Wednesday, 9 October 2019

आज भी खरे हैं तालाबः तालाब और पानी को समझाने वाला खजाना

‘कुछ बातें बार-बार कहनी पड़ती हैं, उन बातों में पानी एक है।’ ये पंक्ति इस किताब की नहीं है लेकिन इसे लिखने वाले नेे ये 
बात कही है। लेखक ने सही ही कहा है, हम पानी की बात ही कहां करते हैं? बड़े शहरों में तो पानी की चर्चा सिर्फ कुछ दिवसों तक ही सीमित रहती है। हम नहीं सोचते कि आखिर हम पानी के उपभोक्ता कब से बन गए? हमारे पास इस बात का भी सोचने का समय नहीं है कि ये स्थिति कैसे और कब बनी? हालात जैसे बनते गए, हम उसके आदी होते गए। आपके इन न पूछे जाने वाले सवालों का जवाब देती ये किताब।

आज भी खरे हैं तालाब।

पानी के गणित को समझने के लिए, पानी को समझने के लिए, हमारे पुराने और बेहतरीन समाज को जानने का एक बेहतरीन दस्तावेज है ये किताब। ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पुस्तक में आपको तालाब के बारे में जानकारी मिलेगी। भारत में कभी 24 लाख तालाब थे और आज सिर्फ 2 लाख बचे हैं। इनके बनने और खत्म होने के बारे में किताब में अच्छी तरह से दिया गया है। अगर आपको तालाब और उसकी पद्धति को बहुत अच्छी तरह से समझना है तो इस किताब से बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता।

लेखक के बारे में 


पानी के बारे में इस शानदार किताब को लिखा है अनुपम मिश्र ने। कहा जाता है कि अनुपम मिश्र को जानना है तो ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पढ़ लीजिए। अनुपम मिश्र जीवन भर पर्यावरण के लिए काम करते रहे। उन्होंने जमीन पर रहकर पानी का काम करने वाले लोगों को करीब से देखा है। उन्होंने राजस्थान के अलवर में जल संरक्षण का काम शुरू किया। उसके बाद उत्तराखंड में भी ऐसा ही कुछ किया।

अनुपम मिश्र।

अनुपम मिश्र का जन्म 1948 में महाराष्ट्र के वर्धा में हुआ था। बहुत कम लोगों को पता है अनुपम मिश्र हिन्दी के प्रसिद्ध कवि भवानी प्रसाद मिश्र के बेटे हैं। अनुपम मिश्र ने चिपको आंदोलन में जंगलों को बचाने में मदद की थी। इस किताब के लिए अनुपम मिश्र को 2011 में जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया। आज भी तालाब हैं खरे 19 भाषाओं में अनुवादित हो चुकी है। 2009 तक इस किताब की 1 लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुुकी थीं। गांधीजी की ‘माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ’ के बाद सिर्फ यही बुक ब्रेल लिपि में उपलब्ध है। अनुपम मिश्र का निधन 19 दिसंबर 2016 को हुआ था। अनुपम मिश्र ने इस किताब के अलावा 17 छोटी-बड़ी किताबें लिखी हैं। जिनमें से कुछ बहुत फेमस हैं, ‘साफ माथे का समाज’ और ‘राजस्थान की रजत बूंदें’।

आज भी खरे हैं तालाबः किताब की नजर से


किताब शुरू होती है एक कहानी से। कहानी जिसमें पारस है किसान है और एक राजा है। इस कहानी का अंत होता है राजा के एक वाक्य से, ‘जाओ! अच्छे-अच्छे काम करते जाना और तालाब बनाते जाना। बस तभी एक हर गांव में तालाबों की परंपरा हो गई। जहां तालाब होते, वहीं गांव बसे रहते। गांव के नाम इन्हीं तालाबों के नाम पर पड़ा करते थे। तालाब पहले पूरे भारत की धड़कन हुआ करते थे। इन्हें सिर्फ राजा नहीं लोग बनाया करते थे। सिर्फ बनाया नहीं करते थे, उनकी रक्षा भी करते थे। पहले अगर कुछ करना होता था तो तालाब बनाया जाता था। तालाब बनवाता एक था और सहयोग पूरा समाज करता था। तालाब बनना एक त्यौहार होता था। जिसे गांव के लोग साथ मिलकर मनाते थे। इस किताब में तालाब बनाने की देसी पद्धति बताई गई है। वो कहानी की तरह बताई गई है, जिसे पढ़कर आपको वहां होने का एहसास होगा। तालाब की जगह और दिशा को बड़े जतन से चुना जाता है। तालाब की इस विधि में आगौर, पाल, बाड़, गरट, गौरा, नेष्टा बनाने होते हैं। इन सबके बारे में अच्छे से समझाती है ये किताब। इस किताब को पढ़कर आप एक अच्छा तालाब बना सकते हैं।


सैकड़ों, हजारों और लाखों तालाब ऐसे ही अचानक प्रकट नहीं हुए थे। इसे बनाने वाले भी कुछ लोग थे और इसको संभालने वाले भी। देश के अलग-अलग हिस्सों में इनके अलग-अलग नाम थे। लेकिन कुछ सालों में हमने ऐसे लोगों को खो दिया और हम हजारों, लाखों तालाबों को शून्य की ओर ले जा रहे हैं। ये किताब बताती है कि पहले का समाज भी बहुत अच्छा था। तालाब को बनाने वाले और संभालने वालों का बहुत सम्मान हुआ करता था। वैसा ही जैसा आज डाॅक्टर का हुआ करता था। इन लोगों को आदर के रूप में उपहार भी मिलते थे। तालाब बनाने वाले ये लोग हिंदू और मुसलमान दोनों हुआ करते थे। इन लोगों का एक समुदाय हुआ करता था। जहां वो रहते थे, उस जगह का नाम भी वही पड़ जाता था। ये लोग बहुत सालों तक बने रहे क्योंकि ये लोग अपने शिष्यों को भी यही काम सिखाते थे। ये तालाब बनाने वाले कुछ नाम थे, गजधर, सिलावटा, जोड़िया, सिरभाव, जलसूंघा, पथरोट और टकारी। ये नाम अलग-अलग क्षेत्रों में बदलते गए। जैसे आज धन स्वाभिमान का प्रतीक है, पहले तालाब स्वाभिमान का प्रतीक हुआ करता था। तालाब रहते तो गांव रहता और तालाब सूखते तो गांव उजड़ जाते। तालाब में हर साल पानी आता है और हर साल जाता है। बस उसे बचाने का तरीका आना चाहिए। उसे तस्करी से बचाना आना चाहिए, ये तस्करी लोग नहीं सूरज करता है।

इस किताब में कई लोगों के बारे में भी बताया गया है, जो तालाब को अकेले बचाने का काम करते थे। ऐसे ही ‘गैंगजी’ के बारे में इस किताब में वर्णन दिया गया है। वे तालाब की रक्षक बने और लोगों ने उन्हें इसी वजह से संत बना दिया। पहले सिर्फ तालाब बनाया नहीं जाता था, उसकी बार-बार सफाई की जाती है। तालाबों से आज समाज कटने की सबसे बड़ी समस्या रख रखाव है। प्रशासन सफाई की जगह पर नया तालाब बनाने की बात करती है। लेकिन वो नहीं समझते कि पुराने तालाब कितने कामगर होते हैं। तब तालाब थे क्योंकि समाज अच्छा था। तालाब के या समुदाय के नाम पर उस जगह का नाम रखा जाता था। लेकिन ये किताब ये बताती है कि अलअलग तालाबों के अपने-अपने गुण होते हैं और उन्हीं गुणों के आधार पर तालाबों के नाम रखे जाते थे। सागर, सरोवर, सर, जोहड़-जोहड़ी, बंध-बंधिया, ताल-तलैया, पोखर-पोखरी, पुष्करणी, डिग्गी, कुंड, हौज, ताल, चाल, खाल और चौखरा। ये सभी नाम तालाबों अपने-अपने कुछ गुणों की वजह से रखे गए हैं। इस किताब में राजस्थान के घड़सीसर तालाब के बारे में दिया गया है। लेखक ने इसके बारे में खूब विस्तार से लिखा है।


किताब में गुणों, समाज, आकार और धर्म के लिए तालाब बनाने के बारे में भी जिक्र है। छत्तीसगढ़ में छेरा-छेरा त्यौहार तालाब के लिए ही मनाया जाता है। इसी तरह बुंदेलखंड में भी पूने के दिन हजार सालों तक नया तालाब बनते रहे। इस तरह राजस्थान में नवरात्र के आखिरी दिन तालाब  पर जुटते हैं। जिससे पता चलता कि इस बार उनके तालाब में कितना पानी आया है? हम आज तालाब को नहीं जानते उसकी गलती हमारी तो है ही, अंग्रेजों की भी। समाज से तालाब को दूर किया अंग्रेजों ने। हम तालाब से दूर होते गए और तालाब खत्म हो गए। गजधर आज होते तो बताते कि हम संकट के समय से गुजर रहे हैं। अब तालाब से हमारी दूरी उतनी ही है, जितनी जमीन और आसमां की। अब तालाब से समाज भी दूर है और राज भी। पानी के इस संकट से बचने के लिए हमें फिर से साफ माथे का समाज बनना होगा। तभी कह पाओगे आज भी खरे हैं तालाब। वरना ये किताब सिर्फ एक दस्तावेज है, जिसे बस एक बार आंख भर के देख लिया गया है।

क्या-क्या अच्छा?


ये किताब रोचक और दुर्लभ जानकारी से भरी हुई है। लेखनी बेहद सरल और सहज है। बिल्कुल सरल शब्दों में लिखा गया है और लिखे को बहुत अच्छे तरीके से समझाया गया है। कभी उदाहरण के रूप में तो कभी कहानी के रूप में। आपको पढ़ते समय कभी भी बोर नहीं होंगे। पानी, समाज और तालाब के बारे में बहुत सारे किस्से, कहानी और भी ज्यादा खास बना देते हैं। हो सकता है कि आप तालाब बनाने की विधि भूल सकते हैं, लेकिन उसका किस्सा जरूर याद रहेगा। इस किताब को एक चीज और रोचक बनाती है, संदर्भ। लेखक ने संदर्भों के बारे में विस्तार से बताया है। किताब के लिए क्या लिया, कहां से लिया और कैसे  लिया, इन सबके बारे में बताया गया है।  किस विषयवस्तु के लिए किस शख्स से बात की, ये भी अच्छे से बताया गया है।

किताब का एक अंश।

अनुपम मिश्र की ये किताब एक खजाना है, आज के संकट से उबरने के लिए। अनुपम मिश्र की ये किताब बूंदों, तालाब के महत्व और हमारी बेवकूफी के बारे में बताती है। इसे सुधारा भी जा सकता है, फिर भी अगर हम नहीं सुधरे तो इसके हालात बहुत बुरे होंगे। अनुपम मिश्र के शब्दों में कहूं तो, हमारे बड़े लोग जीडीपी, विकास, अर्थव्यवस्था पर बहुत चिंता करते हैं। अगर पानी पर ध्यान नहीं दिया तो इन पर कभी भी पानी फिर सकता है। आखिर में तालाब के बारे में इस किताब में ‘सीता बावड़ी’ के नाम की कविताः

बीचों बीच है एक बिंदु,
जो जीवन का प्रतीक है,
मुख्य आयत के भीतर लहरे हैं,
बाहर हैं सीढ़ियां।
चारों कानों पर फूल हैं,
जो जीवन को सुगंध से भर देते हैं।
पानी पर आधारित
एक पूरे जीवन दर्शन को
इतने सरल सरस ढंग से
आठ-दस रेखाओं में
उतार पाना एक कठिन काम है।
लेकिन हमारे समाज का बड़ा हिस्सा
बहुत सहजता के साथ
इस बावड़ी को
गुदने की तरह
अपने तन पर उकेरता है।

किताब- आज भी खरे हैं तालाब।
लेखक- अनुपम मिश्र।
प्रकाशक- प्रभात पैपरबैक्स।
कीमत- 125 रुपए।

इस किताब को इस लिंक पर जाकर खरीद सकते हैंः-

आज भी खरे हैं तालाब।

Sunday, 15 September 2019

इनसाइड स्टोरी ऑफ इमरजेंसीः आजाद भारत के काले अध्याय पर सबसे जरूरी किताब

आपातकाल, आजाद भारत का सबसे काला अध्याय। लेकिन इसके बारे में हम जानते कितना है? स्कूल की पढ़ाई में आपातकाल का जिक्र ही नहीं हुआ। जब काॅलेज आया तब पता चला कि आपातकाल जैसा कुछ हुआ था। उसमें भी आधी-अधूरी बात बताई गई, जैसे कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया, नेताओं को जेल में ठूंस दिया गया, उसके बाद दो साल तक देश तानाशाही में चला। लेकिन उस दो साल में क्या-क्या हुआ, ये पता नहीं चला? इस किताब में इमरजेंसी के बारे में बड़ी गहराई से लिखा गया है। इसमें आपातकाल के तानाशाह के रवैये को बताया गया है जिसे सरकार अनुशासन का नाम दे रही थी। किताब अपने नाम के हिसाब से बिल्कुल फिट बैठती है, इमरजेंसी की इनसाइड स्टोरी।


लेखक के बारे में


लेखक
किताब इनसाइड स्टोरी ऑफ इमरजेंसी का हिंदी अनुवाद है। इसको लिखा है वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने। कुलदीप नैयर का जन्म 1923 में सियालकोट में हुआ था। वहां उन्होंने लाहौर यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की। बंटवारे के समय दिल्ली आ गए और यहां अपने कैरियर की शुरूआत उर्दू अखबार ‘अंजाम’ के साथ की। वे लाल बहादुर शास्त्री के सूचना अधिकारी जेंसीभी रहे। पत्रकारिता में वे काफी आगे गए। वे बाद ‘द स्टेट्समैन’ के संपादक और यूएनआई एजेंसी के प्रबंध संपादक भी रहे। कुलदीप नैयर का निधन 23 अगस्त 2018 को हुआ। इस किताब के अलावा कुलदीप नैयर ने लगभग 17 किताबें लिखीं। जिनमें सबसे चर्चित स्कूप और एक जिंदगी काफी नहीं है।


इमरजेंसीः किताब की नजर से


इमरजेंसी पर बहुत सारी किताबें लिखी गई हैं, जैसे काॅमी कपूर की द इमरजेंसी, बिपिन चन्द्रा की इन द नेम ऑफ डेमोक्रेसी, ऐसी ही अनगिनत किताबें हैं। मैंने इनमें से कोई भी किताब नहीं पढ़ी है। लेकिन इस एक किताब ने मुझे इमरजेंसी के बारे में सब कुछ बता दिया। मैं ये तो नहीं कह सकता कि ये किताब आपातकाल पर सबसे अच्छी किताब है। लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं कि इसको पढ़ने के बाद आप आपातकाल को अच्छी तरह से समझ पाएंगे। कुलदीप नैयर ने इस किताब में आपातकाल की हर महत्वपूर्ण घटना के बारे में बताया है और उसके पीछे की कहानी को भी बताया है। किताब बड़े ही सुनियोजित शैली में लिखी गई है जो उस फैसले के दिन से शुरू होती है और खत्म होती है और खत्म होती है जनता पार्टी के टकराव पर।

इमरजेंसी की इनसाइड स्टोरी, बुक के नाम से ही पता चल रहा है कि किताब में बहुत कुछ ऐसा है जो बहुत अंदर का है। किताब शुरू होती है 12 जून 1975 से। जब इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला आने वाला था। इसके पीछे की कहानी आपको इस किताब में पता चलेगी। आपको पता चलेगा कि क्यों जस्टिस सिन्हा 20 दिनों तक अपने घर से नहीं निकले थे? क्यों सिन्हा का टाइपराइटर फैसले के एक दिन पहले घर छोड़कर भाग गया था? इसके बाद ऐतहासिक फैसला आता है और उसी फैसले की वजह से देश में लगता है आपातकाल। आपातकाल और इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले के बीच 13 दिन तक समय था। उस 13 दिन की कहानी भी इस किताब में है।

इसके बाद आपातकाल लगा और पूरे देश से नेताओं और लोगों को जेल में ठूंस दिया गया। अखबारों पर सेंसरशिप लागू कर दी गई। जो नहीं मानता उसका लाइसेंस रद्द कर दिया गया। उसके बाद दो साल तक जो तानाशाही चली उसकी पूरी कहानी इस किताब में है। सरकार कितनी क्रूर हो सकती है, ये इस किताब को पढ़कर समझ में आता है। कई लोगों को तो मौत के घाट उतार दिया गया। इसमें एक नाम जरूर याद रखा जाना चाहिए, स्नेहलता रेड्डी। जो एक कन्नड़ फिल्म अभिनेत्री थी। उसकी दोस्ती जाॅर्ज फर्नांडिस से थी। उसी दोस्ती ने उसे पहले जेल पहले पहुंचाया और यातनाएं दी गईं कि वो मर गई। इससे भी दर्दनाक जाॅर्ज फर्नांडिस के भाई लाॅरेंस फर्नाडिंस के साथ हुआ। ऐसे ही तमाम किस्से इसमें दिये गये हैं। संविधान जो इस देश की आत्मा है। उसे छलनी करने का काम इस इमरजेंसी ने किया। एक व्यक्ति को बचाने के लिए संशोधन किये। ये तब हुआ, जब उसके आधे से ज्यादा सदस्य तो जेल में था। विपक्ष न होने के बावजूद विपक्ष संसद में था। ये उन दिनों के संसद के भाषणों से समझा जा सकता है। इसके बाद अचानक जाने क्या हुआ और तानाशाह ने सबको रिहा कर दिया। 1977 के चुनाव होने वाले थे। लोकतंत्र बनाम तानाशाह की लड़ाई हुई, जीता लोकतंत्र।

क्या अच्छा, क्या कमी?


किताब कई लिहाज से अच्छी है। कुलदीप नैयर ने जिस प्रकार से इस किताब को लिखा है, वो लाजवाब है। लिखने की भाषा और शैली साधारण और सरल है। किताब जानकारियों से भरी हुई है। चाहे वो इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला हो, संजय का बेबाक रवैया हो, सारे नेताओं की चमचागिरी हो या फिर संविधान में संशोधन की बात हो। ये सारी बातें आपको किताब में किस्से के रूप में मिलेंगी। जो आपको बहूत कुछ सोचने और समझने में मदद करेगी। किताब में ऐसा कुछ भी नहीं है जो आपको कन्फ्यूज करेगा।

किताब में कुछ खामी हैं जो मुझे लगती हैं। कहीं-कहीं पर किसी जानकारी को सपाट तरीके से दिया गया है। जबकि वो किस्सा थोड़ा बड़ा हो सकता था। लेकिन ये लेखक की समझ पर निर्भर करता है कि वो क्या रखना चाहता है। दूसरी और अंतिम खामी मुझे ये लगी कि किताब में सत्ता पक्ष के बारे में बहुत बताया गया है। लेकिन जिन कैदियों को जेल में रखा गया था उनके साथ जेल में क्या हुआ था? उनके ढाई साल जेल में कैसे गुजरे? एक पाठक के तौर पर मैं उस पहलू को भी जानना चाहता था कि लेकिन वो बहुत कम है।

किताब से कुछ अंश


एक घंटे तक पुलिस ने मेरा बयान दर्ज किया और फिर मुझे जासूसों के एक दल के पास ले गए। वहां मुझे अचानक किसी ने थप्पड़ जड़ दिया। जब मुझे होश आया वे मुझे निर्वस्त्र कर चुके थे। वहां करीब 10 लोग थे और उन्होंने मुझे पीटना शुरू कर दिया। चार लाठियां टूट गईं। वे मेरे शरीर के हर एक अंग पर वार कर रहे थे। मैं फर्श पर पड़ा कराह रहा था। मैंने भीख मांगी, रेंगने लगा और फिर रहम की भीख मांगी। इस बीच वे मुझे फुटबाल की तरह लातों से मारते रहे।

ऊपर जो किस्सा दिया गया है वो लाॅरेंस फर्नांडिस का है। जिन्हें बहुत दर्दनाक यातना दी गई थी। ये तो बस एक छोटा-सी झलक है। आखिर में यही कहना चाहूंगा कि हर भारतीय को इस किताब को पढ़ना चाहिए। हमें पढ़ना चाहिए क्योंकि हम समझ पाएंगे उस दौर के बारे में। किताब को पढ़ने के बाद यही लगता है कि क्या सच में सरकार कितनी क्रूर हो सकती है? इसलिए सवाल करने बहुत जरूरी है तभी तो सरकार जनता की कीमत समझेगी। जो कहते हैं इमरजेंसी, अनुशासन की कार्रवाई थी उनको इस किताब को जरूर पढ़नी चाहिए। आजाद भारत के सबसे काले अध्याय पर लिखी ये सबसे जरूरी किताब है।

किताब- इमरजेंसी का इनसाइड स्टोरी।
लेखक- कुलदीप नैयर।
प्रकाशक- प्रभात पेपरबैक्स। 
कीमत- 250 रुपए।

कुलदीप नैयर की इस किताब को यहां खरीदें-

इमरजेंसी की इनसाइड स्टोरी

Saturday, 24 August 2019

50 दिन, 50 साल पहले: आजादी के 50 दिन पहले की कहानी बताती है ये किताब

एक किताब बहुत कुछ दे जाती है जानकारी, एक सोच और कुछ अच्छी बातें। अगर किताब इतिहास की होती है तो उसे रोचक क्या बनाता है? इतिहास की कहानियां, किस्से या कुछ महत्वपूर्ण कथन। लेकिन एक इतिहास की किताब में ये सब न हो। क्या तब भी वो उसे अच्छा कहा जाएगा? इस किताब को पढ़ने से पहले मेरा जवाब ‘न’ में होता। इस किताब के बारे में इतना तो मैं कह ही सकता हूं कि एक किताब सिर्फ जानकारियों से भी अच्छी हो सकती है। किताब का नाम है- 50 दिन 50 साल पहले। ये सिर्फ एक किताब नहीं है, ये एक डायरी है, आजादी के 50 दिन पहले की डायरी। जो किसी एक व्यक्ति की डायरी नहीं है, ये 1947 के हिंदुस्तान की डायरी है।



इस किताब की अच्छी बात ही यही है कि ये किसी एक पर फोकस नहीं है। इसमें करीब-करीब 200 से ज्यादा लोगों के नाम आये हैं। जिनमें से बहुतों के नाम हमने सुने होंगे और बहुतों के नहीं। कुछ लोगों का तो बस नाम दिया है उनके बारे में कुछ भी नहीं बताया गया है। ये किताब आपको कुछ नये नामों से रूबरू भी कराती है जो आपकी उत्सुकता को बढ़ाती है और शायद बाद में आप उनके बारे में खोजें। लेखक की लेखनी इतनी कठिन नहीं है जिसे आप समझ न पाएं। एक इतिहास की किताबें जिस भाषा में होती हैं, ये किताब भी उसी भाषा के करीब ही है। इस किताब को पढ़ा जाना चाहिए अपनी जानकारी के लिए, इस किताब को पढ़ा जाना चाहिए उस दौर को समझने के लिए, उस समय के माहौल को समझने के लिए और सबसे बड़ी बात उस दौर की सियासत को समझने के लिए।

किताब के लेखक।
इस किताब को लिखा है वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय ने। ये किताब 1997 में प्रकाशित हुई थी। मधुकर उपाध्याय मूलतः अयोध्या उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। उन्होंने ग्रेजुएशन उत्तर प्रदेश से ही की। उसके बाद भारतीय जनसंचार संस्थान नई दिल्ली से एक साल का पत्रकारिता में डिप्लोमा किया। बाद में 1990 में वे बी.बी.सी हिंदी में काम करने लगे। उससे पहले उन्होंने दो दशक तक भारतीय समाचार पत्रों में काम किया। मधुकर उपाध्याय इतिहास में खासी रूचि रखते हैं और इसी दिलचस्पी की वजह से उन्होंने गांधीजी की दाण्डी यात्रा की पुनरावृत्ति की। मधुकर उपाध्याय ने पैदल 400 किलोमीटर की पैदल यात्रा की। मेरी जानकारी में इस किताब के अलावा उनकी दो और किताबें प्रकाशित हुई हैं, पृथिवी और पंचलाइन।

किताब के बारे में


इस किताब के बारे में काफी कुछ कवर पेज और उसके नाम से ही समझा जा सकता है। कवर पेज में मुस्कुराते जवाहर लाल नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना दिख रहे हैं और नीचे की तस्वीर में लोगों से घिरे महात्मा गांधी की तस्वीर है। आपको किताब में जिन्ना और जवाहर लाल नेहरू का खूब जिक्र मिलेगा। महात्मा गांधी बयान, दंगों को रोकने के लिए उनकी यात्राएं और प्रार्थना सभा का जिक्र भी काफी है। जैसा कि किताब के नाम से पता चल रहा है कि 15 अगस्त 1947 से 50 दिन पहले उस हिंदुस्तान में क्या सब हो रहा था? ये सब किताब में है। लेकिन यहां एक बात समझना जरूरी है कि इसमें न कोई किस्सा है, न किसी को महान बताया है और न ही किसी को छोटा। बस हर रोज जो-जो हो रहा था, बड़े और छोटे नेताओं ने जो कहा था वो सब ज्यों का त्यों रख दिया गया है।

किताब का पहला पन्ना।

किताब को दो पेजों से भी समझा जा सकता है पहले और आखिरी। दोनों पेज पर दो अलग-अलग नक्शे हैं। पहले नक्शे में मार्च 1947 के हिंदुस्तान का नक्शा है और दूसरे में 15 अगस्त 1947 का नक्शा है। उस पहले नक्शे से दूसरे नक्शे तक की बनने की पूरी कहानी है इस किताब में। किताब में सबसे पहली जो तारीख दी गई है वो है 22 मार्च 1947। जब लाॅर्ड माउंटबेटन को हिंदुस्तान का आखिरी वायसराय बनाकर भेजा गया था। बस यही से सब शुरू होता है। उस एक चैप्टर में लेखक 22 मार्च 1947 से 25 जून 1947 तक की कहानी संक्षेप में बता देते हैं। इस चैप्टर में जिन लोगों के इर्द-गिर्द बताया जाता है किताब के अंत तक इनके बीच में ही सब कुछ बताया जाता है। ये महत्वपूर्ण लोग हैं, वायसराय लाॅर्ड माउंटबेटन, जवाहर लाल नेहरू, महात्मा गांधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मोहम्मद अली जिन्ना और लाॅर्ड लिस्टोवेल। इसके बाद हर एक दिन के बारे में किताब में दिया गया है, जो बहुत लंबा नहीं है। हर दिन को एक पेज में समेटा गया है। लेकिन जिस प्रकार से लिखा गया है वो महत्वपूर्ण है। आज जब हम तकनीक के दौर में आ गये हैं तब चिट्ठियों के बारे में पढ़ना वाकई अच्छा लगता है। चिट्ठियों का खूब जिक्र है, हर रोज जिक्र है। उस समय के बारे में लेखक ने अधिकतर खतों के माध्यम से बताया है। माउंटबेटन, नेहरू, जिन्ना और गांधी आपस में संदेश खतों के माध्यम से ही पहुंचाते थे।

हम सबको मोटा-माटी पता है कि उस समय देश में क्या हो रहा था? लेकिन देश की सियासत में 50 रोज क्या-क्या फैसले लिए गये? बंटवारा कैसे हुआ? महात्मा गांधी इस पर हर रोज क्या कह रहे थे? वे क्यों जिन्ना को अच्छा और माउंटबेटन को चालाक कह रहे थे? इन सबके अलावा इसे बेहतरीन बनाती है किताब के चित्र। किताब में एक पेज पर एक दिन के बारे में बताया गया है और उसके ठीक बगल वाले पेज पर फोटो भी हैं। फोटो को शब्दों से ज्यादा प्रभावी माना जाता है। फोटों में उस दौर के अखबार भी हैं जिसमें पाकिस्तान बनने के बारे में भी है और माउंटबेटन के गर्वनर जनरल के बारे में भी। इस किताब को पढ़ते वक्त आपको लगेगा कि आप कुछ खास पढ़ रहे हैं, कुछ नायाब-सा। इसके पीले, पुराने पन्ने इस किताब को पुराना तो बनाते हैं लेकिन इसके असर को कम नहीं कर पाते या यूं कहें कि इसका पुरानापन ही इसे खास बनाता है। किताब के अंत होता है महात्मा गांधी के 15 अगस्त वाले बयान से जिसमें वो बी.बी.सी. से कहते हैं, भूल जाइए कि कभी मुझे अंग्रेजी आती थी।

किताब का हर पेज कुछ इसी तरह से दिखता है।

किताब की खूबी


किताब की सबसे बड़ी खूबी वो दौर है जिसके बारे में लिखा गया है। जिसके बारे में जितना भी लिखा जाए पढ़ा ही जायेगा। आजादी के पहले के हिंदुस्तान को हर कोई जानना चाहेगा। इसकी कोई विचारधारा नहीं है सीधे-सपाट शब्दों में उस दिन के बारे में बता दिया गया है। इसमें बहुत कुछ समझने को है, बहुत कुछ जानने के लिए है। किताब कुछ लोगों पर ज्यादा फोकस है जिससे आप 50 दिन में उनके बारे में आसानी से समझ सकते हैं।

कौन पढ़े?


किताब इतनी अच्छी है कि इसे हर किसी को पढ़ना चाहिए। भाषा शैली भले ही साहित्यिक न हो। लेकिन जानकारी इतनी है कि इस किताब को पढ़ा ही जाना चाहिए। जो अभी-अभी किताबों को पढ़ना शुरू कर रहे हैं उनके लिए इससे शुरू करना अच्छा रहेगा। क्योंकि 100 पेज की ये किताब जल्दी ही खत्म हो जाएगी। शुरू में हो सकता है आपको इसमें बोरियत आये लेकिन जैसे ही आप आगे बढ़ेंगे तो पीछे की बातें समझमें आने लगती है और फिर बोरियत दूर होने लगती है। 

किताब का अंश

दिल्ली और कराची में माहौल कुल मिलाकर एक जैसा था। लोग, आदमी, औरतें, बच्चे सड़कों पर थे। दिल्ली में तिरंगा और कराची में पाकिस्तान का झंडा हर जगह लहरा रहा था। शहर के कोने-कोने में जुलूस निकाले जा रहा था। पता ही नहीं चल रहा था कि एक कहां खत्म हुआ और दूसरा कहां शुरू। यही हाल हर शहर, कस्बा और गांव का था। गर्वनमेंट हाउस में माउंटबेटन ने जिन्ना के साथ समारोह में जाने से पहले कहा, आप पर हमले और हत्या का खतरा अभी टला नहीं है। बेहतर होगा कि आप बंद कार में जाएं। जिन्ना ने ऐसा नहीं किया और खुली कार से गये। तीस तोपों की सलामी हुई और ‘कायदे आजम जिंदाबाद’ के नारे गूंजते रहे। माउंटबेटन ने जिन्ना से कहा- हम दोस्तों की तरह अलग हो रहे हैं जो एक दूसरे की इज्जत करते हैं। शाम को प्रार्थना सभा में महात्मा गांधी ने कहा, कल हम आजाद हो जाएंगे पर आज आधी रात को देश के दो टुकड़े हो जाएंगे।


ये किताब कोई कहानी नहीं सुनाती, किसी के बारे में भी नहीं बताती। जो उन 50 दिनों में घटा, जो उस समय हुआ, जो उस समय कहा गया। वो सब इस किताब में पिरोया गया है। हो सकता है बहुत कुछ छूट गया हो लेकिन जो लेखक ने बताया है वो बेहद महत्वपूर्ण है, जो उसे पढ़ा जाना चाहिए।

किताब- 50 दिन 50 साल पहले।
लेखक- मधुकर उपाध्याय।
प्रकाशकः सारांश प्रकाशन प्रा. लि.।
कुल पेज- 119। 
कीमत- 395 रुपए।

Friday, 19 April 2019

लेेखन के संसार में ये किताब एक अलग कहानी की तरह है, जिसे सबको पढ़ना चाहिये

कहानी, कविता लिखने की सबकी शैली और भाषा अलग होती है। लेखन की शैली ही लेखक की पहचान बन जाती है। अच्छी शैली को पाठक पसंद करते हैं और याद रखते हैं। लेखक को फिर उसकी सिर्फ एक किताब से लेखन से याद रखते हैं। उस लेखक को मुरीद हो जाते हैं, ऐसे लेखक अपनी छाप छोड़ जाते हैं। मेरे लिये उस लिस्ट में सबसे ऊपर हैं मानव कौल। मानव कौल की हाल ही में मैंने एक किताब पढ़ी है ‘तुम्हारे बारे में’।



मानव कौल का लेखन मुझे लगता है कोई प्रयोग है जो अब तक किसी और ने नहीं किया। वो एक ही बात को, एक ही घटना को कई पहलुओं से बताते हैं। कभी वो बीमार व्यक्ति के बारे में बताते तो कभी बीमारी भी अपने बारे में बताती। उनका लेखन में कोई फिलाॅसफी दिखती है। उनकी बातें वहीं होती है जो हमारे आस-पास चल रहा होता है लेकिन उसे ही लिखना कितना कठिन है ये मानव कौल की लेखनी में झलकता है। वही लेखनी मानव कौल की इस किताब में है। इस किताब में मानव कौल ने अपने अंदर के मुड़े पन्नों को खोला है।





मानव कौल मूलतः कश्मीर के बारामूला में पैदा हुये लेकिन वे बढ़े हुये मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में। मानव कौल फिल्मी दुनिया के जाने-माने नाम हैं। एक्टिंग के साथ वे थियेटर करते हैं और यही सब करते-करते लिख भी लेते हैं। तुम्हारे बारे में उनकी तीसरी किताब है। इससे पहले वे ‘ठीक तुम्हारे पीछे’ और ‘प्रेम कबूतर’ लिख चुके हैं। 


किताब के बारे में


‘ठीक तुम्हारे पीछे’ किताब में न कोई कहानी है और न ही कोई कविता है। इसमें तो छोटी-छोटी कुछ बातें हैं। जिसे लेखक ने चलते-चलते तो कभी एक जगह ठहरकर जो देखा और सोचा उसे शब्दों में पिरो दिया। लेकिन जिस तरह से वो पिरोया है वो बड़ा कमाल है। ज्यादातर बातें लेखक की बातें एक पेज में ही खत्म हो जाती हैं। कुछ बातें बहुत लंबी हैं जैसे भवानी भाई की कहानी और अपने रंगमंच की कहानी।

शुरुआत में पढ़ते हुये लगता है कि लेखक ने अपने छोटे-छोटे यात्रा विवरण लिख दिये है। जो कभी पहाड़ के बारे में होते तो कभी किसी बड़े शहर के बारे में। लेकिन जैसे-जैसे किताब को पढ़ते-जाते हैं तो पता चलता कि इसमें सिर्फ यात्रा विवरण नहीं है। वो जो पहले यात्रा विवरण लग रहे थे वो तो लेखक की उस जगह के बारे में, वहां के लोगों के बारे में सोच थी। जो सोच आगे चलकर मां, पिता और अपनी प्रेमिका के बारे में भी होती है।



वो अपने थियेटर के बारे में बताते, इन्हीं बातों में लेखक अपने गांव से मुंबई आने तक का सफर बता देता है। लेखक में साफगोई की रुमानियत है, एक खुशबू है जिसे लेखक ने बिखेरा है। किताब पढ़ते हुये लगता ही नहीं है कि लेखक ने कभी बातों को बनाया हुआ हो। ऐसा लगता है उसने जो जिया है, उसके साथ जो हुआ है वो उसने सब लिख दिया है। हर वो बात जो बताना चाहता है, हर वो वो बात जिसके बारे में वो सोचता है। किताब की सबसे बड़ी बात कोई विषय न होना है, वो विषय है तो लेखक की सोच है। जो प्रकृति को लेकर भी है और अपने देश को लेकर भी है।

किताब की ताकत है एक अनूठा प्रयोग जो हर पढ़ने वाले को पसंद आयेगी। जो बहुत घूमता है उसे तो ये किताब जरुरी पढ़नी चाहिये। एक जगह को कैसे देखना चाहिये उसके बारे में ये किताब बहुत अच्छे से बताती है। किताब में शब्द को भरमार उनको खोजकर एक जगह लिखा जा सकता है और सीखा जा सकता है। इस अनूठे प्रयोग की अच्छी बिसात है ‘तुम्हारे बारे में’।

किताब का कुछ अंश


आज सुबह कोई बहुत धीमे कदमों से पास आकर बुदबुदाया, धुंध है आज चारों तरफ। मैंने तुरंत बिस्तर छोड़ा और कुछ ही देर में मैं दिल्ली की धुंध से भरी सड़कों पर था। इन सड़को को देखकर लगता है कि किसी पेंटर ने सफेद रंग के बहुत से स्ट्रोक अभी-अभी मारे हैं और पेंटिंग अभी अधूरी है। आधा-अधूरा कितनी सारी कल्पनाओं को चेहरा देता है! सुंदर क्षण धुंध में तैरने लगते हैं। पास की नजर तेज हो जाती है और दूर सब धुंआ हो जाता है। पक्षियों के कलरव में कहीं पीछे मुझे एक चायवाले की टन-टन सुनाई देती है। मैं उस आवाज के पीछे जाता हूं और एक चाय की टपरी चित्र में उभरती है। तभी लगता है कि दिल्ली की ठंड में यह धुंध असल में चाय के बर्तन से निकल रही है।



किताब में लेखक ने लिखी तो होंगी शायद अपने मन की बातें और अपने ख्यालात। लेकिन ऐसे ही ख्यालात सबके हैं बस किताब में अब मिले हैं। ये बेहतरीन किताब है जो बोर नहीं करती, जो सोचने को मजबूर करती है, जो ख्यालों की दुनिया में ले जाती है। शुरु से लेकर अंत तक विषय बदलते रहे लेकिन जिस प्रकार से लिखा है वो कमाल है। लेेखन के संसार में ये किताब एक अलग कहानी की तरह है, जिसे सबको पढ़ना चाहिये।

किताब- ठीक तुम्हारे पीछे,लेखक मानव कौल,प्रकाशन- हिंद युग्म, पेज सं.- 208।


Monday, 4 March 2019

''मैं ही मुद्दा हूं, इंदिरा ही मुद्दा है''

इस किताब से पहले मैंने इंदिरा गांधी पर लिखी कोई किताब नहीं पढ़ी। इंदिरा गांधी के बारे में बचपन से ही सुना था। हमारे देश की महानतम नेता और प्रधानमंत्री। जिन्होंने देश के लिये अपनी जान दे दी। हमारी हिंदी की गाइड के बैक कवर पर उनके वो शब्द लिखे रहते ‘मेरे खून का आखिरी कतरा’। जब काॅलेज लाइफ में आया तो आपातकाल के बारे में पता चला। सबने कहा, इंदिरा गांधी ने जीवन भर अच्छा काम किया बस आपातकाल लगाकर गलती कर दी। किताबें पढ़ने लगा तो पता चला कि आपातकाल क्यों लगाया था? उसके बाद कोई कहता कि इंदिरा महान थीं तो मुझे जाने क्यों नहीं लगता कि वो महान थीं। बहुत सारी किताबों में इंदिरा गांधी के बारे में फुटकर-फुटकर पढ़ा और इंदिरा गांधी बेहतरीन नेता थी। इस किताब को पढ़ने के बाद मैंने इंदिरा गांधी को नहीं, इंदिरा गांधी की कहानी को जान लिया है। उसके बाद मैं कह सकता हूं कि पहले वे एक नेता बनना चाहती थी और बाद के दिनों में हर कीमत पर सिर्फ सत्ता।


देश की पहली प्रधानमंत्री पर लिखी किताब ‘इंदिरा’। जिसे जानी-मानी पत्रकार और लेखक सागरिका घोष ने लिखा है। जब मैं किताब को पढ़ना शुरू करने वाला था। तब मुझे लग रहा था कि किताब में इंदिरा गांधी के बारे में अच्छा-अच्छा लिख दिया गया हो। शुक्र है कि मैं गलत निकला। लेखिका ने इंदिरा के बारे में वैसा ही लिखा है शायद जैसी वे थीं। शुरूआत के दिनों से लेकर अपने अंतिम दिनों की पूरी कहानी। किताब में अलग ये भी है कि वो बीच-बीच में एक पत्र लिखती हैं। जिसमें वो इंदिरा गांधी से सवाल पूछती हैं। सवाल उनकी जिंदगी में जो हो रहा था, सवाल जो वो आगे करने वाली थीं। वे सवाल जो शायद इंदिरा गांधी से तब पूछे जाने चाहिये थे।

इस किताब की लेखिका।
किताब इंदिरा गांधी के जीवन को कुछ भागों में बांटती है। शुरूआत उस बुरी घटना से होती है जो देश की राजनीति को हिला देता है। 31 अक्टूबर 1984 की तारीख की घटना। जिस दिन देश के प्रधानमंत्री को उसके ही अंगरक्षक गोली मारकर हत्या कर देते हैं। उसके बाद कहानी इलाहाबाद के आनंद भवन में चली जाती है। मैंने इंदिरा गांधी की राजनीति के बारे में पढ़ा था, आपातकाल के बारे में पढ़ा था। लेकिन बचपन कैसा था इस बारे में मुझे नहीं पता था। कुछ दिन पहले मैं प्रयागराज इलाहाबाद गया था। आनंद भवन में एक तस्वीर देखी थी जिसमें महात्मा गांधी के साथ छोटी-सी इंदिरा हैं। वहां से आने के बाद ही इंदिरा गांधी के बारे में पढ़ने का मन किया था।

इस किताब में इंदिरा का बचपन बताया गया है। बताया गया है कि वे जवाहर लाल नेहरु की प्यारी नहीं थीं बल्कि अपनी मां की प्यारी थी। इस किताब में सिर्फ इंदिरा की कहानी नहीं हैं। ये किताब जवाहर लाल नेहरू के बारे में है, कमला नेहरू के बारे में, फिरोज गांधी के बारे में है। इसमें वो किस्सा भी है जब एक जगह नेहरू अपने मित्र से कहते हैं कि क्या कोई मेरी पत्नी से प्रेम कर सकता है? उन्हीं दिनो फिरोज और कमला के प्रेम की बातें हो रही थीं। ऐसे ही बहुत सारे किस्से हैं उनके बचपन के। बचपन में इंदिरा अपनी मां की तरह थीं और बाद में भी वे अपनी मां की तरह बन जाती थीं। जो इंतजार करतीं और लड़ने के लिये तैयार रहतीं अपने आप से।


वे विदेश चलीं जाती हैं। वहां प्रेम की नैय्या में बैठती हैं, जिसके लिये वे अपने पिता से विद्रोह कर लेती हैं। महात्मा गांधी तभी बीच में आते हैं और फिरोज-इंदिरा की शादी कराते हैं। फिर पिता की संरक्षक बनती हैं, फिरोज की विद्रोही। इन सबके बीच एक किस्सा आता है इंदिरा गांधी के प्रेम का। वे प्रधानमंत्री बनती हैं और फिर जननायक। इसके बाद वे पुत्र प्रेम में ऐसी गिरती हैं कि उठ ही नहीं पाती हैं। आखिर में वे किस्से दिये हैं जो बताते हैं वे सत्ता में तो थीं लेकिन कमजोर थीं। आॅपरेशन ब्लूस्टार उनकी मौत की कारण बनता है। उनकी मौत उनके बेटे को सत्ता दे जाती है। इन सबके बीच में इंदिरा गांधी के बारे में न जाने कितने किस्से हैं। उनके उठने के, फिर तानाशाह के और फिर सत्ताबेदखली। आखिर में फिर से सबको पटखनी देने के बारे में बताती है ये किताब।

ये किताब जब तक इंदिरा हैं। इंदिरा की मौत से लेकर किताब शुरू होती है लेकिन इंदिरा की मौत पर ये किताब खत्म नहीं होती है। आखिर में लेखिका ने एक अध्याय जोड़ा है इंदिरा के बारे में। जिसमें इंदिरा गांधी का कला प्रेम, धर्म-अध्यात्म के बारे में बताया गया है। ये सब मुझे पढ़ने में मजेदार नहीं थे। उसके पहले तक मैं किताब पढ़ता रहा और इंदिरा गांधी को जानता रहा। कभी कमला नेहरु के बेटी के रूप में तो कभी ‘मैं ही मुद्दा के रूप में’।

बुक- इंदिरा
लेखिका- सागरिका घोष
अनुवाद- अनंत मित्तल
प्रकाशक- जगरनाॅट बुक्स
कुल पेज- 389।

Saturday, 2 March 2019

औघड़: इस किताब को पढ़ना मतलब कुछ सवालों को जानना है

किताबों के दौर में लेखकों ने अपने दायरे बना लिये हैं। जिसमें किताबें प्रेम पर आ रही है या दोस्तों पर। शायद लेखकों का मानना है कि प्रेम को सभी पढ़ते हैं, सही है। लेकिन अगर आप अच्छे विषयों पर भी लिखें तो पाठक क्यों नहीं पढ़ेंगे? प्रेम पर पढ़ने वाले पाठक बंधे होंगे। लेकिन पढ़ने वाले सिर्फ पढ़ते हैं। विषय और भाषा अच्छी मिले तो सोने पर सुहागा हो जाती है। ऐसे ही ऐसी ही एक किताब आई है, औघड़।


औघड़ किताब के बारे में अगर कुछ वाक्यों में कहना हो। तो मैं कहूंगा कि ये सिर्फ किताब नहीं है, ये सच्चाई है। ये सच्चाई बताती है हमारे समाज की, ये सच्चाई बताती है हमारे व्यवहारिकता की। ये सच्चाई बताती है कि समाज आज भी गंदा है। ये किताब बताती है कि कोई भी औघड़ यू ही नहीं हो जाता। ये किताब ग्रामीण परिवेश पर आधारित है। जिसकी भाषा व्यंग्य की तरह लिखी है, जिसको पढ़कर आप हंसते भी हैं और दुखी भी होते हैं और अंत में रह जाती है एक दीवार।


इस किताब को लिखा है नीलोत्पल मृणाल ने। नीलोत्पल की ये दूसरी किताब है। इसके पहले वे डार्क हाॅर्स लिख चुके हैं। जो काफी पढ़ी जाने वाली किताब रही। जिसके लिये नीलोत्पल मृणाल को साहित्य अकादमी पुरस्कार भी दिया गया था। नीलोत्पल मृणाल साहित्य जीवन से लेकर युवाओं के बीच काफी पसंद किये जाते हैं। पहले वे डार्क हाॅर्स फेम लेखक कहे जाते थे। इस किताब के बाद वे औघड़ फेम लेखक कहे जाने लगे हैं। वे आपको हर साहित्यक मंच पर मिल ही जायेंगे।

किताब के बारे में


औघड़ ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास है। जिसमें आज का गांव है। जो आज भी बहुत कुछ बदला नहीं है। आज भी गांव में लोग भोर होने से पहले उठ जाते हैं। आज भी एक जगह ऐसी होती है जहां पंचायत बैठती हैं। जहां एक-दूसरे पर ठहाके लगाये जाते हैं। गांव में सुविधाओं का अभाव है लेकिन भाव है। जहां आज भी जाति है और जाति ही सब कुछ है। जहां पर्दा है तो महिला है और महिला न बोले यही सशक्तिकरण है। जहां बुजुर्गों का सम्मान उनकी मर्जी पर चलना है। जहां गांव की प्रधानी की राजनीति है और थोड़ा प्रपंच है।

कहानी गांव के परिवेश से शुरू होती है और धीरे-धीरे सबकी बातें होती हैं। धीरे-धीरे सबका परिचय होता है और परिचय के साथ जुड़ी होती है उसकी जाति। इसी तरह कहानी धीरे-धीरे बढ़ती जाती है। जिसमें एक तरफ कुछ बड़े लोगों की पंचायतें होती हैं जिसमें सब एक-दूसरे को हांकने का काम करते हैं। उस बातचीत को पढ़ने में रस आता है क्योंकि जिस हास्य तरीके से लिखा गया है। उसे पढ़ते रहने का मन करता है, पूरी किताब में हास्य और बहुत जगहों पर होता है। दूसरी तरफ एक और पंचायत लगी होती है जो फायदे के लिये नहीं अपना टाइम पास कर रहे होते हैं।

आधी किताब पढ़ने के बाद भी पता नहीं चलता कि कहानी का कोई नायक होगा या नहीं। लगता है कि किताब बिना नायक के गांव के परिवेश और उबड-खाबड़ में चलती रहेगी। लेकिन फिर नायक बनकर उभरता है वो जो जाति की दीवार गिराना चाहता है। जाति की वो दीवार गिराने का तरीका बनता है जनतंत्र। लेकिन गांव में जनतंत्र से ज्यादा मूल्य होता है व्यवहार का। आखिर में कहानी अपनी अंत तक पहुंचती है। अंत यानि कि प्रस्थान पर। एक सफल कहानी वही होती है जो अंत आपको कचोटे और कहे। मैं तो कहानी को ऐसे खत्म नहीं करना चाहता था। वही अच्छी कहानी होती है, वैसी ही ये कहानी है। एक औघड़ की कहानी।


गांव के बारे में प्रेमचंद्र के उपन्यास बेहतरीन हैं। लेकिन आज के दौर में ऐसी ही किताबों की आवश्यकता हैं जो हमें समाज को दिखायें। गांव का परिवेश और हमारी संस्कृति सब कुछ ये कहानी बताती है। किताब में है बहुत सारे विरोधाभाष। संस्कृति को लेकर, समाज को लेकर, जाति को लेकर, शिक्षा को लेकर राजनीति को लेकर और शहर भी। कहानी में लेखक अपनी बात भी रखता है और सवाल भी करता है। सवाल पितृसत्ता समाज, सवाल उन लोगों से जो चुप रहना ही बेहतर समझते हैं। सवाल पैसा और जाति की लड़ाई के बीच में।

इस किताब को हर किसी को पढ़ना चाहिये। प्रेम, दोस्ती और कल्पना बहुत पढ़ा गया है। अब थोड़ा अपने गांव की ओर, खुद की ओर आओ। औघड़ किताब को हमेशा याद रखने के लिये है। जब भी लगे कि कुछ अच्छा पढ़ना है तो औघड़ पढ़ डालो। निरंतरता और संजीवता सब इस किताब में है। बस किताब थोड़ी मोटी है, वक्त लग सकता है लेकिन बोर नहीं हो सकते।

बुक- औघड़
लेखक- नीलोत्पल मृणाल
प्रकाशक- हिंदी युग्म
कुल पृष्ठ- 388।

Thursday, 31 January 2019

हमसफर एवरेस्ट ‘नीरज मुसाफिर’ का एक बढ़िया मुसाफिर खाना है जो बस चलता रहता है

घुमक्कड़ स्वभाव जिंदगी में नयी-नयी चीजें, नये अनुभव, नये रास्ते दिखाता है। जब लगे कि जिंदगी ठहर गई कि वो घुमक्कड़ वाला स्वभाव आ जाना चाहिये। जो कल की न सोचे, बस चल दे। मुझे लगता है नई-नई जगह जाने से आप तरोताजा हो जाते हैं, कुछ अच्छा और बेहतर करने के लिये। उन्हीं घुमक्कड़ स्वभाव के लिये पहाड़ सबसे बढ़िया जगह होती है। वो गगन छूती पहाड़ियां, वो कलकल करती नदियां और हिचकोले लेते रास्ते जैसे हमारी जिंदगी लेती है। इस सफर में कभी अच्छा लगता है, कभी बुरा लगता है। लगता है बहुत हो गया, अब लौट लेते हैं कि फिर मन कहता है ‘अभी नही तो कभी नहीं’। ऐसी ही दो सैलानियों की यात्रा की कहानी है ‘हमसफर एवरेस्ट’।

एवरेस्ट बेस कैंप तक का यात्रा वृतांत है इस किताब में।


हमसफर एवरेस्ट को लिखा है नीरज मुसाफिर ने। नाम ही कह रहा है कि ये घूमते-फिरते रहते हैं। नीरज मेरठ के रहने वाले हैं। मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया है और दिल्ली में नौकरी कर रहे हैं। उसी नौकरी में से समय निकालकर भारत के हिस्सों में घूमते-फिरते रहते हैं। साल 2008 से अपनी तमाम यात्राओं के बारे में अपने ब्लाॅग में लिखते आ रहे हैं। नीरज ब्लाॅग और फेसबुक पर खासे एक्टिव रहते हैं। उन्होंने इस किताब के अलावा ‘सुनो लद्दाख’ और ‘पैडल-पैडल भी लिख चुके हैं।


हमसफर एवरेस्ट 


हमसफर एवरेस्ट एक ऐसे मुसाफिर का यात्रा वृतांत है। जो दिल्ली से मोटर साइकिल से शुरू होता है और नेपाल होते हुये एवरेस्ट बेसकैंप तक पहुंचता है। इस किताब में बारीकी से हर दिन और मिनट की चर्चा है। मतलब कि कहां-कहां रूके, कहां गये, क्या खाया? सबसे बड़ी बात हर जगह की कीमत दी हुई थी। लेखक कोई बड़े साहित्यक नहीं हैं न ही किताब में बनने की कोशिश करते हैं। वे अपनी यात्रा को सीधे-सीधे समझाते हैं और बताते हैं। उनके दिमाग में उस समय क्या चल रहा था। उसको भी किताब में उकेर देते हैं।

अगर किसी को एवरेस्ट या बेस कैंप तक जाना है तो ये किताब वाकई बहुत ही उपयोगी है। लेकिन सुंदरता और लेखन के हिसाब से पढ़ेंगे तो बोर हो उठेंगे। शुरूआत में आप बोर भी हो सकते हैं क्योंकि उसमें पहाड़ नहीं मिलता, नेपाल नहीं मिलता। लेखक गाड़ियों से हमें उत्तर प्रदेश ले जाते हैं यानि कि किताब की शुरूआत थोड़ी लंबी है लेकिन नेपाल में आने के बाद किताब आपको बांधने लगती है। इसमें जानकारी तो होती ही है और लेखनी भी ऐसी होती है जो आपको अच्छी लगती है।

किताब में नेपाल-भारत की दोस्ती का जिक्र है। जिक्र है कि एवरेस्ट पर जाना भी इतना भी आसान नहीं है। सब सोचते हैं कि पहाड़ पर चढ़ना आसान है बस हमें समय नहीं मिलता है लेकिन जब आप पढ़ते हैं कि ठंड की वजह से हाथ-पैर भी कांटने पड़ते है तब पता चलता है कि ये बच्चों का खेल नहीं है। किताब में ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे कि चढ़ाई के दौरान क्या-क्या परेशानी आती है? इन परेशानियों का सामना करने वाले ही उस चढ़ाई तक पहुंच जाते हैं और जो डर जाते हैं वे बीच में ही लौट आते हैं।

किताब में छब्बीस दिनों की कहानी है जिसमें बीस दिनों में एवरेस्ट तक चढ़ने की बातें हैं। उसके बीच में सुंदर दृश्य और कठिनाई भी हैं जो दिमाग में घूमते रहते हैं। लेखक अपनी यात्रा को आराम से पूरा करता है और चलता जाता है। हर चीज का प्लान बनाता है कि आज यहां पहुंचना है और अगर वो पूरा नहीं होता है तो अगले दिन फिर प्लान होता है। किताब में बताया जाता है नेपाल के पहाड़ तो सुंदर हैं लेकिल लोग भारत के ही अच्छे है। भारत सस्ता और अच्छा दोनों हैं।

एवरेस्ट का रास्ता होने के कारण नेपाल महंगा है। लेकिन एक बात अच्छी थी कि होटल फ्री में मिल जाते थे लेकिन शर्त रहती थी कि खाना होटल में ही खाना पड़ेगा। अच्छा तरीका है बिजनेस चलाने का।

एवरेस्ट तक जाने का बढ़िया जरिया है ये किताब।

अदना-सा अंश


27 मई 2016
सुबह साढ़े छः बजे क आसपास आंख खुली। बाहर निकले तो नजारा मंत्रमुग्ध कर देने वाला था। हो भी क्यों न? हम 4800 मीटर पर थे और आसमानों में बादलों का नाम तक नहीं था। दो चोटियों ने सारी महफिल अपने नाम कर रखी थी। एक तो यही बराबर में थी चोला-चे। इसे चोलात्से भी लिख देते हैं, लेकिन कहते चोला-चे ही हैं। 6300 मीटर पर यह चोटी बर्फ से लकदक थी। यह हमसे केवल इतनी दूर थी कि लगता कि हम तबियत से पत्थर फेकेंगे तो उससे पार परली पार जा गिरेगा।

किताब की खूबी


किताब जानकारी से लदालद भरी पड़ी है। किसी को अगर नेपाल होते ही एवरेस्ट या एवरेस्ट बेस कैंप जाना है तो नक्शे से ज्यादा यह किताब महत्ववपूर्ण है। किताब पुरानी नहीं है तो आराम से पहुंचा देगी। आपको उसमें बांधे रखती है। अगर कोई घुमक्कड़ स्वभाव का है, पहाड़ों में जाना अच्छा लगता है तो उसे यह किताब बढ़िया लग सकती है। कुल मिलाकर मुसाफिरों के लिये एक मुसाफिर खाना है।

किताब की कमी


जानकारी के हिसाब से अच्छा कहा जा सकता है लेकिन कुछ कमी भी हैं जो मुझे लगी। शुरूआत कुछ ज्यादा लंबी हो गई, जिसमें लग रहा था कि ये सब है ही क्यों? पाठक के हिसाब से थोड़ा साहित्यक होना चाहिये था। पहाड़ों और दृश्यों का वर्णन अच्छे से किया जाता है तो मजा ही आ जाता। यह किताब उनको अच्छी नहीं लगेगी जा घूमते नहीं हैं या जिनको घूमना पसंद ही नहीं है।

हमसफर एवरेस्ट कुल मिलाकर एक मुसाफिर का मुसाफिर खाना है जिसने कुछ दिनों में बहुत कुछ पाया और उसे पाने में क्या-क्या कठिनाईयां आई वो सब उसने अपने मुसाफिर खाने में रखी हुई है। मैं अक्सर यही सोचता हूं कि कहीं जाने के लिये सच में प्लान बनाना चाहिये या फिर कहीं जाने के लिये साथी होना जरूरी है। मैं हमेशा से नहीं ही कहता था, अब भी कहता हूं लेकिन अगर साथी हो तो क्या खराबी है? हमसफर मुसाफिर में भी लेखक का एक साथी है जो उसके साथ हमेशा चलते ही रहता है बिल्कुल हमसफर मुसाफिर की तरह।

नाॅन रेजिडेंट बिहारी, कैरियर और प्यार के बीच मस्ती और दुखड़ों से भरी पड़ी है

बिहार को मैंने दो ही आंखें से सुना है। एक तो यहां से आईएस बहुत निकलते हैं यानि कि पढ़ने वाले बहुत होते हैं और दूसरा बिहार बड़ा पिछड़ा राज्य है सोच में भी और बाकी चीजों में भी। तभी तो दिल्ली में कोचिंग करने वाले बिहार के लड़के मिल ही जायेंगे। दिल्ली उनका घर हो जाता है और बिहार टूरिस्ट स्पेस। जहां साल में एक-दो बार चक्कर लग ही जाता है। दिल्ली में लड़का तब तक रगड़ता है जब तक अपने पिता का सपना लालबत्ती न मिल जाये या फिर उसके सो चांस ही खत्म न हो जाये। इसी बिहार और दिल्ली के बीच चलती-फिरती कहानी है ‘नाॅन रेजिडेंट बिहारी’।

कसी हुई कहानी का उदाहरण है नाॅन रेजिडेंट बिहारी।

नाॅन रेजिडेंट बिहारी का पहला संस्कारण 2015 में आया था और 2017 में इसके तीन संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इस किताब के लेखक हैं शशिकांत मिश्र। शशिकांत मिश्र बिहार के कटिहार जिले में पले-बढ़े हैं। पत्रकारिता करने के बाद पत्रकार जगत में आये और तब से मीडिया जगत में सक्रिय हैं। 8 सालों से स्टार न्यूज, एबीपी न्यूज से जुड़े रहे और उससे पहले इंडिया टीवी में भी काम किया।

किताब में क्या है?


बिहार के जिला अस्पताल में एक लड़का पैदा होता है और उसी दिन उसका भविष्य लिख दिया जाता है कि यूपीएससी की तैयारी करने लड़का दिल्ली जायेगा और लाल बत्ती लेकर जायेगा। राहुल दिल्ली के मुखर्जी नगर पहुंच जाता है जहां उसके दोस्त पहले से ही आ गये थे। फिर कहानी में पढ़ाई, मस्ती, मूवी, घूमना-फिरना बना ही रहता है। दोस्तों की दोस्ती गहरी हो जाती है इतनी कि मुसलमान को मुल्ला कहते हैं और हनुभक्त को लतियाते हैं। जब तक पेपर नहीं आते हर रोज बातें और मटरगश्ती होती है। लेकिन जब पेपर नजदीक आ जाते हैं तो मुखर्जी नगर की सड़कें खाली हो जाती हैं और कमरे बंद।

यूपीएससी में फेल और पास की कहानी चलती रहती है। इसमें भी राहुल के साथ वही कहानी चलती है, कभी पास होता है तो कभी फेल। लेकिन उसके फेल होने में हर बार उसका प्यार बीच में आता है। हर कहानी में प्यार होता है तो इसमें कहां जाता

राहुल अपने ही गांव कटिहार की लड़की शालू से प्यार करता है और वो भी उससे बेइंतहा प्यार करती है। इनका प्यार शादी में तभी तब्दील हो सकता था जब राहुल यूपीएससी निकाल ले। क्योंकि शालू का परिवार बड़ी जाति और अमीर घराने से था और राहुल का परिवार तो इतना गरीब कि राहुल की पढ़ाई के लिये महाजन से कर्ज लिया जा रहा था। इस प्यार को पाने के लिये राहुल जी जान से मेहनत कर रहा था लेकिन थोड़ी सी चूक हो ही जा रही थी। उसके बाद खबर आती कि शालू की सगाई होने वाली है।

कहानी बिहार के लड़के की नहीं, प्यार और कैरियर के तालमेल की है।

दोस्ती बड़ी प्यारी चीज होती है। इस किताब में बड़े ही व्यवहारिक रूप में बताया गया है। सिर्फ शराब और दारू पीने के लिये दोस्ती नहीं होती है। जब दोस्त मुसीबत में हो तो साथ देने में कोई हिचकिचाहट न आये, वही सच्ची दोस्ती होती है।

राहुल के दोस्त उसका हर पल में साथ देते हैं दारू पीने से लेकर शालू से मिलवाने तक। अंत में मोड़ आता है जब राहुल का यूपीएससी का फाइनल एग्जाम और शालू की शादी एक ही दिन पड़ती है। तब कहानी कैसे मोड़ लेती है बिल्कुल फिल्मी स्टाइल में और सब बढ़िया हो जाता है। लेकिन उसके बढ़िया के पहले एक परीक्षा है राहुल की प्यार की और कैरियर की। शालू की परीक्षा है अपने धैर्य की और राहुल के प्यार पर टिके रहने की। कुछ दोस्त हैं जो इस कहानी में न होते तो कहानी रोचक नहीं होती। कहानी एक अच्छे सफर से शुरूआत होती है लेकिन आगे जाते-जाते यह मार्मिक हो जाती है और वही मार्मिकपन पाठकों को जोड़ने का काम करता है।

किताब का छोटा-सा अंश


राहुल अपने ख्यालों में खोया हुआ था। खिड़की से बाहर देखते हुए वह आगे की प्लानिंग कर रहा था। बनमनखी पहुंचना है और एक बार किसी तरह से शालू से मुलाकात करना है, लेकिन कैसे? वह घर के अन्दर होगी, बाहर उसके भाई के गुंडे-मवाली। मुझे पहचानते भी हैं ये सब। बहुत दिमाग लगाया राहुल ने, लेकिन अभी तक बहुत कुछ तय नहीं कर पाया था कि आखिर शालू से मिलेगा कैसे वह? इस सवाल पर वह सुबह से उलझा हुआ था। पुलिस से एक बार मदद मांगने का ख्याल आया और दूसरे ही पल निकल भी गया।

‘जाउंगा तो सब पुलिसवाले मुझे ही शक की नजर से देखेंगे। लोफर है साला, लोफर। एक शरीफ लड़की को तंग कर रहा है। कोई ठीक नहीं कि मुझे ही पकड़कर अंदर कर दें और शालू के बाप को फोन करके बख्शीश मांगने लगें।’ मन में मोटी गाली दी राहुल ने।

साला, अजीब माइंड सेट है बिहार है का। अगर कोई लड़का प्यार करता है तो इसका सीधा मतलब है कि जरूर वह लोफर होगा! हां, लड़कियों के मामले में थोड़ी रियायत दिखायेंगे। इसकी क्या गलती! बच्ची है, जरूर उसी लोफर ने बहका दिया होगा।

किताब की खूबी


किताब वाकई अच्छे ढंग से लिखी गई है। एक कहानी का पूरा-पूरा वर्णन। हास्य से लेकर यह कहानी मार्मिक तक जाती है और फिर सुखद हो जाती है। कहानी में शब्दों से अच्छी तरह से खेला गया है। लेखक एक पत्रकार है तो शब्द बढ़िया चुने हैं और वर्णन भी बढ़िया किया है। किताब में कहानी लचीली है, सस्पेंस बरकरार रखती है। जो बिहार से हैं उनको तो निश्चित ही ये किताब पसंद आयेगी और जो नहीं हैं उनको भी आयेगी। एक पाठक के तौर पर हर कोई पड़ सकता है।

किताब की कमी


किताब में कुछ कमी हैं जो मुझे लगीं। किताब में कहानी बिहार से है। जब बातें होती हैं तो हर बात हिंदी में ही लिखी गई है। कहीं कहीं हास्य बनाने या वास्तविक बनाने के लिये वहां की बोली का इस्तेमाल होता तो और भी बढ़िया होती। ये किताब उनके लिये बिल्कुल भी नहीं हैं जिनको कहानियां पढ़ने में मजा नहीं आता। क्योंकि ये किताब कोई जानकारी देने के लिये नहीं है। बस लेखक की सोच है जो शब्दों में उकेरी गई है।

नाॅन रेजिडेंट बिहारी किताब है एक लड़के की। जो लाल बत्ती और शालू को पाने के लिये दिल्ली के मुखर्जी नगर आता है और फिर वही दिल्ली दोनों को दूर करने की जद्दोजहद में लग जाता है। राहुल दोनों की पाने की भरसक कोशिश करता है। ये कहानी सिर्फ बिहार की एक लड़के की कहानी नहीं है। ये हर किसी की कहानी है। जिसमें कुछ पाना होता है और कुछ खोना। लेकिन हम टूटने लगते हैं, हमारी इम्तिहान की घड़ी आती है। हम पास हो जाते है तो खुश हो जाते हैं और नहीं होते तो फिर से पाने की कोशिश करते हैं, बिल्कुल राहुल की तरह।

बुक- नाॅन रेज़िडेंट बिहारी
लेखक- शशिकांत मिश्र
प्रकाशक- राधाकृष्ण का उपक्रम

यदा यदा हि योगी में योगी आदित्यनाथ ही नहीं बल्कि राजनीति के बेहद मजेदार किस्से हैं

मेरा मानना है कि पत्रकार एक अच्छी और बेहतर किताब लिख सकता है क्योंकि उसके पास शब्द हैं, ज्ञान है और तजुर्बा भी। अब दूसरी बात किताब काल्पनिक हो तो उसकी कहानी थोड़े दिनों में हमारे जेहन से उतर जायेगी। लेकिन किताब में अगर असलियत और वास्तविकता है तो उसका पढ़ा हुआ हमें काम ही आयेगा। ऐसी ही किताब आई है ‘यदा यदा हि योगी’। इसको पत्रकार विजय त्रिवेदी ने लिखा है।
यदा यदा हि योगी, योगी आदित्यनाथ पर रचित किताब है।

अक्सर होता है कि किताब अगर किसी व्यक्ति पर लिखी है तो वो उसके ही इर्द-गिर्द घूमती रहती है। ऐसा होता है कि किताब में उसका पक्ष होगा या उसकी बुराई हो सकती है लेकिन ऐसा कम होता है कि सारे पक्ष एक ही जगह, एक ही किताब में धर दिये जायें। इस किताब को पढ़ने के बाद मैं कह सकता हूं कि इसमें वो सब नहीं है।
सत्ता के सिंहासन पर संयासी का एक साल!

किताब के बारे में

यदा यदा हि योगी किताब की शुरूआत उनके मुख्यमंत्री बनने की कहानी से शुरू होती है। उस मुख्यमंत्री बनने को लेकर कई किस्से और कशमकश हैं। पहला अध्याय ही एक सवाल लेकर बनता है, कौन बनेगा मुख्यमंत्री?
इसमें बीजेपी का जिक्र आता है, आरएसएस का जिक्र है, नरेन्द्र मोदी का जिक्र है और अमित शाह का जिक्र है।
कहानी धीरे-धीरे किताब में मुख्यमंत्री से पीछे चलती है। योगी आदित्यनाथ के एक साल के कार्यकाल को बताया जाता है, उनकी उपलब्धि मिलती हैं और लोगों के कुछ कथन भी मिलते हैं। हिंदू और हिंदुत्व की बात होती है। इसमें उनके हिुंदुत्व वाले कुछ बयान आता है जिसमें वे मुसलमानों को मारने की बात कहते हैं।

‘अगर वो हमारे 1 आदमी को मारेंगे तो हम 100 को मारेंगे।’

किताब में सिर्फ योगी आदित्यनाथ नहीं है। आदित्यनाथ के बहाने लेखक राम मंदिर विवाद पर जाता है। राम मंदिर के सारे पहलुओं को बताता है। पूरा इतिहास, कोर्ट के फैसले और वो मूर्ति वाला किस्सा। उसके बाद राम मंदिर पर राजनीति लाते हैं जहां आडवाणी राम रथ यात्रा की बात करते हैं और अपने को हिंदुत्व बनने की होड़ में रहते हैं। वो बाबरी मस्जिद गिरने का किस्सा भी पूरे विस्तार से बताते हैं।
किताब में सबका साथ, सबका विकास का अध्याय रखा गया है। जिसमें बताया गया है कि नरेन्द्र मोदी इसे नारे के साथ भारत का विकास करना चाहते हैं। लेकिन इस नारे को छत्तीसगढ़ की बीजेपी ने दिया है। इसमें योगी के सबका साथ, सबका विकास की बात होती है। इसमें वो किस्सा आता है जब शांत रहने वाले योगी आदित्यनाथ संसद में चिल्लाते हैं और हिंदुओं की आजादी को खतरा बताते हैं। किताब में हर जगह इस बात पर बड़ा जोर दिया है कि योगी आदित्यनाथ सबसे बड़े हिंदू नेता हैं। जो फिर से देश को हिंदुत्ववादी बना सकते हैं।
कहानी बिल्कुल पीछे खिसकती जाती है। उत्तर प्रदेश में बीजेपी की जीत का कारण बताया जाता है। गोरखपुर और गोरक्षपुर मंदिर पर आते हैं, वहां के महंत पर बात होती है जो कि योगी आदित्यनाथ हैं।
योगी आदित्यनाथ के गोरखपुर मंदिर का इतिहास आता है। कुछ सबद और संस्कृत का श्लोक आता है। जिसमें गोरखपुर का जिक्र होता है वहां के महंत और उनके महाराज का जिक्र होता है। एक जगह ओशो का जिक्र होता है जिसमें वे कहते हैं कि भारत में अब भी जो संप्रदाय भला कर रहा है वह नाथ संप्रदाय है। योगी आदित्यनाथ की किताब में बीच-बीच कुछ बुराई भी होती हैं। ताजमहल को अपने कैलेंडर से बदलवाने और उसे खराब कहने के कारण उनकी आलोचना भी मिलती है।
कहानी और पीछे जाती है। गढ़वाल से गोरखपुर तक। गढ़वाल जहां पर उनका जन्म हुआ था और कैसे गोरखपुर आये, कैसे सन्यासी बने।

किताब कौन पढ़े

यदा यदा हि योगी, एक जानकारी से भरी किताब है। इसमें कहानी है और उन कहानियों में किस्से हैं जो वाकई मजेदार हैं। उन मजेदार किस्सों को जानने के लिये जरूर पढ़नी चाहिये। जिन्हें राजनीति अच्छी लगती है, जो राजनीति के उस दौर को जानना चाहते हैं तो उनको यह किताब पढ़नी चाहिये।

कौन न पढ़े

किताब में कुछ कमी भी है। बीच-बीच में योग और अध्यात्म की ओर किताब चली जाती है। ऐसा लगता है कि किताब योगी आदित्यनाथ पर नहीं अध्यात्म और योग पर है। इस किताब को वे लोग बिल्कुल भी न पढ़े जिनको राजनीति में मजा नहीं आता क्योंकि ये नाॅवेल नहीं है। वे लोग भी न पढ़े जिनको लगता है कि इसमें योगी आदित्यनाथ का पूरा जखीरा मिलेगा।
यदा यदा हि योगी एक अच्छे लेखक की एक बेहतर किताब है। जिससे हर पत्रकार को, हर नेता, हर छात्र को तो पढ़ना चाहिये। क्योंकि इनमें वो किस्से हैं जो हमने न कहीं सुने हैं और न ही पढ़े हैं।
किताब- यदा यदा हि योगी
लेखक- विजय त्रिवेदी
प्रकाशक- वैस्टलैंड लिमिटेड

आजादी मेरा ब्रांड हरियाणवी लड़की का बेफिक्र होकर दुनिया नापने का घुमक्कड़ शास्त्र है

हर कोई पैदा होते ही घुमक्कड़ नहीं हो जाता है। कोई चलते-चलते बनता है तो कोई किसी को देखकर बन जाता है। कोई घुमक्कड़ कभी बन ही नहीं पाता है कई कोशिशें के बाद भी। लेकिन जो घुमक्कड़ होता है उसे बस घूमना होता है और नई-नई चीजें देखना होता है। हम भारतीय अक्सर ग्रुप में घूमना पसंद करते हैं अकेले कहीं जाना हमें डरा देता है लेकिन ‘आजादी मेरा ब्रांड’ कहती है कि अगर सच में घूमने जा रहे हो तो अकेले जाओ। अकेले में आपको दूसरों की फिक्र नहीं करनी पड़ती है किसी की सहूलियत पर ध्यान नहीं देना पड़ता है। जहां चाहे जाओ, कुछ भी खाओ यानि मनमौजी।


असली घुमक्कड़ किसे कहते हैं, वो कैसे होते हैं इन सबका जवाब यायावरी आवारगी की पहली श्रृंखला ‘आजादी मेरा ब्रांड’ में मिल जाता है। इस किताब को लिखा है अनुराधा बेनीवाल ने। 


अनुराधा बेनीवाल हरियाणा के रोहतक जिले से ताल्लुक रखती हैं। वे अच्छी चेस प्लेयर हैं। 15 साल की उम्र में नेशनल शतरंज प्रतियोगिता की विजेता रहीं। 16 वर्ष की उम्र में विश्व शतरंज प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया। उसके बाद उन्होंने चेस को हमेशा के लिये अलविदा कह दिया। लेकिन जब उनको लंदन में काम की जरूरत पड़ी तो चेस ही काम आया। लंदन में वे शतरंज की कोच हैं और खेलती भी हैं।

किताब के बारे में


आजादी मेरा ब्रांड कोई यात्रा वृतांत नहीं है ये तो लेखिका के संस्मरण हैं जो वे कभी बस में सोचते हुये लिखती हैं तो कभी घर के कोने से बैठकर लिख रही है। इसमें उनके यूरोप के 13 देश घूमने के संस्मरण हैं। लेकिन लेखिका बताती हैं कि वे भारत से यूरोप क्यों आई? कैसे अचानक उनको घूमने का शौक लग गया? वो हर देश में भटकती-फिरती रहती हैं। लेखिका उस देश, शहर के बारे में बताती हैं, वहां के लोगों के बारे में, घरों के बारे में इमारतों के बारे में। उनको जो समस्याएं आती हैं उन सबके बारे में। कौन-सा देश महंगा है? कहां आकर उनको सुकून मिलता है और किन बातों से उनको डर लगता है।

उनके घूमते हुये संस्मरणों में वे जो भी सोचती हैं उसकी तुलना खुद से, इस समाज से या फिर हमारे देश यानि कि भारत से करती हैं। वे बताती हैं कि वे अपनी इच्छा दबा के रखती हैं क्योंकि समाज में उनको अच्छा बना रहना है। समाज में अच्छा बना रहने की शर्त सिर्फ लड़कियों पर लागू कर दी जाती है।

उनकी तुलना इतनी जायज होती है कि लगता है वे बता नहीं रही हैं, हमसे कह रही हैं कि अब हमें इस चीज को बदलना चाहिये। हम समाज के चक्कर में आखिर क्यों बेड़ियों में बंधने का काम करें।
यूरोप अगर लेखिका के नजरों से देखें तो अच्छा भी है और घूमना भी आसान है। घूमने में सबसे ज्यादा फिक्र होती है रूकने की। लेकिन लेखिका के संस्मरणों में कहीं भी पैसे से नहीं रूकी। वे बताती हैं कि यूरोप में लोग अपने घर होस्ट पर रखते हैं यानि कि वे कुछ दिनों के लिये आपको अपने घर में रूकने के लिये बुलाते हैं। इस तरह धीरे-धीरे वे 13 देशों को घूम लेती हैं। उनके संस्मरणों में कहीं नहीं लगता कि वे वापस लौट जाना चाहती हों। वे तो अपने को बेफिक्र, बेमंजिल मुसाफिर बताती हैं जो पूरी दुनिया घूमना चाहती हैं।

अपने संस्मरणों में लेखिका समाज की बुराई-अच्छाई पर बात करती है। वो यूरोप के खुलेपन और भारत के दब्बूपन पर बात करती हैं। उन्हें लोगों से बतियाना अच्छा लगता है वे देखती हैं कि यहां के लोगों और भारत के लोगों की सोच में कितना अन्तर है। उनके इन संस्मरणों और सोच के कारण ही किताब कहीं बोर नहीं होने देती है। कुल मिलाकर जानकारी के साथ एक घुमक्कड़ की आजाद सोच से वाकिफ कराती है किताब।

कुछ किताब से


1- मुझे रात की पार्टियों से दिक्कत नहीं है, जितना कि सुबह की चाय से प्रेम है। हां, घर में बैठकर रात-भर गप्पिया लो, चाय पर चाय, आधी रात को मैगी बनवा लो, पर तैयार होकर बाहर मत बुलाओ, प्लीज।

2- अकेले दुनिया फिरने का यह भी मजा है, आप इतनी सारी जिंदगी इतनी स्पीड से जी लेते हैं। कोई कमिटमेंट नहीं होती, तो कुछ भी कर लेते हैं। कई बार बहुत कुछ कर लेते हैं।

3- समय के साथ हम बदलते भी हैं, जनबा बदलते हैं, समय बदलता है। कई बार बदले-बदले भी पसंद हो जाते हैं, कभी-कभी हजम नहीं होते। यों रिश्तों का रहस्य कायम रहता है।

4- किसी से मिलकर सिर्फ सेक्स कर पाना या सिर्फ सेक्स करने की इच्छा करने की चाह भर रखना भी हमें पाप बताया जाता है। ऐसे में कितनी बार करना तो चाहते हैं हम सेक्स, लेकिन करते हैं दोस्ती।

5- ऐय्याशी सिर्फ देह की नहीं होती है। इसका संबंध किसी भी तरह के उपभोग की अधिकता या उसके मनमानेपन से है।

किताब की खूबी


किताब एक लड़की की यात्रा का संस्मरण है लेकिन इसमें कहीं बोरियत नहीं आती। क्योंकि यात्रा के साथ-साथ लेखिका फिल्मों की तरह कभी फ्लैशबैक में चली जाती है तो कभी समस्याओं से जूझती रहती है। हर शहर की खूबसूरती होती है और वही खूबसूरती इस किताब में है। ऐसा लगता है लेखिका अपनी यात्रा की बात-बात करते हमसे बात करने लगी है जो पाठक में पकड़ बनाये रखता है।

ये किताब घुमक्कड़ों को पढ़ना चाहिये, इस समाज के ठेकेदारों और पूर्वाग्रहों बनाये रखने वाले को पढ़ना चाहिये। उन लड़कियों को पढ़ना चाहिये जो कुछ करना तो चाहती हैं लेकिन समाज के डर से ग्रहस्थी में बंधी रखती हैं।

किताब की कमी


किताब में कोई खासा कमी नहीं है लेकिन जब-जब लेखिका इतिहास की बात बताती है तो ध्यान टूटने लगता है। शायद इसलिये क्योंकि अचानक से खूबसूरती से ज्ञान आ जाता है जिसे हजम नहीं कर पाते हैं।

पूरी किताब शानदार है एक कहानी की तरह। एक लड़की है जो आराम से अच्छी बनकर रहती है। अचानक एक और लड़की आती है और घूमने का चस्का लगा देती है। उसके बाद लड़की यूरोप घूमने निकल पड़ती है। किताब के आखिर में लेखिका ने लड़कियों के लिये नोट लिखा है जो लड़कियों को आजाद पंक्षी बनने की बात करता है।