मां, जो कभी एक बीस बरस की लड़की थी।
ये पंक्तियां इस किताब के लिए बिल्कुल सटीक बैठती हैं।माँ पर बहुत कुछ लिखा गया है लेकिन हर जगह मां ममता और त्याग के तरह दिखाई गई है। हम बेटे सिर्फ मां को मां के रूप में देखते। जो सिर्फ परिवार के चौबीस घंटे कुछ न कुछ करती रहती है। हम भूल जाते हैं कि वो मां भी कभी एक लड़की थी, उसके भी कुछ सपने थे और हसरतें थीं। जिसको उसने या इस समाज ने कहीं दबा दिए हैं। इब्नेबतूती अपनी कहानी के जरिए हमसे तमाम सवाल पूछती है जो हमें खुद से पूछने चाहिए। ये सवाल उन सारे बेटों के लिए, पतियों के लिए और मांओं के लिए भी हैं। मां के अंदर की लड़की को टटोलने का प्रयास करती है इब्नबतूती।
इब्नेबतूती एक प्यारी-सी कहानी है जिसको पढ़ते हुए आपको बेहद सुकून मिलेगा। युवाओं के प्रेम के अलग-अलग पहलुओं पर अब तक काफी किताबें लिखी जा चुकी हैं। अब मां के प्रेम पर एक किताब आई है। ये किताब सिर्फ एक लव स्टोरी नहीं है। ये मां-बेटे की भी कहानी है। जिसमें मां की ममता और त्याग भी है तो बेटे की मां के प्रति फिक्र भी है। इन्हीं कुछ अलग-अलग पहलुओं को जोड़ती है इब्नेबतूती।
लेखक के बारे में
इब्नेबतूती को लिखा है दिव्य प्रकाश दुबे ने। दिव्य प्रकाश की ये पांचवीं किताब है। इससे पहले उनकी शर्तेे लागू, मसाला चाय, मुसाफिर कैफे और अक्टूबर जंक्शन आ चुकी हैं। सभी को पाठक ने पसंद किया था। इसके अलावा स्टोरीबाजी नाम से और ऑडिबल सुनो ऐप पर भी कहानियां सुनाते हैं। पढ़ाई-लिखाई में उन्होंने बीटेक और एमबीए किया है। आठ साल काॅरपोरेट दुनिया में मार्केटिंग और एक लीडिंग चैनल में कंटेंट एडिटर के रूप में काम करने के बाद अब एक फुलटाइम लेखक हैं। फिलहाल उन्होंने अपना ठिकाना मुंबई को बनाया हुआ है।
कहानी
वैसे तो इब्नेबतूती कहानी है एक मां की जो कभी एक लड़की थी लेकिन कहानी मां-बेटे आसपास चलती है। मां शालू अवस्थी और बेटा राघव अवस्थी का आपस में मां-बेटे से ज्यादा दोस्त वाला रिश्ता है। जो एक-दूसरे से हर बात शेयर करते हैं। राघव मां को ‘अम्मा यार’ बुलाता है और शालू बेटे से बात करते समय ‘अब्बे’ जरूर बोलती हैं। शालू के पति की मौत उस समय हुई जब राघव बहुत छोटा था। शालू एक इंडिपेंडेंट औरत है जो अपने बेटे को अकेले संभालती हैं। राघव पढ़ाई के लिए विदेश जाना चाहता है लेकिन उसे मां की फिक्र रहती है। शालू को भी ये बात परेशान करती है लेकिन वो राघव को बताती नहीं है और यही चिंता उसे बीमार कर देती है।
किताब की सबसे जरूरी बात। |
जब सब अस्पताल में होते हैं तब राघव की गर्लफ्रेंड निशा अस्पताल से उसके घर कपड़े लेने आती है। तब उसे एक संदूक मिलता है जिसमें उसे कुछ चिट्ठियां मिलती हैं। वो राघव को इन चिट्ठियों के बारे में बताती है। यहीं से कहानी वर्तमान और अतीत में चलने लगती है। शालू काॅलेज के समय कैसी थी, उसे प्यार कैसे हुआ? और उस प्यार का अंजाम क्या होता है? इन चिट्ठियों को पढ़कर राघव परेशान हो जाता है लेकिन निशा के समझाने पर समझ जाता है। तब वो अमेरिका जाने से पहले उस चिट्ठी वाले कुमार आलोक से मिलना चाहता है। उसकी यही इच्छा इस कहानी को आगे बढ़ाती है और आखिर तक ले जाती है।
किताब के बारे में
160 पेज की किताब आप एक बैठकी में पूरी पढ़ सकते हैं। किताब की भाषा सहज और सरल है। इसमें भी वैसे ही वनलाइनर हैं जो दिव्य प्रकाश दुबे की हर किताब में रहते हैं। ये वनलाइनर पढ़ने में भी बहुत अच्छे लगते हैं और कहानी से कनेक्ट भी करते हैं। कभी-कभी तो ये इतने बेहतरीन होते हैं कि नोट करने का मन करता है। इसके अलावा ये किताब बहुत सारी सामाजिक परंपराओं को तोड़ने की बात करती है। जैसे कि मां-बेटे का सहज संबंध, मां के प्रेम के बारे मंे पता चलने पर भी सहज होना, मां को डेट पर जाने के लिए कहना और मां का इसके के लिए राजी होना।
इन सबके बावजूद लेखक ने सावधानी भी बरती है। दोनों के भी सहजता होने के बावजूद मां-बेटे के संबंध की मर्यादा बनी रखी है। इस किताब को पढ़ते हुए कहीं भी नहीं लगता है कि ऐसा तो कभी नहीं हो सकता। जिनको लगता है मां वो सब नहीं कर सकती जो इसमें बताया गया है तो उनको सोचना चाहिए क्यों नहीं? ऐसे ही तमाम सवाल लेखक मुझसे और आपसे इस कहानी के जरिए पूछता है। इन सारी सहजता और सवालों की वजह से इब्नेबतूती पाठकों के जेहन में लंबे समय तक रहने वाली है।
मैं दिव्य प्रकाश दुबे की पिछली कुछ किताबें पढ़ चुका हूं। इन सबमें इब्नेबतूती सबसे बेहतरीन किताब है। मुझ उन किताबों को पढ़ते हुए मौलिकता कम और फंसाना ज्यादा लगता था लेकिन इब्नेबतूती के साथ ऐसा नहीं हुआ। अगर आपने इस किताब को अब तक नहीं पढ़ा है तो पढ़ लीजिए, अच्छा लगेगा।
पुस्तक- इब्नेबतूती
लेखक- दिव्य प्रकाश दुबे
प्रकाशक- हिन्द युग्म(2020)
मूल्य- 150 रुपए।