Monday, 24 August 2020

मां के भीतर छिपी लड़की को टटोलने का प्रयास करती है इब्नेबतूती

मां, जो कभी एक बीस बरस की लड़की थी।

ये पंक्तियां इस किताब के लिए बिल्कुल सटीक बैठती हैं।माँ पर बहुत कुछ लिखा गया है लेकिन हर जगह मां ममता और त्याग के तरह दिखाई गई है। हम बेटे सिर्फ मां को मां के रूप में देखते। जो सिर्फ परिवार के चौबीस घंटे कुछ न कुछ करती रहती है। हम भूल जाते हैं कि वो मां भी कभी एक लड़की थी, उसके भी कुछ सपने थे और हसरतें थीं। जिसको उसने या इस समाज ने कहीं दबा दिए हैं। इब्नेबतूती अपनी कहानी के जरिए हमसे तमाम सवाल पूछती है जो हमें खुद से पूछने चाहिए। ये सवाल उन सारे बेटों के लिए, पतियों के लिए और मांओं के लिए भी हैं। मां के अंदर की लड़की को टटोलने का प्रयास करती है इब्नबतूती।


इब्नेबतूती एक प्यारी-सी कहानी है जिसको पढ़ते हुए आपको बेहद सुकून मिलेगा। युवाओं के प्रेम के अलग-अलग पहलुओं पर अब तक काफी किताबें लिखी जा चुकी हैं। अब मां के प्रेम पर एक किताब आई है। ये किताब सिर्फ एक लव स्टोरी नहीं है। ये मां-बेटे की भी कहानी है। जिसमें मां की ममता और त्याग भी है तो बेटे की मां के प्रति फिक्र भी है। इन्हीं कुछ अलग-अलग पहलुओं को जोड़ती है इब्नेबतूती।

लेखक के बारे में

लेखक।

इब्नेबतूती को लिखा है दिव्य प्रकाश दुबे ने। दिव्य प्रकाश की ये पांचवीं किताब है। इससे पहले उनकी शर्तेे लागू, मसाला चाय, मुसाफिर कैफे और अक्टूबर जंक्शन आ चुकी हैं। सभी को पाठक ने पसंद किया था। इसके अलावा स्टोरीबाजी नाम से और ऑडिबल सुनो ऐप पर भी कहानियां सुनाते हैं। पढ़ाई-लिखाई में उन्होंने बीटेक और एमबीए किया है। आठ साल काॅरपोरेट दुनिया में मार्केटिंग और एक लीडिंग चैनल में कंटेंट एडिटर के रूप में काम करने के बाद अब एक फुलटाइम लेखक हैं। फिलहाल उन्होंने अपना ठिकाना मुंबई को बनाया हुआ है।

कहानी

वैसे तो इब्नेबतूती कहानी है एक मां की जो कभी एक लड़की थी लेकिन कहानी मां-बेटे आसपास चलती है। मां शालू अवस्थी और बेटा राघव अवस्थी का आपस में मां-बेटे से ज्यादा दोस्त वाला रिश्ता है। जो एक-दूसरे से हर बात शेयर करते हैं। राघव मां को ‘अम्मा यार’ बुलाता है और शालू बेटे से बात करते समय ‘अब्बे’ जरूर बोलती हैं। शालू के पति की मौत उस समय हुई जब राघव बहुत छोटा था। शालू एक इंडिपेंडेंट औरत है जो अपने बेटे को अकेले संभालती हैं। राघव पढ़ाई के लिए विदेश जाना चाहता है लेकिन उसे मां की फिक्र रहती है। शालू को भी ये बात परेशान करती है लेकिन वो राघव को बताती नहीं है और यही चिंता उसे बीमार कर देती है।

किताब की सबसे जरूरी बात।

जब सब अस्पताल में होते हैं तब राघव की गर्लफ्रेंड निशा अस्पताल से उसके घर कपड़े लेने आती है। तब उसे एक संदूक मिलता है जिसमें उसे कुछ चिट्ठियां मिलती हैं। वो राघव को इन चिट्ठियों के बारे में बताती है। यहीं से कहानी वर्तमान और अतीत में चलने लगती है। शालू काॅलेज के समय कैसी थी, उसे प्यार कैसे हुआ? और उस प्यार का अंजाम क्या होता है? इन चिट्ठियों को पढ़कर राघव परेशान हो जाता है लेकिन निशा के समझाने पर समझ जाता है। तब वो अमेरिका जाने से पहले उस चिट्ठी वाले कुमार आलोक से मिलना चाहता है। उसकी यही इच्छा इस कहानी को आगे बढ़ाती है और आखिर तक ले जाती है।

किताब के बारे में

160 पेज की किताब आप एक बैठकी में पूरी पढ़ सकते हैं। किताब की भाषा सहज और सरल है। इसमें भी वैसे ही वनलाइनर हैं जो दिव्य प्रकाश दुबे की हर किताब में रहते हैं। ये वनलाइनर पढ़ने में भी बहुत अच्छे लगते हैं और कहानी से कनेक्ट भी करते हैं। कभी-कभी तो ये इतने बेहतरीन होते हैं कि नोट करने का मन करता है। इसके अलावा ये किताब बहुत सारी सामाजिक परंपराओं को तोड़ने की बात करती है। जैसे कि मां-बेटे का सहज संबंध, मां के प्रेम के बारे मंे पता चलने पर भी सहज होना, मां को डेट पर जाने के लिए कहना और मां का इसके के लिए राजी होना।


इन सबके बावजूद लेखक ने सावधानी भी बरती है। दोनों के भी सहजता होने के बावजूद मां-बेटे के संबंध की मर्यादा बनी रखी है। इस किताब को पढ़ते हुए कहीं भी नहीं लगता है कि ऐसा तो कभी नहीं हो सकता। जिनको लगता है मां वो सब नहीं कर सकती जो इसमें बताया गया है तो उनको सोचना चाहिए क्यों नहीं? ऐसे ही तमाम सवाल लेखक मुझसे और आपसे इस कहानी के जरिए पूछता है। इन सारी सहजता और सवालों की वजह से इब्नेबतूती पाठकों के जेहन में लंबे समय तक रहने वाली है।

मैं दिव्य प्रकाश दुबे की पिछली कुछ किताबें पढ़ चुका हूं। इन सबमें इब्नेबतूती सबसे बेहतरीन किताब है। मुझ उन किताबों को पढ़ते हुए मौलिकता कम और फंसाना ज्यादा लगता था लेकिन इब्नेबतूती के साथ ऐसा नहीं हुआ। अगर आपने इस किताब को अब तक नहीं पढ़ा है तो पढ़ लीजिए, अच्छा लगेगा।

पुस्तक- इब्नेबतूती

लेखक- दिव्य प्रकाश दुबे

प्रकाशक- हिन्द युग्म(2020)

मूल्य- 150 रुपए।

Thursday, 20 August 2020

काशी का अस्सीः ये किताब नहीं जिंदादिल और मस्त रहने का पिटारा है

जो मजा बनारस में, न पेरिस में न फारस में।

ये पंक्तियां अमर सी हो गई है। बनारस के बारे में कुछ अच्छा कहना हो तो ये बस यही सुना दो और अगर बहुत कुछ कहना हो तो काशी का अस्सी किताब पढ़ लो। बनारस की संस्कृति, बनारस के घाट, बनारस की राजनीति और बनारस के लोग सब कुछ समझ आ जाता है इस किताब को पढ़कर। बनारस के बारे में जितना कहा जाए उतना कम है लेकिन काशी का अस्सी में जैसा कहा गया है वैसा कोई नहीं कह पाएगा। यहां की मौजमस्ती, फक्कड़पन, भांग और गलियां सब कुछ इस किताब में मिलता है। बनारस को समझने और जानने के लिए काशी का अस्सी बहुत मजेदार किताब है।

ये किताब बनारस के एक मोहल्ला अस्सी के बारे में है। किताब पढ़कर समझ आता है जितना बनारस खूबसूरत है। वैसा ही जिंदादिल है अस्सी। किताब में एक जगह अस्सी के बारे में लिखा है,‘अस्सी बनारस का मुहल्ला नहीं है। अस्सी ‘अष्टाध्यायी’ है और बनारस उसका भाष्य। पिछले तीस-पैंतीस वर्षों से पूंजीवाद के पगलाए अमरीकी यहां आते हैं और चाहते हैं कि दुनिया इसका टीका हो जाए। ये किताब अस्सी के इर्द-गिर्द चलती रहती है और उसी बहाने लेखक बहुत सारे जरूरी मसलों पर राय रख देते हैं। बनारस किसी न देखा हो न देखा हो इस किताब को पढ़कर काशी के अस्सी को देखने जरूर मन कर जाता है।

लेखक के बारे में

इस बेहतरीन किताब के लेखक हैं काशीनाथ सिंह। उनका जन्म 1 जनवरी 1937 को बनारस जिले के जीयनपुर गांव में हुआ। शुरूआती पढ़ाई के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम.ए.और पीएचडी की। उसके बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ही हिन्दी भाषा का ऐतहासिक व्याकरण कार्यालय में शोध-सहायक के तौर पर काम किया। बाद में वहीं हिन्दी विभाग मे प्राध्यापक हुए फिर प्रोफेसर और अध्यक्ष पद पर रहने के बाद रिटायर हुए। उन्होंने अपनी पहली कहानी संकट लिखी। बाद में तो वो कहानी ही कहानी लिखते रहे। काशी का अस्सी उनकी सबसे सफलतम रचना है। उनको 2011 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी नवाजा गया। उनकी एक बड़ी पहचान ये भी है कि ये वे हिन्दी के बहुत बड़े आलोचक डाॅ. नामवर सिंह के छोटे भाई हैं।

किताब के बारे में 

काशीनाश सिंह की किताब काशी का अस्सी में पांच कहानियां हैं जो अस्सी के इर्द-गिर्द घूमती-रहती हैं। हर कहानी में अलग-अलग किरदार तो हैं लेकिन कुछ किरदार ऐसे हैं जो सभी में हैं। डा. गया सिंह, तन्नी गुरू और राम राय जैसे पात्र ही तो इस किताब को मजेदार बनाते हैं। किताब में जो बातें होती हैं तो उनको पढ़कर लगता है कि हमें भी इसमें होना चाहिए। चाय से लेकर, पान और भांग पर गरमा-गरम बहस होती है। लेखक ने इस किताब में उस समय की राजनीति पर भी अस्सी के मुहाने से बताने की कोशिश की है। बीजेपी, मुलायम और मायावती सबको गरियाते हुए दिखाई देती है ये किताब। सभी पार्टी के नेता एक ही टपरी के नीचे चाय पीते हैं और अस्सी की राजनीति पर बात करते हैं। तब आपको लगेगा कि असली राजनीति यहीं अस्सी की है, बाकी पूरी दुनिया छोटी है।

किताब में सिर्फ राजनीति पर बात नहीं होती है। पूंजीवाद कैसे लोगों और अस्सी को बदल रहा है। इस पर भी किताब कटाक्ष करती है। किताब में हर बड़े मुद्दे पर लेखक ने कटाक्ष किया है चाहे फिर वो काशी की संस्कृति हो या फिर टीवी जैसे डिब्बे का आना। सभी कहानी व्यंग्य शैली में हैं जिनको पढ़ते हुए चेहरे पर मुस्कान बनी ही रहती है। इस व्यंग्य शैली में ही सारी कहानियों को रचा गया है। चाहे फिर वो काशी में टूरिस्टों वाली कहानी हो या अस्सी के बदलते स्वरूप की हो। हर कहानी आपको गुदगुदाएगी जरूर। हालांकि आखिर में कुछ-कुछ सोचने पर भी मजबूर करती है।

किताब में गालियों को वैसा ही कहा गया है जैसा बातचीत में लोग इस्तेमाल करते हैं। जिनको ये पढ़कर बुरा लगे उनके लिए लेखक ने पहले ही कह दिया था, मित्रों, यह संस्मरण वयस्कों के लिए है। बच्चों और बूढों के लिए नहीं और उनके लिए भी नहीं जो ये नहीं जानते कि अस्सी और भाषा के बीच ननद-भौजाई और साली-बहनोई का रिश्ता है। वैसे भी किताब में गाली होते हुए भी लगता है ही नहीं। हर-हर महादेव और गाली तो काशी की संस्कृति है ये किताब के लेखक कहते हैं। किताब की सबसे खास बात ये भी है कि इसके कुछ पात्र और कहानी पूरी तरह से सही है। कुछ कहानियों को लेखक ने बुना है फिर भी कहीं से पता नहीं चलता कि कौन-सी कहानी वास्तविक है और कौन-सी काल्पनिक। काशी का अस्सी किताब तो वैसे ही पाठक को मस्त कर देती है जिसके इसके पात्र है।

किताब का एक अंश

बहुत कुछ बदल गया है गुरूजी! नेहरू, लोहिया, जयप्रकाश नारायण के लिए भीड़ नहीं जुटानी पड़ती थी। भीड़ अपने आप आती थी। अब नेता भीड़ अपने साथ लेकर आता है, कारों में, जीपों में, बसों में, टैक्टर में।

काशी का अस्सी की सबसे बड़ी खूबी है लिखने की शैली। व्यंग्य की शैली हो जिस तरह से काशीनाथ सिंह ने इस्तेमाल किया है। उसने ही इस किताब को एक बड़े मुकाम तक पहंुचाया है। इसके अलावा भाषा बहुत सहज और सरल है जो हर किसी की समझ में आती है। किताब शुरू से लेकर अंत तक कहीं बोर नहीं होने देती है। काशी का अस्सी जिंदादिल होने के लिए आपको जरूर पढ़नी चाहिए। वैसे भी 2002 में आई ये किताब आज भी पढ़ी जा रही है। मैं जो किताब पढ़ रहा हूं वो काशी का अस्सी का 13वां संस्करण है। अगर आपने इस किताब को नहीं पढ़ा है तो जरूर पढ़ें।

किताब- काशी का अस्सी 

लेखक- काशीनाथ सिंह

प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन 

कीमत- 195 रुपए।

Tuesday, 4 August 2020

दूर दुर्गम दुरुस्तः पूर्वोत्तर के लिए बनी धारणाओं को तोड़ने की कोशिश करती है ये किताब

पूर्वोत्तर को लेकर उत्तर भारत के लोगों में एक भ्रम बना हुआ है। हम हिमाचल और उत्तराखंड तो बड़े आराम से चले जाते हैं लेकिन पूर्वोत्तर जाने के लिए कई बार सोचते हैं। पूर्वोत्तर के लोगों के साथ दिल्ली में खराब व्यवहार किया जाता है। ऐसे में ये भी डर बना रहता है कि हमारे साथ भी वहां भी वैसा भी हो सकता है। आप सोचते हैं कि पूर्वोत्तर खतरे से भरी जगह है। अगर आपको नहीं पता कि वहां के लोग कैसे हैं तो इन सवालों के जवाब और धारणाओं को तोड़ती है, दूर दुर्गम दुरुस्त।


दूर दुर्गम दुरुस्त पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के कुछ जगहों का यात्रा वृतांत है। ये इतनी बखूबी से लिखा गया है कि ऐसा लगता है हम भी यात्रा कर रहे हैं। यात्रा करना भी सुकून देता है और उसके बारे में पढ़ने पर भी। वैसा ही सुकून देती है ये किताब। मुझे ये किताब बहुत अच्छी लगी। इतनी अच्छी कि मैं इसे एक बार मे पढ़कर खत्म कर सकता था लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। किताब को आराम-आराम से पढ़ा ताकि उसका आनंद कुछ ज्यादा देर तक ले सकूं। जो भी इस किताब को पढ़ेगा उसके साथ भी ऐसा जरूर होगा। 

लेखक के बारे में


इस किताब को लिखा है, उमेश पंत ने। उमेश पंत उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के छोटे-से कस्बे गंगोलीहाट के रहने वाले हैं। अभी वो दिल्ली में रहते हैं। उमेश ने दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के एमआरसी से मास कम्यूनिकेशन में मास्टर्स किया है। करियर की शुरूआत मुंबई में बालाजी टेलीफिल्म्स में बतौर एसोशिएट राइटर की। बाद में नीलेश मिसरा के शो यादों के एडिट बाॅक्स के लिए कहानियां भी लिखीं। ग्रामीण अखबार गांव कनेक्शन में पत्रकार भी रहे। इसके अलावा हिन्दी के तमाम अखबारों में यात्राओं और अन्य विषयों पर लेख लिखते रहते हैं। यात्राकार नाम से खुद का ब्लाॅग चलाते हैं। दूर दुर्गम दुरुस्त उमेश पंत की दूसरी किताब है। उनकी पहली किताब है, इनरलाइन पास। जिसको पाठकों ने काफी पसंद किया था। 

किताब के बारे में


दूर दुर्गम दुरुस्त मेघालय, अरूणाचल प्रदेश और असम की कुछ जगहों का यात्रा वृतांत है। इस यात्रा को लेखक ने दो अलग-अलग समय पर किया। लेखक ने लिखा तो अपनी यात्रा के बारे में है लेकिन जिस तरह लिखा है वो काबिले तारीफ है। शब्दों की ताकत लेखक बहुत अच्छे से समझता है। उन्होंने इसे बिल्कुल कहानी की तरह सुनाया है। पढ़ते हुए लगता है कि हम कोई सिनेमा देख रहे हैं। बात फिर वो हार्निबल फेस्टिवल की हो या पानी में तैरते हुए आइलैंड की। पढ़ते हुए किताब आपको अपना बना लेगी।

किताब की शुरूआत होती है ट्रेन यात्रा से। ट्रेन यात्रा में जो कुछ भी होता है लेखक बताते चले जाते हैं। ट्रेन में जो वो देखते हैं, जो वो करते हैं, यहां तक कि लोगों की बातचीत भी। अक्सर ऐसा होता है कि लेखक अपनी किताब गालियां नहीं रखना चाहता। मगर लेखक ने ऐसा बड़ी बेबाकी से किया है। जिसके लिए उनकी तारीफ भी होनी चाहिए। लेखक शहर, गांव, छोटी-बड़ी जगहों पर घूमता ही रहता है। इस किताब को पढ़कर कई बार लगता है कि पूर्वोत्तर भी जाना चाहिए। किताब की अच्छी बात ये भी है कि लेखक जहां जाता है उस जगह के बारे में अच्छे से बताते हैं, वहां का इतिहास, वहां को भौगोलिकता के बारे में जरूर बताते हैं। जो किताब को और रोचक बनाता है।


किताब सिर्फ जगहों के बारे में बात नहीं करती है। वहां के लोगों के बारे में, परंपराओं के बारे में भी बात करती है। किताब को पढ़कर समझ आता है कि पूर्वोत्तर के लिए हमारे मन में गलत धारणा बनी हुई है। लेखक बताते हैं कि पूर्वोत्तर के लोग भी उतने ही अच्छे हैं जितना कि यहां की जगहें। कई मामलों में पूर्वोत्तर बाकी राज्यों से बेहतर है। यहां महिलाएं रात में आराम से घूमती हैं जबकि बाकी जगहों पर ऐसा करना लड़कियों और महिलाओं के लिए खतरा माना जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यहां के लोग अच्छे है। इसके अलावा किताब में कई जगह लेखक स्वच्छता का जिक्र करते हैं। तभी तो एशिया का स्वच्छ गांव पूर्वोत्तर में ही है।

ये किताब उन लोगों के लिए दस्तावेज की तरह है जो पूर्वोत्तर जाना चाहते हैं। किताब में बहुत-सी ऐसी जगहें हैं जिनके बारे में आपने न सुना हो तो इस किताब को पढ़ने के बाद आप वहां जा सकते हैं। पूर्वोत्तर में कितना खतरा है ये किताब उसका भी जिक्र करती है। इसके अलावा लेखक बीच-बीच में कुछ ऐसी चीजें बताते हैं जिनको नोट करने का मन करता है। यात्रा, असफला, जीवन, अजनबी और डर जैसे विषयों पर वो ऐसी बातें बताते हैं। जिनको पढ़कर किताब में रोचकता बनी रहती है। इस किताब को पढ़ने के बाद खुशी होती है कि कुछ बेहतरीन पढ़ा है। उससे भी बढ़कर ये ऐसी जगह के बारे में पता चला, जहां के बारे में हमें बहुत कम पता है।

अदना-सा अंश


इन तमाम ख्यालों के बाद जैसे दिमाग में एक अजीब-सी हलचल हुई। एक सवाल कौंधा कि आखिर क्यों हूं मैं इस यात्रा पर। इस तरह से अकेले निकल आने का क्या मतलब है? एक अजीब किस्म का अकेलापन महसूस होने लगा मुझे। यात्राओं के दौरान ऐसा शायद ही पहले कभी हुआ हो मेरे साथ। एक असन्तोष सा था ये, जो न जाने कहां से उपजा था? अंग्रेजी में लंबी यात्राओं के बीच जेहन आने वाली इन भावनाओं के लिए एक टर्म है- मिड टिप क्राइसिस।

खूबी


किताब की सबसे बड़ी खूबी है कि पूर्वोत्तर। पूर्वोत्तर पर बहुत कम किताबें आई हैं ऐसे में ये किताब बहुत अहम हो जाती है। इसके अलावा भाषा बेहद सरल और सहज है। लिखने की शैली भी लाजवाब है, बिल्कुल कहानी की तरह। 220 पन्ने की ये किताब पढ़ते हुए एक बार भी बोर नहीं होंगे। किताब में एक जगह पर कई पेजों पर सिर्फ फोटो हैं। जिनको देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है पूर्वोत्तर कितना खूबसूरत है। इसके अलावा किताब पूर्वोत्तर का एक दस्तावेज जैसा ही है। जो पूर्वाेत्तर जाना चाहता है, जानना चाहते है ये किताब उनके लिए ही है। 


इस किताब के बाद अब पूर्वोत्तर अनजाना नहीं रहा। अगर आप घुमक्कड़ हैं या यात्रा वृतांत पढ़ना पसंद करते हैं तब तो आपको दूर दुर्गम दुरुस्त पसंद आएगी ही। अगर आपको ऐसा करना पसंद नहीं है तब भी आपको ये किताब पढ़नी चाहिए क्योंकि पूर्वोत्तर के बारे में हमारी जो बेवजह और बेकार धारणाएं हैं उनको तोड़ने का काम करती है ये किताब। पूर्वोत्तर असल में कैसा उसकी ही किताब है दूर दुर्गम दुरस्त। 

किताब-दूर दुर्गम दुरुस्त
लेखक- उमेश पंत
प्रकाशन- सार्थक(राजकमल प्रकाशन का उपक्रम)
लागत- 250 रुपए।