जो मजा बनारस में, न पेरिस में न फारस में।
ये पंक्तियां अमर सी हो गई है। बनारस के बारे में कुछ अच्छा कहना हो तो ये बस यही सुना दो और अगर बहुत कुछ कहना हो तो काशी का अस्सी किताब पढ़ लो। बनारस की संस्कृति, बनारस के घाट, बनारस की राजनीति और बनारस के लोग सब कुछ समझ आ जाता है इस किताब को पढ़कर। बनारस के बारे में जितना कहा जाए उतना कम है लेकिन काशी का अस्सी में जैसा कहा गया है वैसा कोई नहीं कह पाएगा। यहां की मौजमस्ती, फक्कड़पन, भांग और गलियां सब कुछ इस किताब में मिलता है। बनारस को समझने और जानने के लिए काशी का अस्सी बहुत मजेदार किताब है।
ये किताब बनारस के एक मोहल्ला अस्सी के बारे में है। किताब पढ़कर समझ आता है जितना बनारस खूबसूरत है। वैसा ही जिंदादिल है अस्सी। किताब में एक जगह अस्सी के बारे में लिखा है,‘अस्सी बनारस का मुहल्ला नहीं है। अस्सी ‘अष्टाध्यायी’ है और बनारस उसका भाष्य। पिछले तीस-पैंतीस वर्षों से पूंजीवाद के पगलाए अमरीकी यहां आते हैं और चाहते हैं कि दुनिया इसका टीका हो जाए। ये किताब अस्सी के इर्द-गिर्द चलती रहती है और उसी बहाने लेखक बहुत सारे जरूरी मसलों पर राय रख देते हैं। बनारस किसी न देखा हो न देखा हो इस किताब को पढ़कर काशी के अस्सी को देखने जरूर मन कर जाता है।
लेखक के बारे में
इस बेहतरीन किताब के लेखक हैं काशीनाथ सिंह। उनका जन्म 1 जनवरी 1937 को बनारस जिले के जीयनपुर गांव में हुआ। शुरूआती पढ़ाई के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम.ए.और पीएचडी की। उसके बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ही हिन्दी भाषा का ऐतहासिक व्याकरण कार्यालय में शोध-सहायक के तौर पर काम किया। बाद में वहीं हिन्दी विभाग मे प्राध्यापक हुए फिर प्रोफेसर और अध्यक्ष पद पर रहने के बाद रिटायर हुए। उन्होंने अपनी पहली कहानी संकट लिखी। बाद में तो वो कहानी ही कहानी लिखते रहे। काशी का अस्सी उनकी सबसे सफलतम रचना है। उनको 2011 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी नवाजा गया। उनकी एक बड़ी पहचान ये भी है कि ये वे हिन्दी के बहुत बड़े आलोचक डाॅ. नामवर सिंह के छोटे भाई हैं।
किताब के बारे में
काशीनाश सिंह की किताब काशी का अस्सी में पांच कहानियां हैं जो अस्सी के इर्द-गिर्द घूमती-रहती हैं। हर कहानी में अलग-अलग किरदार तो हैं लेकिन कुछ किरदार ऐसे हैं जो सभी में हैं। डा. गया सिंह, तन्नी गुरू और राम राय जैसे पात्र ही तो इस किताब को मजेदार बनाते हैं। किताब में जो बातें होती हैं तो उनको पढ़कर लगता है कि हमें भी इसमें होना चाहिए। चाय से लेकर, पान और भांग पर गरमा-गरम बहस होती है। लेखक ने इस किताब में उस समय की राजनीति पर भी अस्सी के मुहाने से बताने की कोशिश की है। बीजेपी, मुलायम और मायावती सबको गरियाते हुए दिखाई देती है ये किताब। सभी पार्टी के नेता एक ही टपरी के नीचे चाय पीते हैं और अस्सी की राजनीति पर बात करते हैं। तब आपको लगेगा कि असली राजनीति यहीं अस्सी की है, बाकी पूरी दुनिया छोटी है।
किताब में सिर्फ राजनीति पर बात नहीं होती है। पूंजीवाद कैसे लोगों और अस्सी को बदल रहा है। इस पर भी किताब कटाक्ष करती है। किताब में हर बड़े मुद्दे पर लेखक ने कटाक्ष किया है चाहे फिर वो काशी की संस्कृति हो या फिर टीवी जैसे डिब्बे का आना। सभी कहानी व्यंग्य शैली में हैं जिनको पढ़ते हुए चेहरे पर मुस्कान बनी ही रहती है। इस व्यंग्य शैली में ही सारी कहानियों को रचा गया है। चाहे फिर वो काशी में टूरिस्टों वाली कहानी हो या अस्सी के बदलते स्वरूप की हो। हर कहानी आपको गुदगुदाएगी जरूर। हालांकि आखिर में कुछ-कुछ सोचने पर भी मजबूर करती है।
किताब में गालियों को वैसा ही कहा गया है जैसा बातचीत में लोग इस्तेमाल करते हैं। जिनको ये पढ़कर बुरा लगे उनके लिए लेखक ने पहले ही कह दिया था, मित्रों, यह संस्मरण वयस्कों के लिए है। बच्चों और बूढों के लिए नहीं और उनके लिए भी नहीं जो ये नहीं जानते कि अस्सी और भाषा के बीच ननद-भौजाई और साली-बहनोई का रिश्ता है। वैसे भी किताब में गाली होते हुए भी लगता है ही नहीं। हर-हर महादेव और गाली तो काशी की संस्कृति है ये किताब के लेखक कहते हैं। किताब की सबसे खास बात ये भी है कि इसके कुछ पात्र और कहानी पूरी तरह से सही है। कुछ कहानियों को लेखक ने बुना है फिर भी कहीं से पता नहीं चलता कि कौन-सी कहानी वास्तविक है और कौन-सी काल्पनिक। काशी का अस्सी किताब तो वैसे ही पाठक को मस्त कर देती है जिसके इसके पात्र है।
किताब का एक अंश
बहुत कुछ बदल गया है गुरूजी! नेहरू, लोहिया, जयप्रकाश नारायण के लिए भीड़ नहीं जुटानी पड़ती थी। भीड़ अपने आप आती थी। अब नेता भीड़ अपने साथ लेकर आता है, कारों में, जीपों में, बसों में, टैक्टर में।
काशी का अस्सी की सबसे बड़ी खूबी है लिखने की शैली। व्यंग्य की शैली हो जिस तरह से काशीनाथ सिंह ने इस्तेमाल किया है। उसने ही इस किताब को एक बड़े मुकाम तक पहंुचाया है। इसके अलावा भाषा बहुत सहज और सरल है जो हर किसी की समझ में आती है। किताब शुरू से लेकर अंत तक कहीं बोर नहीं होने देती है। काशी का अस्सी जिंदादिल होने के लिए आपको जरूर पढ़नी चाहिए। वैसे भी 2002 में आई ये किताब आज भी पढ़ी जा रही है। मैं जो किताब पढ़ रहा हूं वो काशी का अस्सी का 13वां संस्करण है। अगर आपने इस किताब को नहीं पढ़ा है तो जरूर पढ़ें।
किताब- काशी का अस्सी
लेखक- काशीनाथ सिंह
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन
कीमत- 195 रुपए।
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