बारे में उदाहरण सहित बताती है ये किताब। इसमें लंदन की टैम्स नदी का उदाहरण है जो 1850 में नाला बन गई थी। इसके अलावा कोलकाता के भेरिया के बारे में बताते हैं जो शहर के गंदे पानी से मछली पालन करते हैं। सोपान जोशी बताते हैं कि सबसे ज्यादा मल कहीं पैदा होता है तो वो है, ट्रेन। मल और रेल का पूरा गणित समझाती है ये किताब। तब लगता है कि इस बारे में हमने तो कभी सोचा ही नहीं। सरकार शौचालय के लिए योजनाएं सालों से बनवा रही है। हर बार स्वच्छता के नाम पर बस उनके नाम बदल दिए जाते हैं। न तो इन सालों में शौचालय की पद्धति बदली और न ही उनका निकासी तंत्र।
किताब में बहुत सारे चित्र बने हुए हैं। जिनको उकेरा है सोमेश कुमार ने। इस वजह से किताब पढ़ते हुए उन चित्रों को घटनाओं और लेखक की बातों से जुड़ पाते हैं। ये चित्र किताब को और अधिक प्रभावी बनाते हैं। आगे बढ़ने पर किताब आधुनिकता वाले मल के एक बेहद चिंताजनक पहलू को बताती है। ये पहलू है उस प्रथा का जिसमें एक जाति विशेष के लोग मैला ढ़ोते हैं। दूसरे देशों में इसके लिए प्रशिक्षण और उपकरण दिए जाते हैं लेकिन हमारे देश में ऐसा कुछ नहीं है। किताब में ही ऐसी कई घटनाओं का जिक्र है जिसमें सीवर सफाई करते हुए लोगों की मौत हो गई। 1993 में इस प्रथा को बंद कर दिया गया था। किताब में एक जगह लेखक लिखते हैं कि देश भर में करीब सात लाख लोग हाथ से मैला ढो रहे हैं। लेखक ऐसा काम करने वाली जातियों और उनके इतिहास के बारे में भी बताते हैं।
शुचिता का विचार
लेखक किताब में बार-बार शुचिता का जिक्र करते हैं। शुचिता का अर्थ है पवित्र भाव। आगे किताब में नदी से हमारी दूरी के बारे में जिक्र है। हमने कैसे नदियों को नाला बना दिया और फिर उसे साफ करने के लिए सीवर तंत्र लगा दिए। इन सबकी खामियां और आलोचना करती है ये किताब। मैले पानी को कैसे साफ किया जाए? उसकी कुछ सफल पद्धतियों के बारे में भी बताती है ये किताब। हमारे मल और शौचालय ने कितनी की नदियों को पाट दिया है। इसमें इसमें दिल्ली की यमुना की सहायक नदियां, मुंबई की मिट्ठी जैसी तमाम नदियां हैं। पहले ये देश तालाबों और नदियों का देश कहलाया जाता था। लेखक कहता है कि आज पानी को सहेजने की प्रणाली ‘नाले’ बन चुकी हैं।
किताब में लिखा है कि पहले मल को सिर्फ नदियों में नहीं बहाया जाता था। मल को खाद के रूप में उपयोग किया जाता था। इतिहास के कई उदाहरण भी इसमें बताए गए हैं जिसमें लोग मल को खेती के लिए खरीदते हैं। गांव के लोग पहले इसलिए खेतों मल विर्सजन करने जाते थे। सोपान जोशी बताते है, मल को पहले सोने की उपमा दी जाती थी। हरित क्रांति आई तो ये मल खेतों की जगह नदियों में जाने लगा। लद्दाख में एक पद्धति है ‘छागरा’। जिससे मल खेतों के लिए आज भी इस्तेमाल किया जाता है। शौचालय कैसे होेने चाहिए? उस बारे में भी विस्तार से बताती है ये किताब। इसमें इतिहास के कई घटनाएं, विषयों के बारे में गहन चर्चा और उदाहरण से इसमें गहनता आती है।
क्या है खास?
ये किताब कई अहम मुद्दों पर लिखी गई है। जल प्रदूषण, मल तंत्र और थल के बारे में। इन तीन मुददों को लेकर किताब कई विषयों को समेटती है जिसमें नदियां, उद्योग, सीवर, खाद्य तंत्र, शौचालय और फसल आदि चीजें हैं। ये किताब इसलिए खास है क्योंकि एक जगह पर इतनी सारी बातों पर गहन अध्ययन मिलना मुश्किल है। इसमें एक और खास चीज है, संदर्भ। लेखक ने संदर्भ के लिए 20 पेज दिए हैं। हर अध्याय के लिए संदर्भ कहां से और कैसे लिया? इसको विस्तार से बताया है। इस प्रकार से संदर्भ बहुत कम किताबों में मिलते हैं। ऐसे ही संदर्भ मुझे अनुपम मिश्र की ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में मिले थे।
किताब पढ़ने पर पता चलता है कि इसमें कितना रिसर्च की गई, लेखक ने कितनी स्टडी की है। जैसा कि मैंने शुरू में ही कहा कि आप ज्यों-ज्यों इसको पढ़ेंगे आप उसके बारे में सोचना शुरू कर देंगे। किताब में भाषा बिल्कुल सहज और सरल है। इसे पढ़ने में किसी भी प्रकार की समस्या नहीं होगी। इस किताब को देश के हर नागरिक को पढ़ना चाहिए। अगर हम इन विषयों के बारे में अच्छे से जान लेेंगे। उसके बाद शायद हम वो गलतियां न करें जो आज करते हैं।
जल थल मल की कीमत समझाती है ये किताब। ये सब कुछ आता है शुचिता के भाव से। लेखक कहता है कि शुचिता की परख हमारे सामाजिक संबंधों की पड़ताल है। शुचिता का काम आधुनिकता और परंपरा की थकी हुई बहस नहीं है। इसमें आधुनिकता भी होनी चाहिए और परंपरा भी। ये किताब पढ़ी जानी चाहिए क्योंकि ये शुचिता के पटल को खोलती है। इसको पढ़ा जाना चाहिए ताकि हम विवश को उस गंदगी के बारे में सोचने को। जो हमें जल थल मल के मोल को नहीं समझने दे रही है।
किताब- जल थल मल
लेखक- सोपान जोशी
कीमत- 278 रुपए
प्रकाशन- राजकमल प्रकाशन
कुल पृष्ठ- 208।
No comments:
Post a Comment