Friday, 19 June 2020

गर फिरदौसः ये फिरदौस की कहानी है! फिरदौस यानी कि जन्नत, फिरदौस मतलब कश्मीर

कश्मीर को जन्नत कहा गया है, जिन्होंने देखा उन्होंने माना भी। इसके बावजूद वहां हिंसा का दौर चलता रहता है। न्यूज चैनल और अखबार हमें बता देते हैं कि कश्मीर में क्या हो रहा है? हम हमेशा एक पक्ष की कहानी सुनते आए हैं। अब एक किताब आई गर-फिरदौस। इसमें उस कश्मीर की कहानी है जिसे अभी तक किसी ने नहीं कहा। ये किताब बताती है कि कश्मीर जन्नत है लेकिन वहां के लोग उससे दूर हैं।


ऐसा भी नहीं है गर-फिरदौस में किसी का पक्ष रखा गया है, किसी की बात कही गई है। वो तो बस एक कहानी है जो अपना काम कर रही है। ये कहानी कश्मीरियत के होने की भी है। कुछ सालों में कश्मीर में बहुत कुछ घटा है। लेखिका ने उन्हीं घटनाओं को कहानी के रूप में बताया है। इस किताब को पढ़ने के बाद आप भी कश्मीर के गम में थोड़ा डूबेंगे और सोचने पर मजबूर हो जाएंगे।

लेखिका के बारे में

लेखिका प्रदीपिका सारस्वत।

इस किताब की लेखिका हैं प्रदीपिका सारस्वत। प्रदीपिका पेशे से पत्रकार हैं। मीडिया नौकरी छोड़कर अब वे फ्रीलांस राइटर बन गई हैं। कश्मीर को उन्होंने बहुत करीब से देखा है। वहीं से देश भर को वहां के हालात के बारे में बताती रही हैं। प्रदीपिका वैसे तो आगरा की हैं मगर वे घर पर रहती कम हैं। वे कहती भी हैं कि मैं घुमक्कड़ हूं। जहां होती हूं, वहीं की हो जाती हूं। मास कम्यूनिशेन की पढ़ाई की और डेस्क के पीछे बैठने वाले मीडिया में आ गईं। वहां टिक नहीं पाईं तो नौकरी छोड़ी और कश्मीर चली गईं। वहां कुछ महीने रहीं और फिर सबके सामने किताब लेकर आईं, प्रदीपिका सारस्वत।

किताब के बारे में


गर फिरदौस में एक कहानी है जिसके तीन मुख्य किरदार हैं, इकरा, शौकत और फिरदौस। किताब में इन्हीं के नाम से तीन अलग-अलग चैप्टर हैं। अपने चैप्टर में वे अपनी-अपनी कहानी बताते हैं, अपने-अपने कश्मीर को बताते हैं। इकरा एक काॅलेज में पढ़ने वाली लड़की है जिसे एक लड़का पसंद है। जिसे अपने दोस्तों के साथ रहना पसंद है, जो कुछ देखती है उसे अपने ब्रश से कोरे कागज पर उतारती है। जिसे शाम को डल झील के किनारे घूमना पसंद है। फिरदौस, एक पढ़ा-लिखा नौजवान है जो दिल्ली से पढ़कर आया है। उसने कश्मीर से बाहर के हिन्दुस्तान को देखा है। उसे घुटन महसूस होती है जब वो दोनों जगह अंतर पाता है। तीसरा किरदार है, शौकत। शौकत वो कश्मीरी है जो आतंकवादी और सेना के बीच पिस रहा है। वही डर उसके अंदर बना रहता है।

कहानी कुछ ऐसे शुरू होती है कि फिरदौस और इकरा अपने कुछ दोस्तों के साथ श्रीनगर जाते हैं। रास्ते में सेना फिरदौस को पकड़ ले जाती है और उसके बाद कहानी कश्मीर को बताती है। कभी इकरा के कश्मीर को दिखाया जाता है जिसे न कोई सही लगता है और न ही कुछ गलत। उस घटना के बाद फिरदौस की जिंदगी पूरी तरह से बदल जाती है। उसे अपनी पढ़ाई बेमानी लगने लगती है। शौकत कहानी में थोड़ी देर से आता है मगर बहुत जरूरी बातें बताता है। उसी के माध्यम से लेखिका कश्मीर में आतंकवाद और सेना को लेकर आती है। मुजाहिदीन क्या सोचते हैं? सेना इनका क्या करती है? ये सब किताब में पढ़ने को मिलता है।

गर फिरदौस सिर्फ कहानी नहीं है कि पढ़ा जाए और भूला दिया जाए। ये तो कश्मीर की कहानी है, वहां के लोगों की कहानी है। इसमें बताया गया है कि कोई कश्मीरी हथियार उठाता है तो क्यों उठाता है? किताब में बहुत अच्छी तरह से बताया गया है कि कश्मीर के लोग क्यों सेना से डरते हैं? किताब में एक जगह जिक्र भी है जब फिरदौस सोचता है कि बदन पर वर्दी और हाथों में बंदूक लिए लोग सबके लिए आम नहीं थे। डर और मौत के साये सिर्फ उसके ही मुल्क के हिस्से आए थे। ये एक ही देश के दो जगहों के बारे में बताता है। इसके अलावा पाकिस्तान से आने वाले लोगों के बारे में भी काफी कुछ कहा गया है। शौकत के किरदार इस कश्मीर से रूबरू कराता है। इसी के बारे में एक जगह शौकत सोचता है, परदेसी मुल्क में कोई आखिर क्यों अपना सब कुछ छोड़कर जान हथेली पर लिए इस तरह फिरेगा। जब ये सब पढ़ते हैं तो लगता है अब तक कश्मीर के बारे में कुछ और ही सुनते आए थे।


किताब में इसके अलावा कश्मीर की सुंदरता का खूब जिक्र है। इसमें सुंदरता के नाम पर सिर्फ डल झील, श्रीनगर और शिकारा नहीं है। इसके अलावा कश्मीरी पकवानों के बारे में भी बीच-बीच में जिक्र होता रहता है। उर्दू शब्द तो इतने ज्यादा हैं कि आपको हर लाइन में उर्दू शब्द मिल जाएंगे। किताब में सब बुरा ही बुरा नहीं है। गर फिरदौस बताती है कि कश्मीर बंद होने के बावजूद उनकी जिंदगी बंद नहीं हुई थी। इंटरनेट बंद होने के बाद भी उन्होंने लोगों से बात करना बंद नहीं किया था। हर वीकेंड पर साथ बैठकर दावत करना फिर भी नहीं भूले थे। कर्फ्यू के बीच भी प्रेमी, प्यार करना नहीं छोड़े थे। गर फिरदौस, उस कश्मीर की कहानी है जिसके बारे में कोई नहीं बताता। जहां जिंदगी तो सरपट से दौड़ रही है लेकिन बेबसी और चुभन भी है।

किताब की खूबी


गर फिरदौस की सबसे बड़ी खूबी तो उसकी कहानी का ढंग है। जिसमें सिर्फ कहानी नहीं, कश्मीर को भी कह दिया है। उसके बाद भाषा बहुत सरल है। उर्दू के बहुत शब्द हैं लेकिन इतने भी कठिन नहीं कि समझ में न आएं। पूरी किताब में सिर्फ तीन तस्वीरें हैं, जो आपको तीनों चैप्टर में मिल जाएंगी। शायद लेखिका ने उसे कश्मी में रहते हुए कैद किया होगा। कमियां तो आपको इसमे ढूढ़ने से भी नहीं मिलेंगी। हो सकता आपको लगे कि ये काल्पनिक भी हो सकता है। फिर भी नहीं भूलना चाहिए कि लेखिका एक पत्रकार हैं। ये कश्मीर का रिपोर्ताज है बस उन्होंने इसे कहा कहानी के ढंग में है। क्योंकिा घटनाएं भुला दी जाती हैं लेकिन किस्से और कहानी जेहन में बने रहते हैं। इस किताब को पढ़ने के बाद शौकत, इकरा और फिरदौस भी आपके जेहन में बना रहेगा।

गर फिरदौस डिजिटल संस्करण में है। इसे आप किंडल पर जाकर पढ़ सकते हैं। बहुत ज्यादा मोटी भी नहीं हो तो आप एक बैठक में ही इसे पढ़ डालेंगे। गर फिरदौस जैसी किताबें दिमाग को सोचने पर मजबूर करती हैं। मेरा विश्वास है कि किताब खत्म होने के बाद भी आप कश्मीर के बारे में सोचते रहेंगे। जिसके बाद शायद आप कश्मीर को कुछ अलग नजर से देखेंगे। किताब पढ़ने के बाद मुझे फिरदौस की एक बात याद रहती है, जो कश्मीर के लोगों की कहानी भी है। 

रोज मुर्दे की तरह जीने से एक दिन सचमुच का मर जाना बेहतर है। 

किताब- गर फिरदौस।
लेखिका- प्रदीपिका सारस्वत
प्रकाशन- एमेजाॅन किंडल।
कीमत- 29 रुपए।

Wednesday, 17 June 2020

इंडिया ऑफ्टर गांधीः आजादी के बाद के कुछ सालों की कहानी, जिसमें बहुत कुछ बना और बहुत कुछ बिगड़ा!

जैसे ही आखिरी ब्रिटिश सिपाही बंबई या कराची बंदरगाह से रवाना होगा। हिन्दुस्तान परस्पर विरोधी धार्मिक और नस्लीय समूहों के लोगों की लड़ाई का अखाड़ा बन जाएगा। 
                                      - जे. ई. वेल्डन, 1915।

इंडिया ऑफ्टर गांधी जिसका हिंदी अनुवाद भारत गांधी के बाद है। आजादी के बाद के भारत के इतिहास को बेहतरीन तरीके से बताया है। ऐसा लगता है कि हम किसी किताब की अलग-अलग कहानी पढ़ रहे हैं जो घूम-फिरके एक ही किरदार पर आकर ठहर जाती है, जवाहर लाल नेहरू। 1947 में नेहरू कैसे थे और 1964 में आते-आते क्या थे? इस किताब को पढ़ने के बाद समझ आता है। ये किताब दुनिया के विशालतम लोकतंत्र का सिर्फ इतिहास नहीं है। ये किताब आज की सरकार और राजनेताओं के लिए एक सबक भी है। उन्हें इस किताब से सीखना चाहिए कि जब संकट आए, समस्याएं आएं तो क्या नहीं करना है? हमारे सामने उस समय कुछ समस्याएं थीं, हमने तब क्या किया और क्या नहीं करना चाहिए था? दोनों ही बातें बताती है ये किताब।

लेखक के बारे में


रामचन्द्र गुहा।

रामचन्द्र गुहा देश के जाने-माने इतिहासकार हैं। वे देश के बड़े मुद्दों पर अपनी राय रखते हैं और लोग उनको सुनते हैं। उनका जन्म 1958 में देहरादून में हुआ। दिल्ली और कलकत्ता से पढ़ाई की। कई जगह प्रोफेसर भी रहे। दस साल तीन महाद्वीपों में पांच अकादमिक पदों पर रहने के बाद वे अब पूरी तरह से लेखक बन चुके हैं। उनकी लिखी किताबों को 20 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इस किताब के अलावा भारत नेहरू के बाद भी काफी चर्चित रही है। रामचन्द्र गुहा ने बैंगलोर को अपना ठिकाना बना लिया है। अब वे वहीं से लेखन का काम करते हैं।

क्या है किताब में


किताब में आजादी के समय से लेकर नेहरू के निधन तक ही कहानी है। उस दौरान जो भी बड़े और जरूरी मुद्दे, घटनाएं हुईं। वो सब इस किताब में है। किताब शुरू होती है एक प्रस्तावना से जिसकी कुछ पंक्तियों के बाद गालिब का एक शेर आता है। फिर हिन्दुस्तान के बारे में काफी कुछ बताया जाता है। जिसमें लेखक के खुद के विचार है। वो भारत को अस्वाभाविक राष्ट्र कहते हैं, इस प्रस्तावना में वे इसकी वजह भी बताते हैं। उसके बाद शुरू होती है किताब।

इंडिया आॅफ्टर गांधी में पहला चैप्टर है आजादी और  
राष्ट्रपिता की हत्या। आजादी के समय देश का क्या माहौल था? देश के आंदोलनकारी जो अब नेता बन चुके थे, वे क्या कर रहे थे? गांधी जी देश के अलग-अलग हिस्सों में जाकर शांति बहाल करने की कोशिश में लगे थे। आजादी मिली और उसके बाद देश की सबसे बड़ी त्रासदी हुई। जिसमें लाखों लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा, देश में हिंसा का माहौल था। उस दौर को लेखक ने आंकड़ों, बयान, संस्मरण से बताने की कोशिश की है। इसके अलावा किताब में विभाजन, 565 रियासतों को एक करना, कश्मीर समस्या, शरणार्थी, कुछ विकास की घटनाएं, आदिवासी समस्या, राज्यों का पुनर्गठन और चीन से युद्ध के बारे में विस्तार से बताया है।

किताब में 17 चैप्टर हैं। हर अध्याय में देश की एक कहानी है, एक समस्या है और उन पर लिए कुछ कदम हैं। जो पढ़ते हुए कभी सही लगता है तो कभी लगता है ये नहीं होना चाहिए। फिर चाहे केरल सरकार को बर्खास्त करना हो या आंध्र प्रदेश के शख्स का अनशन करते हुए मर जाना हो या फिर बात हो नेहरू का हमेशा वी के मेनन के पीछे खड़ा रहना हो। जिसका नतीजा निकला भारत का 1962 में चीन से पराजय का मुंह देखना पड़ा। देश के कई राज्य उसी 17 सालों में बने। वो कैसे बने? क्या समस्याएं आई? बंबई महाराष्ट्र का हो, गुजरात में जाए या अलग ही रहे? ये सब जानकारी ये किताब देती है।

हर चैप्टर की शुरूआत में ऐसे ही कथन हैं।

ये किताब कुल मिलाकर हमें जागरूक करती है। हमें वो सब जानकारी देती है। जिनके बारे में या तो बहुत कम पता है या पता ही नहीं है। मुझे नहीं पता था कि जवाहर लाल नेहरू ने अपने खास दोस्त शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार करवाया। मुझे नहीं पता था जब नेहरू की मौत हुई तो शेख फूट-फूटकर रो रहे थे। मुझे नहीं पता था कि चीन और भारत के बीच क्या बातें हुईं थी? ये किताब संविधान में बने कुछ प्रमुख कानूनों की भी बात करता है। जिनको लेकर संविधान सभा में बहुत बहस हुई। चाहे भाषा का मामला हो, अल्पसंख्यकों के अधिकार का मामला हो या झंडे पर विचार की बात हो। संविधान सभा के स्वरूप और उस समय दिए गए बहुत सारे कथनों को भी किताब में डाला गया है।

रामचन्द्र गुहा ने ये किताब बहुत रिसर्च के बाद लिखी है। जो पढ़ते हुए समझ में भी आता है। उन्होंने इसके लिए कितनी मेहनत की है, ये किताब के आखिर में संदर्भ देखने के बाद समझ आता है। 525 पेज की इस किताब के आखिरी 47 पेज में सिर्फ संदर्भ हैं। लेखक ने हर चैप्टर के अलग-अलग संदर्भ लिखे हैं। जो इस किताब को और भी विश्वसीन बनाता है। आप इस किताब को पढ़ने के बाद सिर्फ उस दौर के इतिहास, परिस्थितियों और घटनाओं को ही नहीं समझते। आपको समझ आता है भारत, आप खोज पाते हैं भारत। भारत को जानने और समझने के लिए एक मुकम्मल किताब है, भारत गांधी के बाद।

क्यों पढ़ें?


वैसे तो मुझे ये बताना नहीं चाहिए क्योंकि अब तक बहुत सारे लोग इसको पढ़ चुके हैं। इस किताब को कई अवाॅर्ड भी मिल चुके हैं। आउटलुक ने तो इसे बुक आॅफ द् ईयर से नवाजा है। फिर भी मुझे ये अच्छी लगी क्योंकि इसमें जानकारी बहुत है, वो भी रोचक तरीके से। पढ़ते हुए मैं कभी बोर नहीं हुआ। आगे पढ़ने की लालियत बनी ही रहती थी। ये किताब लेखक ने अंग्रेजी में लिखी। इसका हिन्दी अनुवाद सुशांत झा ने किया। मैंने ये किताब हिन्दी में ही पढ़ी। भाषा बिल्कुल सहज और सरल है। आपको पढ़ते हुए दिक्कत नहीं आएगी। लेखक ने किताब में कुछ ऐसे लोगों के बारे में बताया है। जिन्होंने बहुत जरूरी काम किए हैं लेकिन उनके बारे में बहुत कम लोगों को पता है।

किताब में बहुत कम चित्र हैं।

किताब में तस्वीरें बहुत कम हैं। लेखक ने पूरी किताब में तस्वीरें रखने की बजाय, कुछ पेज तस्वीरों के लिए छोड़ दिए हैं। ये तस्वीर उन लोगों की हैं जिनका किताब में जिक्र है। तस्वीरें सिर्फ लोगों की नहीं हैं कुछ घटनाओं की तस्वीरें है। तस्वरों के अलावा कुछ नक्शे भी किताब में दिए हुए हैं। किताब को एक और चीज रोचक बनाती है। हर चैप्टर की शुरूआत में किसी न किसी व्यक्ति का कथन है। जो उस चैप्टर के मुद्दे से संबंधित होता है। भारत गांधी के बाद मुझे काफी कुछ जानने को मिला। ये किताब ज्ञान का एक भंडार है जिसे हर किसी को पढ़ना चाहिए। ये उस दौर की समस्याओं को भी बताता है, हमारी कमियों को भी बताता है और हमने क्या किया वो भी। आखिर में किताब में दिए एक अमेरिकी पत्रकार की टिप्प्पणी, जो कछ हद तक सही है और कुछ हद तक गलत।

हमारे लिए हिन्दुस्तान का सिर्फ दो ही मतलब हैं, अकाल और जवाहर लाल नेहरू।

किताबः इंडिया ऑफ्टर गांधी।
लेखक- रामचन्द्र गुहा।
अनुवादक- सुशांत झा हिन्दी।
प्रकाशक- पेंगुइन बुक्स।
कीमत- 399 रुपए।


Thursday, 11 June 2020

वन लाइनर के अलावा मुसाफिर कैफे में मुसाफिर जैसा कुछ भी नहीं है

असल में किताबें दोस्त तब बनती हैं जब हम सालों बाद उन्हें पहली बार की तरह छूते हैं। किताबें खोलकर अपनी पुरानी अंडरलाइन्स को ढूंढ़-ढूंढ़कर छूने की कोशिश करते हैं। किसी को समझना हो तो उसकी शेल्फ में लगी किताबों को देख लेना चाहिए। किसी की आत्मा समझनी हो तो उन किताबों में लगी अंडरलाइन को पढ़ना चाहिए।

ऐसी गहरी और अच्छी बातें किताब को रोचक बनाती हैं। दिव्य प्रकाश दुबे इस काम को बहुत अच्छी तरह से करते हैं। उनकी हर किताब में ऐसी ही बातें मिल जाती हैं जिनको नोटडाउन करने का मन करता है। आज मैं जिस किताब के बारे में बात कर रहा हूं वो है, मुसाफिर कैफे।

लड़की देखने गए और वहां वो पहले से ही ...

किताब का नाम उसके बारे में काफी कुछ बता देता है। उसी को देखकर हम किताब को पढ़ने या न पढ़ने का मन बनाते हैं। मुसाफिर कैफे को मैंने उसके नाम से ही पसंद किया था। पूरी किताब में मुसाफिर खोजता रहा मगर मिला नहीं। मुसाफिर कैफे में एक कहानी है जो कुछ हद तक लव स्टोरी है और कुछ हद तक आज की जिंदगानी है। मुसाफिर कैफे में लेखक ने बहुत हद तक आज के नौजवानों की रग पकड़ने की कोशिश की है। शायद इसलिए ये किताब युवाओं को पसंद आई है।

लेखक के बारे में 

Divya Prakash Dubey (@divyapdubey) | Twitter                                                             
मुसाफिर कैफे को लिखा है दिव्य प्रकाश दुबे ने। दिव्य प्रकाश चार किताबें लिख चुके हैं। हाल ही में उनकी किताब अक्टूबर जंक्शन आई है। मुसाफिर कैफे उनकी तीसरी किताब है। इसके अलावा उनकी दो किताबें शर्तें लागू और मसाला चाय है। उनकी स्टोरीबाजी और संडे वाली चिट्ठी काफी पापुलर रही है। पढ़ने-लिखने में उन्होंने बीटेक और एमबीए किया है। 2017 में अपनी नौकरी छोड़कर पूरी तरह से लेखक बन चुके हैं। इन दिनों सोशल मीडिया पर लाइव करके लोगों से बात करते हैं। वहां अपना कुछ सुनाते हैं और दूसरों का सुनते भी हैं।


कहानी


ये कहानी है तीन नौजवानों की, सुधा, चंदर और पम्मी की। लेखक ने धर्मवीर भारती के उपन्यास गुनाहों के देवता के तीन मुख्य पात्रों को आज के समय में दिखाने की कोशिश की है। सुधा, चंदर और पम्मी के अपने सपने हैं और अपनी जिंदगी से कुछ अलग चाहते हैं। इसके बावजूद तीनों की जिंदगी एक-दूसरे से जुड़ी रहती है। ये कहानी कोई ट्राइंग्ल लव स्टोरी नहीं है कि कोई किसी को प्यार करता है तो कोई किसी से। सुधा वकील है जो तलाक दिलवाती है। जिससे उसका शादी से विश्वास उठ चुका है इसलिए वो शादी नहीं करना चाहती। चंदर थोड़ा कन्फ्यूज्ड है वो जिंदगी से क्या चाहता है? उसे खुद नहीं पता। पम्मी कहानी में थोड़ा देर से आती है। सुधा और चंदर की मुलाकात मुंबई के एक काॅफी हाउस में होती है। दोनों जल्दी दोस्त बनते हैं और फिर साथ रहने लगते हैं।

साथ रहते हुए चंदर को लगता है कि अब उसे शादी कर लेनी चाहिए जबकि सुधा का मानना है कि हम बिना शादी के भी साथ रह सकते हैं। चंदर मुंबई और सुधा को छोड़कर  निकल पड़ता है एक सफर पर। ये सफर उसे मसूरी पहुंचाता है। यहीं उसकी मुलाकात छोड़कर पम्मी से होती है। दोनों मिलकर मसूरी में ही कैफे खोलते हैं मुसाफिर कैफे। कहानी फिर सीधे दस साल आगे जंप करती है। उसके बाद सुधा और चंदर कैसे मिलते हैं। दोनों शादी करते हैं या नहीं, अगर करते हैं पम्मी का क्या होता है? ये सब जानने के लिए आपको मुसाफिर कैफे पढ़नी होगी।

किताब के बारे में


किताब में कहानी क्या है? उसको शाॅर्ट में बताने की कोशिश की है। किताब को इस प्रकार रोचक तरीके से लिखा गया है कि आप एक बार में पढ़ लेंगे। किसी किताब को अच्छा बनाती है कहानी के बीच की बातचीत। इस किताब में वो बातचीत पढ़ने में तो अच्छी लगती है लेकिन ऐसा बहुत कम होता है। वो सब फसाना-सा लगता है, खासकर सुधा और चंदर की बातचीत। पढ़ते हुए लगता है कि ऐसा सिर्फ मूवीज में हो सकता है वास्तव में नहीं। चाहे फिर वो दोस्त बनने की बात हो या फिर बिना शादी के हनीमून जाने की बात। हो सकता है कि बहुत-से लोगों को ये पसंद आया हो लेकिन ये मुझे किताब की सबसे बड़ी कमी लगी।

                                    मुसाफिर कैफे : दिव्य प्रकाश ने ...

किताब की भाषा बहुत सहज और सरल है। जिसे पढ़ने में आसानी होती है। इसके अलावा बहुत सारे वन लाइनर हैं और बहुत सारी ऐसी बातें हैं जिनको आप अंडरलाइन जरूर करना चाहेंगे। बीच-बीच में अंग्रेजी शब्द और अंग्रेजी भी है मगर वो खटकती नहीं है। इसके अलावा टाइटल भी अनोखे ढंगे से लिखे गए हैं जैसे कि ‘उ से उस दिन की बात’, ‘अ से अंडमान निकोबार’।

लेखक अपनी किताब को बहुत मेहनत से लिखता है। मगर पाठक को कैसी लगेगी? ये उसके हाथ मे नहीं होता है। दिव्य प्रकाश दुबे की अक्टूबर जंक्शन पढ़ने के बाद मुझे मुसाफिर कैफे थोड़ी कम पसंद आई। मुसाफिर कैफे मेरे लिए वो पहली किताब है जिसे मैंने किंडल पर पढ़ा। इसके बावजूद जिन्होंने ये किताब नहीं पढ़ी है उनको पढ़नी चाहिए। मगर ये सोचकर मत पढ़िए कि इसमें यात्रा और मुसाफिर जैसा कुछ होगा। 

सबकी मंजिल भटकना है, कहीं पहुंचना नहीं।

किताब- मुसाफिर कैफे।
लेखक- दिव्य प्रकाश दुबे।
प्रकाशक- हिन्दी युग्म और वेस्टलैंड लिमिटेड।
कीमत- 150 रुपए।
किंडल प्राइस- 115 रुपए।