Wednesday, 2 September 2020

रसीदी टिकट: अमृता प्रीतम को जानना हो तो इस आइने को उठा लेना

अमृता प्रीतम जिनके लिखे को पढ़कर सुकून मिलता है। जिनकी कविताओं, शायरी और नज्म में कभी प्रेम होता तो कभी दुख भी होता है। मगर इन सबके इतर अगर अमृता प्रीतम को जानना है तो रसीदी टिकट को पढ़ना चाहिए। इस किताब को पढ़कर आपको अमृता प्रीतम की जिंदगी के बारे में पता चलेगा उनके अच्छे और दुख के बारे में जान पाएंगे। रसीदी टिकट अमृता प्रीतम की आत्मकथा है। आत्मकथाएं अक्सर बहुत लंबी होती है लेकिन अमृता प्रीतम ने अपनी आत्मकथाओं बहुत कम शब्दों में समेटी है।


रसीदी टिकट को पढ़कर उस एहसास से रूबरू होते हैं जिसे अमृता प्रीतम ने बताने की कोशिश की है। अमृता प्रीतम ने अपनी जिंदगी की उन सच्चाई को पाठकों के सामने रखा है जिन्होंने उसे किसी को नहीं बताया था। इस किताब में अमृता प्रीतम के संस्मरण है, कविताएं, सपने, यात्राएं और सच्चाई है। रसीदी टिकट पढ़ते हुए आप बहुत हद तक इससे जुड़ाव महसूस कर पाएंगे। रसीदी टिकट एक लेखिका के निजी पलों की कहानी है, जिसे उन्होंने खुद बताया है। 

लेखिका के बारे में

रसीदी टिकट में अमृता प्रीतम की आत्मकथा है। अमृता प्रीतम वैसे तो पंजाबी लेखिका थीं लेकिन उनका लिखा अलग-अलग भाषा में पूरा भारत पढ़ता है। अमृता प्रीतम को जन्म 31 अगस्त 1919 को गुजरांवाला में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है। उनका बचपन लाहौर में बीता और वही शिक्षा प्राप्त की। अमृता प्रीतम को छोटे-से ही लिखना पसंद था। शुरूआत में वो कविताएं और कहानी लिखा करती थीं। बाद के दिनों में वे उपन्यास लिखने लगीं। अमृता प्रीतम ने पचास से अधिक किताबें लिखीं। कई उपन्यासों का विदेशी भाषाओ में अनुवाद भी किया गया। अमृता को 1957 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1988 में बल्गारिया वैरोव पुरस्कार और 1982 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अमृता प्रीतम ने इस दुनिया को 31 अक्टूबर, 2005 को अलविदा कह दिया।

किताब के बारे में

रसीदी टिकट शुरू होती है लेखिका के जन्म के साल से। अपने माता-पिता और बचपन के बारे में कुछ पन्ने रहते हैं। फिर एक कल्पना एक शख्स की जिससे वो प्रेम करना शुरू कर देती है और फिर कुछ विश्वासघात के बारे में होता है। उसके बाद साहिर का जिक्र आता है। साहिर से पहली मुलाकात, उनके बची हुई सिगरेट का कश लगाना। लेखिका किताब में एक जगह साहिर से अपने रिश्ते के बारे में बताती हैं, मेरी और साहिर की दोस्ती में कभी लफ्ज हायल नहीं हुए थे। यह खामोशी का हसीन रिश्ता था।

आगे बढ़ने पर किताब में विभाजन के बारे में बताया है। विभाजन की उस त्रासदी के बारे में पढ़कर दुख जरूर होता है। किताब में लेखिका बार-बार इंसानियत को हिन्दू-मुसलमान से बड़ा बताती हैं। तभी वो किताब में एक संस्मरण बताती हैं जिसमें धर्म की जगह रूहानियत का जिक्र करती हैं। मैं किताब में अमृता प्रीतम के प्रेम के बारे में जानना चाहता था लेकिन उस प्रेम का जिक्र बहुत कम है। हालांकि इस किताब को पढ़ने के बाद आपको इस किताब से प्यार हो जाएगा।

किताब के भीतर से।


ज्यादातर लोगों को अमृता प्रीतम की जिंदगी के दो शख्स के बारे में ही पता है, साहिर और इमरोज। इस किताब में लेखिका के बहुत खास लोगों के बारे में पता चलता है जैसे कि सज्जाद हैदर। सज्जाद पाकिस्तान से थे इसके बावजूद दोनों के बीच अच्छा रिश्ता था। दोनों एक-दूसरे का हाल लिया करते थे और मदद भी किया करते थे। इसके अलावा अवतार और सारा के बारे में भी किताब में पढ़कर जान पाते हैं। रसीदी टिकट में इमरोज के बारे में बहुत कम लिखा है। एक जगह लेखिका इमरोज के बारे में बताती हैं, इमरोज एक दूधिया बादल है। चलने के लिए वह सारा आसमान भी खुद ही है और पवन भी खुद है जो बादल को दिशा मुक्त करती है। इसके अलावा लेखिका के जीवन में जो तमाम महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं, उन घटनाओं के बारे में रसीदी टिकट में जिक्र मिलता है।

रसीदी टिकट एक लेखिका की बेबाकी से लिखी गई अपनी कहानी है। जिसमें वो अपने डर को भी उतनी ही सच्चाई से बताती हैं जितनी अपने नफरत करने वालों के बारे में। इसमें वो अपने प्रेम के बारे में भी बताती हैं और उन व्यक्तियों के बारे में भी, जिनका अमृता के प्रति झुकाव था। इतना बेबाकी-सी लिखी इस आत्मकथा से जुड़ाव स्वभाविक है। रसीदी टिकट सिर्फ एक आत्मकथा नहीं है ये अमृता प्रीतम को जानने का एक दस्तावेज है।

किताब की खूबी

इस किताब को पढ़ना जितना अच्छा लगता है लिखना उतना ही कठिन। किताब हर तरह से बेहतरीन है। एक लेखिका जिसकी लेखनी और प्रेम के बारे में पढ़कर ही सुखद अनुभव होता है तो उनके बारे में जानने को मौका मिले तो कौन छोड़ेगा? रसीदी टिकट आत्मकथा तो है लेकिन कुछ अलग। लेखिका ने अपनी जिंदगी को 139 पेज में समेटा है। किताब में बहुत कुछ बताया गया है और कुछ के बारे में पढ़कर लगता कि इस पर और ज्यादा बताया जाना चाहिए था। लेखनी की बात करें तो भाषा बेहद सटीक और समझने वाली है हालांकि उर्दू के बहुत सारे शब्द आपको मिलेंगे। कुछेक के मतलब आपको पता होंगे और बहुत सारे ऐसे हों जिनके लिए आपको किसी का सहारा लेना पड़ेगा।

दर्द की एक सूरत होती है जो आज कोई और दे रहा होता है और कल कोई और। उस दर्द के सारे पन्नों को खोलकर रख देती है रसीदी टिकट। ये किताब अमृता प्रीतम के अंदर और बाहर घट रही घटनाओं का एक आवरण है जिसे हर किसी को पढना चाहिए। अमृता प्रीतम की एक पंक्ति है जो किताब में सबसे पहले लिखी है। जो हर किसी की जिंदगी के बारे में बताती है।

परछाइयों को पकड़ने वालों! छाती में जलती हुई आग की कोई परछाई नहीं होती।

किताब-रसीदी टिकट

लेखिका- अमृता प्रीतम

प्रकाशक- किताबघर प्रकाशन

कीमत- 200 रुपए।


Monday, 24 August 2020

मां के भीतर छिपी लड़की को टटोलने का प्रयास करती है इब्नेबतूती

मां, जो कभी एक बीस बरस की लड़की थी।

ये पंक्तियां इस किताब के लिए बिल्कुल सटीक बैठती हैं।माँ पर बहुत कुछ लिखा गया है लेकिन हर जगह मां ममता और त्याग के तरह दिखाई गई है। हम बेटे सिर्फ मां को मां के रूप में देखते। जो सिर्फ परिवार के चौबीस घंटे कुछ न कुछ करती रहती है। हम भूल जाते हैं कि वो मां भी कभी एक लड़की थी, उसके भी कुछ सपने थे और हसरतें थीं। जिसको उसने या इस समाज ने कहीं दबा दिए हैं। इब्नेबतूती अपनी कहानी के जरिए हमसे तमाम सवाल पूछती है जो हमें खुद से पूछने चाहिए। ये सवाल उन सारे बेटों के लिए, पतियों के लिए और मांओं के लिए भी हैं। मां के अंदर की लड़की को टटोलने का प्रयास करती है इब्नबतूती।


इब्नेबतूती एक प्यारी-सी कहानी है जिसको पढ़ते हुए आपको बेहद सुकून मिलेगा। युवाओं के प्रेम के अलग-अलग पहलुओं पर अब तक काफी किताबें लिखी जा चुकी हैं। अब मां के प्रेम पर एक किताब आई है। ये किताब सिर्फ एक लव स्टोरी नहीं है। ये मां-बेटे की भी कहानी है। जिसमें मां की ममता और त्याग भी है तो बेटे की मां के प्रति फिक्र भी है। इन्हीं कुछ अलग-अलग पहलुओं को जोड़ती है इब्नेबतूती।

लेखक के बारे में

लेखक।

इब्नेबतूती को लिखा है दिव्य प्रकाश दुबे ने। दिव्य प्रकाश की ये पांचवीं किताब है। इससे पहले उनकी शर्तेे लागू, मसाला चाय, मुसाफिर कैफे और अक्टूबर जंक्शन आ चुकी हैं। सभी को पाठक ने पसंद किया था। इसके अलावा स्टोरीबाजी नाम से और ऑडिबल सुनो ऐप पर भी कहानियां सुनाते हैं। पढ़ाई-लिखाई में उन्होंने बीटेक और एमबीए किया है। आठ साल काॅरपोरेट दुनिया में मार्केटिंग और एक लीडिंग चैनल में कंटेंट एडिटर के रूप में काम करने के बाद अब एक फुलटाइम लेखक हैं। फिलहाल उन्होंने अपना ठिकाना मुंबई को बनाया हुआ है।

कहानी

वैसे तो इब्नेबतूती कहानी है एक मां की जो कभी एक लड़की थी लेकिन कहानी मां-बेटे आसपास चलती है। मां शालू अवस्थी और बेटा राघव अवस्थी का आपस में मां-बेटे से ज्यादा दोस्त वाला रिश्ता है। जो एक-दूसरे से हर बात शेयर करते हैं। राघव मां को ‘अम्मा यार’ बुलाता है और शालू बेटे से बात करते समय ‘अब्बे’ जरूर बोलती हैं। शालू के पति की मौत उस समय हुई जब राघव बहुत छोटा था। शालू एक इंडिपेंडेंट औरत है जो अपने बेटे को अकेले संभालती हैं। राघव पढ़ाई के लिए विदेश जाना चाहता है लेकिन उसे मां की फिक्र रहती है। शालू को भी ये बात परेशान करती है लेकिन वो राघव को बताती नहीं है और यही चिंता उसे बीमार कर देती है।

किताब की सबसे जरूरी बात।

जब सब अस्पताल में होते हैं तब राघव की गर्लफ्रेंड निशा अस्पताल से उसके घर कपड़े लेने आती है। तब उसे एक संदूक मिलता है जिसमें उसे कुछ चिट्ठियां मिलती हैं। वो राघव को इन चिट्ठियों के बारे में बताती है। यहीं से कहानी वर्तमान और अतीत में चलने लगती है। शालू काॅलेज के समय कैसी थी, उसे प्यार कैसे हुआ? और उस प्यार का अंजाम क्या होता है? इन चिट्ठियों को पढ़कर राघव परेशान हो जाता है लेकिन निशा के समझाने पर समझ जाता है। तब वो अमेरिका जाने से पहले उस चिट्ठी वाले कुमार आलोक से मिलना चाहता है। उसकी यही इच्छा इस कहानी को आगे बढ़ाती है और आखिर तक ले जाती है।

किताब के बारे में

160 पेज की किताब आप एक बैठकी में पूरी पढ़ सकते हैं। किताब की भाषा सहज और सरल है। इसमें भी वैसे ही वनलाइनर हैं जो दिव्य प्रकाश दुबे की हर किताब में रहते हैं। ये वनलाइनर पढ़ने में भी बहुत अच्छे लगते हैं और कहानी से कनेक्ट भी करते हैं। कभी-कभी तो ये इतने बेहतरीन होते हैं कि नोट करने का मन करता है। इसके अलावा ये किताब बहुत सारी सामाजिक परंपराओं को तोड़ने की बात करती है। जैसे कि मां-बेटे का सहज संबंध, मां के प्रेम के बारे मंे पता चलने पर भी सहज होना, मां को डेट पर जाने के लिए कहना और मां का इसके के लिए राजी होना।


इन सबके बावजूद लेखक ने सावधानी भी बरती है। दोनों के भी सहजता होने के बावजूद मां-बेटे के संबंध की मर्यादा बनी रखी है। इस किताब को पढ़ते हुए कहीं भी नहीं लगता है कि ऐसा तो कभी नहीं हो सकता। जिनको लगता है मां वो सब नहीं कर सकती जो इसमें बताया गया है तो उनको सोचना चाहिए क्यों नहीं? ऐसे ही तमाम सवाल लेखक मुझसे और आपसे इस कहानी के जरिए पूछता है। इन सारी सहजता और सवालों की वजह से इब्नेबतूती पाठकों के जेहन में लंबे समय तक रहने वाली है।

मैं दिव्य प्रकाश दुबे की पिछली कुछ किताबें पढ़ चुका हूं। इन सबमें इब्नेबतूती सबसे बेहतरीन किताब है। मुझ उन किताबों को पढ़ते हुए मौलिकता कम और फंसाना ज्यादा लगता था लेकिन इब्नेबतूती के साथ ऐसा नहीं हुआ। अगर आपने इस किताब को अब तक नहीं पढ़ा है तो पढ़ लीजिए, अच्छा लगेगा।

पुस्तक- इब्नेबतूती

लेखक- दिव्य प्रकाश दुबे

प्रकाशक- हिन्द युग्म(2020)

मूल्य- 150 रुपए।

Thursday, 20 August 2020

काशी का अस्सीः ये किताब नहीं जिंदादिल और मस्त रहने का पिटारा है

जो मजा बनारस में, न पेरिस में न फारस में।

ये पंक्तियां अमर सी हो गई है। बनारस के बारे में कुछ अच्छा कहना हो तो ये बस यही सुना दो और अगर बहुत कुछ कहना हो तो काशी का अस्सी किताब पढ़ लो। बनारस की संस्कृति, बनारस के घाट, बनारस की राजनीति और बनारस के लोग सब कुछ समझ आ जाता है इस किताब को पढ़कर। बनारस के बारे में जितना कहा जाए उतना कम है लेकिन काशी का अस्सी में जैसा कहा गया है वैसा कोई नहीं कह पाएगा। यहां की मौजमस्ती, फक्कड़पन, भांग और गलियां सब कुछ इस किताब में मिलता है। बनारस को समझने और जानने के लिए काशी का अस्सी बहुत मजेदार किताब है।

ये किताब बनारस के एक मोहल्ला अस्सी के बारे में है। किताब पढ़कर समझ आता है जितना बनारस खूबसूरत है। वैसा ही जिंदादिल है अस्सी। किताब में एक जगह अस्सी के बारे में लिखा है,‘अस्सी बनारस का मुहल्ला नहीं है। अस्सी ‘अष्टाध्यायी’ है और बनारस उसका भाष्य। पिछले तीस-पैंतीस वर्षों से पूंजीवाद के पगलाए अमरीकी यहां आते हैं और चाहते हैं कि दुनिया इसका टीका हो जाए। ये किताब अस्सी के इर्द-गिर्द चलती रहती है और उसी बहाने लेखक बहुत सारे जरूरी मसलों पर राय रख देते हैं। बनारस किसी न देखा हो न देखा हो इस किताब को पढ़कर काशी के अस्सी को देखने जरूर मन कर जाता है।

लेखक के बारे में

इस बेहतरीन किताब के लेखक हैं काशीनाथ सिंह। उनका जन्म 1 जनवरी 1937 को बनारस जिले के जीयनपुर गांव में हुआ। शुरूआती पढ़ाई के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम.ए.और पीएचडी की। उसके बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ही हिन्दी भाषा का ऐतहासिक व्याकरण कार्यालय में शोध-सहायक के तौर पर काम किया। बाद में वहीं हिन्दी विभाग मे प्राध्यापक हुए फिर प्रोफेसर और अध्यक्ष पद पर रहने के बाद रिटायर हुए। उन्होंने अपनी पहली कहानी संकट लिखी। बाद में तो वो कहानी ही कहानी लिखते रहे। काशी का अस्सी उनकी सबसे सफलतम रचना है। उनको 2011 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी नवाजा गया। उनकी एक बड़ी पहचान ये भी है कि ये वे हिन्दी के बहुत बड़े आलोचक डाॅ. नामवर सिंह के छोटे भाई हैं।

किताब के बारे में 

काशीनाश सिंह की किताब काशी का अस्सी में पांच कहानियां हैं जो अस्सी के इर्द-गिर्द घूमती-रहती हैं। हर कहानी में अलग-अलग किरदार तो हैं लेकिन कुछ किरदार ऐसे हैं जो सभी में हैं। डा. गया सिंह, तन्नी गुरू और राम राय जैसे पात्र ही तो इस किताब को मजेदार बनाते हैं। किताब में जो बातें होती हैं तो उनको पढ़कर लगता है कि हमें भी इसमें होना चाहिए। चाय से लेकर, पान और भांग पर गरमा-गरम बहस होती है। लेखक ने इस किताब में उस समय की राजनीति पर भी अस्सी के मुहाने से बताने की कोशिश की है। बीजेपी, मुलायम और मायावती सबको गरियाते हुए दिखाई देती है ये किताब। सभी पार्टी के नेता एक ही टपरी के नीचे चाय पीते हैं और अस्सी की राजनीति पर बात करते हैं। तब आपको लगेगा कि असली राजनीति यहीं अस्सी की है, बाकी पूरी दुनिया छोटी है।

किताब में सिर्फ राजनीति पर बात नहीं होती है। पूंजीवाद कैसे लोगों और अस्सी को बदल रहा है। इस पर भी किताब कटाक्ष करती है। किताब में हर बड़े मुद्दे पर लेखक ने कटाक्ष किया है चाहे फिर वो काशी की संस्कृति हो या फिर टीवी जैसे डिब्बे का आना। सभी कहानी व्यंग्य शैली में हैं जिनको पढ़ते हुए चेहरे पर मुस्कान बनी ही रहती है। इस व्यंग्य शैली में ही सारी कहानियों को रचा गया है। चाहे फिर वो काशी में टूरिस्टों वाली कहानी हो या अस्सी के बदलते स्वरूप की हो। हर कहानी आपको गुदगुदाएगी जरूर। हालांकि आखिर में कुछ-कुछ सोचने पर भी मजबूर करती है।

किताब में गालियों को वैसा ही कहा गया है जैसा बातचीत में लोग इस्तेमाल करते हैं। जिनको ये पढ़कर बुरा लगे उनके लिए लेखक ने पहले ही कह दिया था, मित्रों, यह संस्मरण वयस्कों के लिए है। बच्चों और बूढों के लिए नहीं और उनके लिए भी नहीं जो ये नहीं जानते कि अस्सी और भाषा के बीच ननद-भौजाई और साली-बहनोई का रिश्ता है। वैसे भी किताब में गाली होते हुए भी लगता है ही नहीं। हर-हर महादेव और गाली तो काशी की संस्कृति है ये किताब के लेखक कहते हैं। किताब की सबसे खास बात ये भी है कि इसके कुछ पात्र और कहानी पूरी तरह से सही है। कुछ कहानियों को लेखक ने बुना है फिर भी कहीं से पता नहीं चलता कि कौन-सी कहानी वास्तविक है और कौन-सी काल्पनिक। काशी का अस्सी किताब तो वैसे ही पाठक को मस्त कर देती है जिसके इसके पात्र है।

किताब का एक अंश

बहुत कुछ बदल गया है गुरूजी! नेहरू, लोहिया, जयप्रकाश नारायण के लिए भीड़ नहीं जुटानी पड़ती थी। भीड़ अपने आप आती थी। अब नेता भीड़ अपने साथ लेकर आता है, कारों में, जीपों में, बसों में, टैक्टर में।

काशी का अस्सी की सबसे बड़ी खूबी है लिखने की शैली। व्यंग्य की शैली हो जिस तरह से काशीनाथ सिंह ने इस्तेमाल किया है। उसने ही इस किताब को एक बड़े मुकाम तक पहंुचाया है। इसके अलावा भाषा बहुत सहज और सरल है जो हर किसी की समझ में आती है। किताब शुरू से लेकर अंत तक कहीं बोर नहीं होने देती है। काशी का अस्सी जिंदादिल होने के लिए आपको जरूर पढ़नी चाहिए। वैसे भी 2002 में आई ये किताब आज भी पढ़ी जा रही है। मैं जो किताब पढ़ रहा हूं वो काशी का अस्सी का 13वां संस्करण है। अगर आपने इस किताब को नहीं पढ़ा है तो जरूर पढ़ें।

किताब- काशी का अस्सी 

लेखक- काशीनाथ सिंह

प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन 

कीमत- 195 रुपए।

Tuesday, 4 August 2020

दूर दुर्गम दुरुस्तः पूर्वोत्तर के लिए बनी धारणाओं को तोड़ने की कोशिश करती है ये किताब

पूर्वोत्तर को लेकर उत्तर भारत के लोगों में एक भ्रम बना हुआ है। हम हिमाचल और उत्तराखंड तो बड़े आराम से चले जाते हैं लेकिन पूर्वोत्तर जाने के लिए कई बार सोचते हैं। पूर्वोत्तर के लोगों के साथ दिल्ली में खराब व्यवहार किया जाता है। ऐसे में ये भी डर बना रहता है कि हमारे साथ भी वहां भी वैसा भी हो सकता है। आप सोचते हैं कि पूर्वोत्तर खतरे से भरी जगह है। अगर आपको नहीं पता कि वहां के लोग कैसे हैं तो इन सवालों के जवाब और धारणाओं को तोड़ती है, दूर दुर्गम दुरुस्त।


दूर दुर्गम दुरुस्त पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के कुछ जगहों का यात्रा वृतांत है। ये इतनी बखूबी से लिखा गया है कि ऐसा लगता है हम भी यात्रा कर रहे हैं। यात्रा करना भी सुकून देता है और उसके बारे में पढ़ने पर भी। वैसा ही सुकून देती है ये किताब। मुझे ये किताब बहुत अच्छी लगी। इतनी अच्छी कि मैं इसे एक बार मे पढ़कर खत्म कर सकता था लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। किताब को आराम-आराम से पढ़ा ताकि उसका आनंद कुछ ज्यादा देर तक ले सकूं। जो भी इस किताब को पढ़ेगा उसके साथ भी ऐसा जरूर होगा। 

लेखक के बारे में


इस किताब को लिखा है, उमेश पंत ने। उमेश पंत उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के छोटे-से कस्बे गंगोलीहाट के रहने वाले हैं। अभी वो दिल्ली में रहते हैं। उमेश ने दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के एमआरसी से मास कम्यूनिकेशन में मास्टर्स किया है। करियर की शुरूआत मुंबई में बालाजी टेलीफिल्म्स में बतौर एसोशिएट राइटर की। बाद में नीलेश मिसरा के शो यादों के एडिट बाॅक्स के लिए कहानियां भी लिखीं। ग्रामीण अखबार गांव कनेक्शन में पत्रकार भी रहे। इसके अलावा हिन्दी के तमाम अखबारों में यात्राओं और अन्य विषयों पर लेख लिखते रहते हैं। यात्राकार नाम से खुद का ब्लाॅग चलाते हैं। दूर दुर्गम दुरुस्त उमेश पंत की दूसरी किताब है। उनकी पहली किताब है, इनरलाइन पास। जिसको पाठकों ने काफी पसंद किया था। 

किताब के बारे में


दूर दुर्गम दुरुस्त मेघालय, अरूणाचल प्रदेश और असम की कुछ जगहों का यात्रा वृतांत है। इस यात्रा को लेखक ने दो अलग-अलग समय पर किया। लेखक ने लिखा तो अपनी यात्रा के बारे में है लेकिन जिस तरह लिखा है वो काबिले तारीफ है। शब्दों की ताकत लेखक बहुत अच्छे से समझता है। उन्होंने इसे बिल्कुल कहानी की तरह सुनाया है। पढ़ते हुए लगता है कि हम कोई सिनेमा देख रहे हैं। बात फिर वो हार्निबल फेस्टिवल की हो या पानी में तैरते हुए आइलैंड की। पढ़ते हुए किताब आपको अपना बना लेगी।

किताब की शुरूआत होती है ट्रेन यात्रा से। ट्रेन यात्रा में जो कुछ भी होता है लेखक बताते चले जाते हैं। ट्रेन में जो वो देखते हैं, जो वो करते हैं, यहां तक कि लोगों की बातचीत भी। अक्सर ऐसा होता है कि लेखक अपनी किताब गालियां नहीं रखना चाहता। मगर लेखक ने ऐसा बड़ी बेबाकी से किया है। जिसके लिए उनकी तारीफ भी होनी चाहिए। लेखक शहर, गांव, छोटी-बड़ी जगहों पर घूमता ही रहता है। इस किताब को पढ़कर कई बार लगता है कि पूर्वोत्तर भी जाना चाहिए। किताब की अच्छी बात ये भी है कि लेखक जहां जाता है उस जगह के बारे में अच्छे से बताते हैं, वहां का इतिहास, वहां को भौगोलिकता के बारे में जरूर बताते हैं। जो किताब को और रोचक बनाता है।


किताब सिर्फ जगहों के बारे में बात नहीं करती है। वहां के लोगों के बारे में, परंपराओं के बारे में भी बात करती है। किताब को पढ़कर समझ आता है कि पूर्वोत्तर के लिए हमारे मन में गलत धारणा बनी हुई है। लेखक बताते हैं कि पूर्वोत्तर के लोग भी उतने ही अच्छे हैं जितना कि यहां की जगहें। कई मामलों में पूर्वोत्तर बाकी राज्यों से बेहतर है। यहां महिलाएं रात में आराम से घूमती हैं जबकि बाकी जगहों पर ऐसा करना लड़कियों और महिलाओं के लिए खतरा माना जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यहां के लोग अच्छे है। इसके अलावा किताब में कई जगह लेखक स्वच्छता का जिक्र करते हैं। तभी तो एशिया का स्वच्छ गांव पूर्वोत्तर में ही है।

ये किताब उन लोगों के लिए दस्तावेज की तरह है जो पूर्वोत्तर जाना चाहते हैं। किताब में बहुत-सी ऐसी जगहें हैं जिनके बारे में आपने न सुना हो तो इस किताब को पढ़ने के बाद आप वहां जा सकते हैं। पूर्वोत्तर में कितना खतरा है ये किताब उसका भी जिक्र करती है। इसके अलावा लेखक बीच-बीच में कुछ ऐसी चीजें बताते हैं जिनको नोट करने का मन करता है। यात्रा, असफला, जीवन, अजनबी और डर जैसे विषयों पर वो ऐसी बातें बताते हैं। जिनको पढ़कर किताब में रोचकता बनी रहती है। इस किताब को पढ़ने के बाद खुशी होती है कि कुछ बेहतरीन पढ़ा है। उससे भी बढ़कर ये ऐसी जगह के बारे में पता चला, जहां के बारे में हमें बहुत कम पता है।

अदना-सा अंश


इन तमाम ख्यालों के बाद जैसे दिमाग में एक अजीब-सी हलचल हुई। एक सवाल कौंधा कि आखिर क्यों हूं मैं इस यात्रा पर। इस तरह से अकेले निकल आने का क्या मतलब है? एक अजीब किस्म का अकेलापन महसूस होने लगा मुझे। यात्राओं के दौरान ऐसा शायद ही पहले कभी हुआ हो मेरे साथ। एक असन्तोष सा था ये, जो न जाने कहां से उपजा था? अंग्रेजी में लंबी यात्राओं के बीच जेहन आने वाली इन भावनाओं के लिए एक टर्म है- मिड टिप क्राइसिस।

खूबी


किताब की सबसे बड़ी खूबी है कि पूर्वोत्तर। पूर्वोत्तर पर बहुत कम किताबें आई हैं ऐसे में ये किताब बहुत अहम हो जाती है। इसके अलावा भाषा बेहद सरल और सहज है। लिखने की शैली भी लाजवाब है, बिल्कुल कहानी की तरह। 220 पन्ने की ये किताब पढ़ते हुए एक बार भी बोर नहीं होंगे। किताब में एक जगह पर कई पेजों पर सिर्फ फोटो हैं। जिनको देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है पूर्वोत्तर कितना खूबसूरत है। इसके अलावा किताब पूर्वोत्तर का एक दस्तावेज जैसा ही है। जो पूर्वाेत्तर जाना चाहता है, जानना चाहते है ये किताब उनके लिए ही है। 


इस किताब के बाद अब पूर्वोत्तर अनजाना नहीं रहा। अगर आप घुमक्कड़ हैं या यात्रा वृतांत पढ़ना पसंद करते हैं तब तो आपको दूर दुर्गम दुरुस्त पसंद आएगी ही। अगर आपको ऐसा करना पसंद नहीं है तब भी आपको ये किताब पढ़नी चाहिए क्योंकि पूर्वोत्तर के बारे में हमारी जो बेवजह और बेकार धारणाएं हैं उनको तोड़ने का काम करती है ये किताब। पूर्वोत्तर असल में कैसा उसकी ही किताब है दूर दुर्गम दुरस्त। 

किताब-दूर दुर्गम दुरुस्त
लेखक- उमेश पंत
प्रकाशन- सार्थक(राजकमल प्रकाशन का उपक्रम)
लागत- 250 रुपए।

Friday, 24 July 2020

एवरेस्ट की बेटीः उस महिला की कहानी जिसने लाचारी नहीं, साहस चुना

सबसे मुश्किल क्या है? मुझे अब तक लगता था कि दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर पहुंचना सबसे कठिन है। मगर अब लगता है सबसे मुश्किल है खुद को बचाए रखना। पता नहीं कौन कब आपकी जिंदगी को ही पलटकर रख दे? लेकिन तमाम मुश्किलों के बावजूद जिंदगी खत्म नहीं होती। सबके हिस्से में कुछ न कुछ आता है बस जरूरत है तो साहस की। उसी साहस की मूरत हैं अरुणिमा सिन्हा। उसी साहस को अरुणिमा सिन्हा ने एक किताब के रूप में रखा है। किताब का नाम है, एवरेस्ट की बेटी।


आज अरुणिमा सिन्हा से कौन वाकिफ नहीं है। वो दुनिया की पहली दिव्यांग महिला हैं जो दुनिया भर की सात सबसे ऊंची चोटियों को फतह कर चुकी है। मगर मैंने जो किताब पढ़ी है वो कहानी उस अरुणिमा की है जो बस नौकरी चाहती थी और उसे मिला कुछ और। एक हादसे ने अरूणिमा की जिंदगी बदल दी। इस किताब में अरूणिमा के हादसे से लेकर माउंट एवरेस्ट के फतह करने तक की कहानी है। इस किताब को पढ़कर हर किसी के अंदर कुछ कर गुजरने का साहस जरूर आएगा।

कहानी


किताब के शीर्षक से लग सकता है कि ये किसी महिला की माउंट एवरेस्ट की कहानी या यात्रा वृतांत है। मगर ये कहानी है एक आम महिला की जो एक नौकरी के लिए एक रेल यात्रा करती है। कुछ चोर उसके गले में पड़ी सोने की चेन छीनना चाहते हैं। मगर जब वो लड़की इसके लिए लड़ने लगती है तो उसे ट्रेन से फेंक दिया जाता है। उसके पैर के ऊपर से ट्रेन गुजर जाती है। सर्दी की ठिठुरन भरी रात में वो मदद के लिए चिल्लाती है मगर उसकी आवाज कोई नहीं सुन पाता। अगली सुबह उसे कुछ लोग देखते हैं इसके बाद उसे अस्पताल में भर्ती किया जाता है। जहां उसे अपना एक पैर खोना पड़ता है। उस पैर की जगह उसे कृत्रिम पैर मिलता है। जब सबको लगता है वो लाचारी भरी जिंदगी जिएगी। तब वो एक निश्चय करती है। दुनिया की सबसे कठिन और ऊंची चोटी को फतह करने की। सबको लगता है वो पागल है। मगर वो लड़की इसके लिए बछेन्द्री पाल से मिलती है, ट्रेनिंग लेती है और फिर उसी कृत्रिम पैर से माउंट एवरेस्ट फतह करती है। मगर ये कहानी बस इतनी-सी है? नहीं।

किताब के दो पेज।

अरूणिमा सिन्हा की ये किताब सिर्फ ये नहीं बताती कि उनके साथ हादसा कैसे हुआ? वो माउंट एवरेस्ट तक कितनी मुश्किलों से पहुंची। इन सबके अलावा माउंट एवरेस्ट की बेटी किताब बताती है इस समाज की दरिंदगी और स्वार्थी रूप। जब ट्रेन में उसके साथ छीना-छपटी की जा रही थी वो डिब्बा लोगों से भरा हुआ था। मगर कोई भी अरूणिमा सिन्हा को बचाने के लिए नहीं आया। ये किताब बताती है कि जब आप सबसे बुरे दर्द से गुजर रहे हों। तब भी अपने को बचाने और जिंदा रखने की कोशिश करती रहनी चाहिए। किताब बार-बार पुरूष समाज पर चोट करती है। वो बताती हैं कि अब भी इस देश में लड़का और लड़की को बराबर नहीं देखा जाता। अरूणिमा सिन्हा किताब में एक जगह बताती है, प्राथमिक कक्षाओं की पुस्तकें ऐसे वर्णनों से पटी पड़ी हैं कि राम पाठशाला जाता है और लक्ष्मी पाठशाला में काम करती है। ऐसी ही बहुत सारी बातें इस समाज के बारे में, अपने बारे में अरूणिमा सिन्हा किताब में बताती हैं।

किताब का एक हिस्सा हादसे से लेकर सही होने तक है। जिसमे अस्पताल, मीडिया और राजनेता भी हैं। अच्छी बात ये हैं कि ये तीनों अरूणिमा सिन्हा के लिए अच्छे ही साबित हुए हैं। एक हिस्सा अरूणिमा सिन्हा का माउंट एवरेस्ट तक चढ़ने का है। जिसमें उनकी ट्रेनिंग के बारे में भी है। जो उन्होंने उत्तराखंड के उत्तरकाशी में ली थी। उनको उस समय कैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था? इसके बाद माउंट एवरेस्ट कैसे चढ़ीं और सबसे मुश्किल कहां पर आई? ये सब किताब में है। एक प्रकार से ये किताब यात्रा वृतांत भी है जो माउंट एवरेस्ट के बारे में अच्छी जानकारी देता है। अरूणिमा सिन्हा के साहस की कहानी है जो हर किसी को पढ़नी चाहिए।

किताब की खूबी


किताब कई मायनों में बहुत अच्छी है। पहले तो ये एक ऐसे महिला के बारे में है जो सबके लिए एक प्रेरणा हैं। उसके बाद ये लिखी इस तरह गई है कि रोचकता बनी रहती है। 150 पेज की ये किताब कहीं भी बोरियत नहीं करती। अगर पढ़ते-पढ़ते रूक भी जाते हैं तो दिमाग में वही सब चलता रहता है जो वापस किताब की ओर खींच ले जाता है। भाषा बेहद सरल और सहज है। वैसे ये किताब इंग्लिश में बोर्न अगेन ऑन द् माउंटैन के नाम से है। मगर मैंने इसको हिन्दी में पढ़ा है। आप अपनी सहूलियत के हिसाब से इसे पढ़ सकते हैं।


एवरेस्ट की बेटी किताब एक साहसी महिला की कहानी है। इसे पढ़ें ताकि आप उस हादसे के बारे में जान सकें। आप जान सकें कि एक हादसा किसी की जिंदगी को किस प्रकार बदल सकता है। आप इस किताब को पढ़ें ताकि आपको पता चल सके कि हालात चाहे जैसे हों। अगर आपके पास एक लक्ष्य है तो वो लक्ष्य आपको लाचार नहीं होने देगा। वैसे तो अरूणिमा सिन्हा ने किताब में बहुत कुछ कहा है मगर मुझे एक बात बहुत पसंद है।

यदि आपको रोना है तो ऐसा आप अकेले में करें। दुनिया एक विजेता को देखना चाहती है। हारे और टूटे लोगों की हंसी उड़ाई जाती है।

किताब- एवरेस्ट की बेटी
लेखक- अरूणिमा सिन्हा
प्रकाशन- प्रभात पैपरबैक्स
कीमत- 150 रुपए।

Tuesday, 21 July 2020

सिर्फ जौन एलिया की शेरो शायरी के लिए नहीं उनको जानने के लिए पढें ये किताब

जो गुजारी न जा सकी हमसे, हमने वो जिंदगी गुजारी है।

इन रूहानी पंक्तियों को लिखने वाले का नाम है जौन एलिया। आज इस नाम से कौन वाकिफ नहीं है?लोग इस शायर के दीवाने हैं। सोशल मीडिया पर इस शख्स की वीडियो लोग बार-बार देखते हैं। कभी ये शायर शायरी पढ़ते-पढ़ते रोने लगता है तो कभी शायरी सुनने वाले रोने लगते हैं। हर कोई जौन को उनकी शायरी से जानता है, उनकी गजलों और नज्मों से जानता है। मगर उनकी जिंदगी कैसी थी? बिल्कुल साधारण या कठिनाईयों से भरी। वे असली जिंदगी में कैसे थे? खुशमिजाज या फिर शायरी ही उनका अक्स है। जौन एलिया के इन्हीं सारे पहलुओं पर एक किताब आई है, जौन एलिया एक अजब गजब शायर।


नौजवान हों या बुजुर्ग जौन एलिया को सब पसंद करते हैं। उनका सोचने का और कहने का ढंग ही कुछ अलग है। लेखक ने उनकी जिंदगी के उन पहलुओं के बारे में बताया है जो शायद आपको और मुझे नहीं पता। ऐसा भी नहीं कि इसमें सिर्फ जौन एलिया के किस्से और जिंदगी के पहलू ही हैं। इन सबके अलावा किताब में जौन की लिखी शायरी, नज्में, गजलें और कायनात भी हैं। अगर आपको जौन एलिया के बारे में जानना है उनकी चुनिंदा शायरी, नज्में और गजलों को पढ़ना है तो ये किताब आपको पढ़ लेनी चाहिए।

लेखक के बारे में

मुन्तजिर फिरोजाबादी 

इस किताब को लिखा है मुन्तजिर फिरोजाबादी ने। उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद से ताल्लुक रखने वाले मुन्तजिर फिरोजाबादी का असली नाम अनंत भारद्वाज है। उनका परिवार चाहता है कि प्रशासनिक सेवाओं में जाएं लेकिन उनका दिलो-दिमाग साहित्य के अलावा कहीं और लगता ही नहीं है। मुन्तजिर लवली यूनिवर्सिटी जालंधर में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। खुद शायरी करते हैं और कवि-सम्मेलनों में भी शिरकत करते हैं। जौन साहब को बहुत मानते हैं मुन्तजिर। उनकी सुबह जौन साहब के शेर से होती है। अक्सर जौन उनकी तबियत और शायरी दोनों में आ जाते हैं। इनसे अगर आप मिलना चाहते हैं तो सबसे अच्छी जगह है फेसबुक।

किताब के बारे में


जौन एलिया एक अजब गजब शायर किताब जौन एलिया की जिंदगी पर है। जौन एलिया भारत में उत्तर प्रदेश के अमरोहा में पैदा हुए। 1947 में भारत आजाद तो हुआ लेकिन उसके दो हिस्से हुए। जौन एलिया का पूरा परिवार पाकिस्तान चला गया लेकिन जौन नहीं गए। 1956 तक जौन अमरोहा मे रहे। 1956 में जौन को अपने फैमिली के पास कराची जाना पड़ा। इस किताब में जौन के एक पहले इश्क के बारे में, उनकी पहली शायरी के बारे में, उनकी पहली किताब के बारे में बहुत सारे किस्से दिए गए हैं। वो अमरोहा में क्या किया करते थे? कराची जाने के बाद भी जौन एलिया अमरोहा को नहीं भूल पाए। वो अमरोहा में बहने वाली बान नदी को कितना याद करते थे?

किताब में बहुत सारे शायर और लोग जौन एलिया के बारे में, उनके किस्से बताते हैं। वो आस्तिक थे या नहीं? इस बारे में भी किताब में बताया गया है। जौन एलिया को समाज के दायरे में रहना पसंद नहीं था? इस बारे में एक जबरदस्त किस्सा है। उनकी बीमारी, परेशानी सबके बारे में बहुत सारे किस्से दिए गए हैं। जो आप पढ़ेंगे तो समझ आएगा कि जौन एलिया क्या हैं? जो अपने खून थूकने पर शायरी लिख दे वो कुछ भी कर सकता है किताब के किस्सों को पढ़ने के बाद समझ आता है कि जौन एलिया जैसा कोई नहीं। उन्होंने जो जिया वही लिखा। कहते हैं शायर जो कहता है वो शायद उसकी जिंदगी में कुछ होता नहीं है। मगर जौन एलिया की शायरी में ऐसा नहीं है। उनके बारे में कहा जाता है कि वे आज जिंदा होते तो उनका कत्ल कर दिया जाता।


किस्से तो जौन एलिया की जिंदगी के हैं जिनको पढ़ने पर जौन एलिया समझमें आते हैं। मगर पूरी किताब में सिर्फ यही नहीं है। इसमें कुछ फर्नूद हैं। मैंने जब ये नाम पढ़ा तो मुझे नहीं समझ आया क्या है? गूगल किया तो वहां भी कुछ नहीं मिला। इसमें कुछ विषयों पर जौन एलिया के विचार थे तो मुझे लग रहा है कि फर्नूद का मतलब राय है। इसमें मुशायरा, चंद सवाल, रोग, जुर्म, नफरत और नकल जैसे विषयों पर जौन एलिया की राय है। जिसे पढ़ने के बाद समझ आएगा कि जौन क्या सोचते थे? उनके दिमाग में क्या चलता था? इन सबको पढ़ने के बाद तो आप जौन को सिर्फ उनके शायरी के लिए पसंद नहीं करेंग। इसके अलावा आगे तो आपको अपनी और जौर एलिया की फेवरेट चीज मिलेंगी, गजलें और नज्में।

किताब की खूबी


किताब की सबसे बड़ी खूबी तो यही है कि वो जौन एलिया पर लिखी गई है। उसके बाद किस्से बेहतरीन हैं। चाहे वो 8 साल की उम्र में पहले इश्क का हो या दुबई एयरपोर्ट पर हाथ में लहराते शराब की बोतल का हो। इसके अलावा भाषा सरल और सहज तो है लेकिन थोड़ी कठिन भी है। इसमें उर्दू के शब्द बहुत सारे हैं। कई तो ऐसे शब्द हैं जिनका मतलब भी नहीं पता। एक प्रकार से ये अच्छा ही है क्योंकि इससे आपकी उर्दू अच्छी हो सकती है। जिनको उर्दू आती है उनको इसकी भाषा बिल्कुल सरल लगेगी।


फिरोज मुन्तजिर की ये किताब पढ़ी जाए जौन एलिया के बारे में जानने के लिए। इस किताब को पढ़ना चाहिए शायरी को जानने के लिए। इस किताब को पढ़ना चाहिए जौन एलिया की नज्मों और गजलों के लिए। इस किताब को तो आपकी शेल्फ में होना चाहिए। जब कभी परेशान हों, मूड खराब हो तो इस किताब को उठाइए और पढ़ना शुरू कीजिए जौन की गजलें। यकीन मानिए सुकून मिलेगा।

अब नहीं कोई बात खतरे की, अब सभी को सभी से खतरा है।

किताब- जौन एलिया एक अजब गजब शायर
लेखक- मुन्तजिर फिरोजाबादी
प्रकाशन- हिन्दी युग्म
कीमत- 150 रुपए।

Tuesday, 7 July 2020

अंदर तक छू जाती है ‘भोपाल सहर...बस सुबह तक‘ की कहानी

बारिश के बाद का सूरज कितना और किस हद तक चुभ सकता है, इसको सिर्फ वो ही महसूस कर सकता है। जो भीगकर सूरज की तल्खी के मुकाबिल बिना छत के खड़ा हो।

ये कुछ लाइनें हैं एक किताब की। किताब जिसकी कहानी बहुत जोरदार है। वो अच्छी है क्योंकि उस कहानी को लिखा बेहतरीन तरीके से है। लेखक ने किताब में एक हादसे की जमीन पर एक मार्मिक कहानी बुनी है। जब उस कहानी को पढ़ते हैं तो उस कहानी में हम भी बंध जाते हैं और सोचने लगते हैं कि आगे क्या होगा? भोपाल सहर...बस सुबह तक किताब बहुत हद तक जिंदगी के फलसफे को बताती है। जिंदगी जो कई पहलुओं में होती है, सपने, खुशी, चाहत और मजबूरी। ये सब आपको इस किताब में बहुत हद तक गहरे तक ले जाते हैं।


लेखक के बारे में 


लेखक।
इस किताब को लिखा है आजाद ने। सुधीर लेखक के अलावा एक फिल्मकार, गीतकार और अच्छे वक्ता हैं। मध्य प्रदेश के अमरबाड़ा के रहने वाले सुधीर बुनियादी तौर पर एक संजीदा शायर हैं। जिंदगी के पहलुओं को बेहतरीन तरीके से पन्नों पर उतारते हैं सुधीर। इस किताब को लोगों ने पसंद किया है। ये किताब अंग्रेजी में भी अनुवादित होकर छप चुकी है। हाल ही में उनकी शाॅर्ट फिल्म ‘द लास्ट वुड’ की खूब प्रशंसा हुई। फिलहाल आजाद अपनी अगली किताब लिव-इन को लिखने में व्यस्त हैं।

कहानी


तो कहानी शुरू होती है पुराने भोपाल के आखिरी घर से। जहां एक औरत अपनी तीन लड़कियों के साथ रहती है। आबिदा जिसके शौहर की हादसे में मौत हो गई थी। उसकी तीन बेटियां नसरीन, शमीन और सहर को हालात ने वक्त से पहले बड़ा कर दिया था। आबिदा घर से ही सिलाई का काम करती थी और उसी से उनकी रोजी-रोटी चलती थी। मगर ये काम उनका पेट सही से नहीं भर पाता था। हर रोज उनको किसी न किसी मुसीबत का सामना करना पड़ता था।

गरीबी के इस हालात तब बदले जब नसरीन की शादी हो गई। मगर खुशी ज्यादा टिक नहीं पाई पहले नसरीन की मौत फिर शमीन की और सहर को इन हालातों ने कुछ और ही बना दिया। सहर किसी और से प्यार करती थी लेकिन उसे नसरीन के शौहर से निकाह करना पड़ता है। जब फिरोज के करीब आना चाहती है तो फिरोज दूर चला जाता है। आखिर में सहर की मुलाकात उसके प्यार अमन से होती है। अमन उसे दिल्ली ले जाना चाहता है और सहर मान भी जाती है। अब सहर दिल्ली जा पाती है या नहीं? अमन भोपाल आता है या नहीं। अगर आता है तो फिर क्या होता है? इन सबके बारे में जानने के लिए आपको भोपाल सहर...बस सुबह तक किताब को पढ़ना पड़ेगा।

किताब के बारे में


किताब में मार्मिकता कूट-कूट के भरी पड़ी है। जब लगता है सब अच्छा हो रहा है तभी कुछ ऐसा होता कि दुख के बादल छा जाते। किताब में सिर्फ हादसे नहीं है, लेखक ने कुछ सच्ची घटनाओं को भी डाला है। जैसे कि
ट्रेन में फिरोज को हिन्दु-मुसलमान दंगे में मार दिया जाना। ये 1984 के दंगे की थोड़ी-सी झलक दिखाती है। इसके अलावा भोपाल त्रासदी को इस किताब का क्लाइमेक्स है। जब आप क्लाइमेक्स तक आएंगे तो मार्मिकता के सागर में डूब जाएंगे।



किताब में सिर्फ कहानी नहीं चल रही होती है। बीच-बीच में लेखक कुछ ऐसी बातें लिखते हैं जो नोट करने का मन करता है। जो कभी अकेलेपन पर होती है तो कभी खुशी और दुख पर। लेखक की ये बातें किताब को और रोचक बनाती है। किताब में उन चार लोगों के अलावा भी कुछ किरदार हैं जो बाद में आपस में कहीं न कहीं जुड़ जाते हैं। चाहे वो मुख्तार हो, अतहर हो, अमन और विमला सभी किरदार एक-दूसरे से कहीं न कहीं जुड़े हुए है। एक किताब सिर्फ एक कहानी नहीं कहती उस जगह के बारे में बताती है। लेखक ने बखूबी से भोपाल के बारे में काफी कुछ कहा है। चाहे वो ईद में भोपाल का माहौल हो या फिर शाम को झील किनारे का नजारा। ये सब पढ़कर कुछ भोपाल के बारे में कल्पना की जा सकती है।

कहानी शुरू तो होती है आबिदा के परिवार से लेकिन अंत होता है सभी किरदारों के एक हो जाने से। ये कहानी अंदर तक छू जाती है। कहानी में आगे बढ़ने से पहले दिमाग ही कहानी बनने लगता है। लेखक ने इतने अच्छे से लिखा है कि ये अंदर तक असर कर जाती है। अगर आप एक अच्छी कहानी को पढ़ना चाहते हैं तो सुधीर आजाद की भोपाल सहर...बस सुबह तक जरूर पढ़िए।

किताब की खूबी


इस किताब की सबसे बड़ी खूबी इसकी कहानी है और इसे जिस तरह से लिखा है। वो इसको असरदार बनाता है। भाषा सरल है लेकिन शब्दों में उर्दू बहुत है। उर्दू इतनी ज्यादा की हर पंक्ति में उर्दू का कोई न कोई शब्द जरूर मिल जाएगा। आपको उनको मानी नहीं मालूम होंगे लेकिन पढ़ने पर अंदाजा लग जाता है कि क्या कहा जा रहा है? आप इन उर्दू के शब्दों को नोट भी कर सकते हैं जिससे इनके बारे में जाना जा सके। आपको ये किताब पढ़नी चाहिए एक अच्छी कहानी के लिए। मार्मिकता को शब्दों में, कहानी में कैसे पिरोया जाता है आपको ये किताब पढ़कर ही समझ आएगा। 


किताब से कुछ अंश 


कुछ ही देर में टेन के रुकने से लोगों की सांसें रूक गईं। दहशतगर बोगियों में तलवार लेकर चढ़े और अपने मजहब के नारे लगाते हुए लोगों को लहूलुहान करने लगे। वे बिना-देखे जाने लोगों पर तलवारें चलाने लगे। चादर ओढ़कर सो रहे मुख्तार चाचा समेत शर्मा दंपत्ति का कत्ल कर दिया गया। फिरोज ने कुछ मुकाबला किया पर कब तक करता।

भोपाल...सहर से सुबह तक 151 पेजों की एक पतली-सी किताब है जिसे आप एक बैठक में खत्म कर सकते हैं। कहानी में इतनी रोचकता है कि ये आपको उठने ही नहीं देगी। ये कहानी आपको अंदर तक छू जाती है। जीवन के किल्लतों से लेकर खुशियों के सारे पलों को किताब बखूबी दर्ज करता है। चाहे वो किसी का जिंदगी से जाना हो या प्रेम से बिछड़ना हो। जिंदगी के इन फलसफों को बताती ये किताब वाकई अच्छी किताब है।

पुस्तक- भोपाल सहर...बस सुबह तक
लेखक- सुधीर आजाद
प्रकाशन- सर्वत्र
कीमत- 150 रुपए।

Friday, 19 June 2020

गर फिरदौसः ये फिरदौस की कहानी है! फिरदौस यानी कि जन्नत, फिरदौस मतलब कश्मीर

कश्मीर को जन्नत कहा गया है, जिन्होंने देखा उन्होंने माना भी। इसके बावजूद वहां हिंसा का दौर चलता रहता है। न्यूज चैनल और अखबार हमें बता देते हैं कि कश्मीर में क्या हो रहा है? हम हमेशा एक पक्ष की कहानी सुनते आए हैं। अब एक किताब आई गर-फिरदौस। इसमें उस कश्मीर की कहानी है जिसे अभी तक किसी ने नहीं कहा। ये किताब बताती है कि कश्मीर जन्नत है लेकिन वहां के लोग उससे दूर हैं।


ऐसा भी नहीं है गर-फिरदौस में किसी का पक्ष रखा गया है, किसी की बात कही गई है। वो तो बस एक कहानी है जो अपना काम कर रही है। ये कहानी कश्मीरियत के होने की भी है। कुछ सालों में कश्मीर में बहुत कुछ घटा है। लेखिका ने उन्हीं घटनाओं को कहानी के रूप में बताया है। इस किताब को पढ़ने के बाद आप भी कश्मीर के गम में थोड़ा डूबेंगे और सोचने पर मजबूर हो जाएंगे।

लेखिका के बारे में

लेखिका प्रदीपिका सारस्वत।

इस किताब की लेखिका हैं प्रदीपिका सारस्वत। प्रदीपिका पेशे से पत्रकार हैं। मीडिया नौकरी छोड़कर अब वे फ्रीलांस राइटर बन गई हैं। कश्मीर को उन्होंने बहुत करीब से देखा है। वहीं से देश भर को वहां के हालात के बारे में बताती रही हैं। प्रदीपिका वैसे तो आगरा की हैं मगर वे घर पर रहती कम हैं। वे कहती भी हैं कि मैं घुमक्कड़ हूं। जहां होती हूं, वहीं की हो जाती हूं। मास कम्यूनिशेन की पढ़ाई की और डेस्क के पीछे बैठने वाले मीडिया में आ गईं। वहां टिक नहीं पाईं तो नौकरी छोड़ी और कश्मीर चली गईं। वहां कुछ महीने रहीं और फिर सबके सामने किताब लेकर आईं, प्रदीपिका सारस्वत।

किताब के बारे में


गर फिरदौस में एक कहानी है जिसके तीन मुख्य किरदार हैं, इकरा, शौकत और फिरदौस। किताब में इन्हीं के नाम से तीन अलग-अलग चैप्टर हैं। अपने चैप्टर में वे अपनी-अपनी कहानी बताते हैं, अपने-अपने कश्मीर को बताते हैं। इकरा एक काॅलेज में पढ़ने वाली लड़की है जिसे एक लड़का पसंद है। जिसे अपने दोस्तों के साथ रहना पसंद है, जो कुछ देखती है उसे अपने ब्रश से कोरे कागज पर उतारती है। जिसे शाम को डल झील के किनारे घूमना पसंद है। फिरदौस, एक पढ़ा-लिखा नौजवान है जो दिल्ली से पढ़कर आया है। उसने कश्मीर से बाहर के हिन्दुस्तान को देखा है। उसे घुटन महसूस होती है जब वो दोनों जगह अंतर पाता है। तीसरा किरदार है, शौकत। शौकत वो कश्मीरी है जो आतंकवादी और सेना के बीच पिस रहा है। वही डर उसके अंदर बना रहता है।

कहानी कुछ ऐसे शुरू होती है कि फिरदौस और इकरा अपने कुछ दोस्तों के साथ श्रीनगर जाते हैं। रास्ते में सेना फिरदौस को पकड़ ले जाती है और उसके बाद कहानी कश्मीर को बताती है। कभी इकरा के कश्मीर को दिखाया जाता है जिसे न कोई सही लगता है और न ही कुछ गलत। उस घटना के बाद फिरदौस की जिंदगी पूरी तरह से बदल जाती है। उसे अपनी पढ़ाई बेमानी लगने लगती है। शौकत कहानी में थोड़ी देर से आता है मगर बहुत जरूरी बातें बताता है। उसी के माध्यम से लेखिका कश्मीर में आतंकवाद और सेना को लेकर आती है। मुजाहिदीन क्या सोचते हैं? सेना इनका क्या करती है? ये सब किताब में पढ़ने को मिलता है।

गर फिरदौस सिर्फ कहानी नहीं है कि पढ़ा जाए और भूला दिया जाए। ये तो कश्मीर की कहानी है, वहां के लोगों की कहानी है। इसमें बताया गया है कि कोई कश्मीरी हथियार उठाता है तो क्यों उठाता है? किताब में बहुत अच्छी तरह से बताया गया है कि कश्मीर के लोग क्यों सेना से डरते हैं? किताब में एक जगह जिक्र भी है जब फिरदौस सोचता है कि बदन पर वर्दी और हाथों में बंदूक लिए लोग सबके लिए आम नहीं थे। डर और मौत के साये सिर्फ उसके ही मुल्क के हिस्से आए थे। ये एक ही देश के दो जगहों के बारे में बताता है। इसके अलावा पाकिस्तान से आने वाले लोगों के बारे में भी काफी कुछ कहा गया है। शौकत के किरदार इस कश्मीर से रूबरू कराता है। इसी के बारे में एक जगह शौकत सोचता है, परदेसी मुल्क में कोई आखिर क्यों अपना सब कुछ छोड़कर जान हथेली पर लिए इस तरह फिरेगा। जब ये सब पढ़ते हैं तो लगता है अब तक कश्मीर के बारे में कुछ और ही सुनते आए थे।


किताब में इसके अलावा कश्मीर की सुंदरता का खूब जिक्र है। इसमें सुंदरता के नाम पर सिर्फ डल झील, श्रीनगर और शिकारा नहीं है। इसके अलावा कश्मीरी पकवानों के बारे में भी बीच-बीच में जिक्र होता रहता है। उर्दू शब्द तो इतने ज्यादा हैं कि आपको हर लाइन में उर्दू शब्द मिल जाएंगे। किताब में सब बुरा ही बुरा नहीं है। गर फिरदौस बताती है कि कश्मीर बंद होने के बावजूद उनकी जिंदगी बंद नहीं हुई थी। इंटरनेट बंद होने के बाद भी उन्होंने लोगों से बात करना बंद नहीं किया था। हर वीकेंड पर साथ बैठकर दावत करना फिर भी नहीं भूले थे। कर्फ्यू के बीच भी प्रेमी, प्यार करना नहीं छोड़े थे। गर फिरदौस, उस कश्मीर की कहानी है जिसके बारे में कोई नहीं बताता। जहां जिंदगी तो सरपट से दौड़ रही है लेकिन बेबसी और चुभन भी है।

किताब की खूबी


गर फिरदौस की सबसे बड़ी खूबी तो उसकी कहानी का ढंग है। जिसमें सिर्फ कहानी नहीं, कश्मीर को भी कह दिया है। उसके बाद भाषा बहुत सरल है। उर्दू के बहुत शब्द हैं लेकिन इतने भी कठिन नहीं कि समझ में न आएं। पूरी किताब में सिर्फ तीन तस्वीरें हैं, जो आपको तीनों चैप्टर में मिल जाएंगी। शायद लेखिका ने उसे कश्मी में रहते हुए कैद किया होगा। कमियां तो आपको इसमे ढूढ़ने से भी नहीं मिलेंगी। हो सकता आपको लगे कि ये काल्पनिक भी हो सकता है। फिर भी नहीं भूलना चाहिए कि लेखिका एक पत्रकार हैं। ये कश्मीर का रिपोर्ताज है बस उन्होंने इसे कहा कहानी के ढंग में है। क्योंकिा घटनाएं भुला दी जाती हैं लेकिन किस्से और कहानी जेहन में बने रहते हैं। इस किताब को पढ़ने के बाद शौकत, इकरा और फिरदौस भी आपके जेहन में बना रहेगा।

गर फिरदौस डिजिटल संस्करण में है। इसे आप किंडल पर जाकर पढ़ सकते हैं। बहुत ज्यादा मोटी भी नहीं हो तो आप एक बैठक में ही इसे पढ़ डालेंगे। गर फिरदौस जैसी किताबें दिमाग को सोचने पर मजबूर करती हैं। मेरा विश्वास है कि किताब खत्म होने के बाद भी आप कश्मीर के बारे में सोचते रहेंगे। जिसके बाद शायद आप कश्मीर को कुछ अलग नजर से देखेंगे। किताब पढ़ने के बाद मुझे फिरदौस की एक बात याद रहती है, जो कश्मीर के लोगों की कहानी भी है। 

रोज मुर्दे की तरह जीने से एक दिन सचमुच का मर जाना बेहतर है। 

किताब- गर फिरदौस।
लेखिका- प्रदीपिका सारस्वत
प्रकाशन- एमेजाॅन किंडल।
कीमत- 29 रुपए।

Wednesday, 17 June 2020

इंडिया ऑफ्टर गांधीः आजादी के बाद के कुछ सालों की कहानी, जिसमें बहुत कुछ बना और बहुत कुछ बिगड़ा!

जैसे ही आखिरी ब्रिटिश सिपाही बंबई या कराची बंदरगाह से रवाना होगा। हिन्दुस्तान परस्पर विरोधी धार्मिक और नस्लीय समूहों के लोगों की लड़ाई का अखाड़ा बन जाएगा। 
                                      - जे. ई. वेल्डन, 1915।

इंडिया ऑफ्टर गांधी जिसका हिंदी अनुवाद भारत गांधी के बाद है। आजादी के बाद के भारत के इतिहास को बेहतरीन तरीके से बताया है। ऐसा लगता है कि हम किसी किताब की अलग-अलग कहानी पढ़ रहे हैं जो घूम-फिरके एक ही किरदार पर आकर ठहर जाती है, जवाहर लाल नेहरू। 1947 में नेहरू कैसे थे और 1964 में आते-आते क्या थे? इस किताब को पढ़ने के बाद समझ आता है। ये किताब दुनिया के विशालतम लोकतंत्र का सिर्फ इतिहास नहीं है। ये किताब आज की सरकार और राजनेताओं के लिए एक सबक भी है। उन्हें इस किताब से सीखना चाहिए कि जब संकट आए, समस्याएं आएं तो क्या नहीं करना है? हमारे सामने उस समय कुछ समस्याएं थीं, हमने तब क्या किया और क्या नहीं करना चाहिए था? दोनों ही बातें बताती है ये किताब।

लेखक के बारे में


रामचन्द्र गुहा।

रामचन्द्र गुहा देश के जाने-माने इतिहासकार हैं। वे देश के बड़े मुद्दों पर अपनी राय रखते हैं और लोग उनको सुनते हैं। उनका जन्म 1958 में देहरादून में हुआ। दिल्ली और कलकत्ता से पढ़ाई की। कई जगह प्रोफेसर भी रहे। दस साल तीन महाद्वीपों में पांच अकादमिक पदों पर रहने के बाद वे अब पूरी तरह से लेखक बन चुके हैं। उनकी लिखी किताबों को 20 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इस किताब के अलावा भारत नेहरू के बाद भी काफी चर्चित रही है। रामचन्द्र गुहा ने बैंगलोर को अपना ठिकाना बना लिया है। अब वे वहीं से लेखन का काम करते हैं।

क्या है किताब में


किताब में आजादी के समय से लेकर नेहरू के निधन तक ही कहानी है। उस दौरान जो भी बड़े और जरूरी मुद्दे, घटनाएं हुईं। वो सब इस किताब में है। किताब शुरू होती है एक प्रस्तावना से जिसकी कुछ पंक्तियों के बाद गालिब का एक शेर आता है। फिर हिन्दुस्तान के बारे में काफी कुछ बताया जाता है। जिसमें लेखक के खुद के विचार है। वो भारत को अस्वाभाविक राष्ट्र कहते हैं, इस प्रस्तावना में वे इसकी वजह भी बताते हैं। उसके बाद शुरू होती है किताब।

इंडिया आॅफ्टर गांधी में पहला चैप्टर है आजादी और  
राष्ट्रपिता की हत्या। आजादी के समय देश का क्या माहौल था? देश के आंदोलनकारी जो अब नेता बन चुके थे, वे क्या कर रहे थे? गांधी जी देश के अलग-अलग हिस्सों में जाकर शांति बहाल करने की कोशिश में लगे थे। आजादी मिली और उसके बाद देश की सबसे बड़ी त्रासदी हुई। जिसमें लाखों लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा, देश में हिंसा का माहौल था। उस दौर को लेखक ने आंकड़ों, बयान, संस्मरण से बताने की कोशिश की है। इसके अलावा किताब में विभाजन, 565 रियासतों को एक करना, कश्मीर समस्या, शरणार्थी, कुछ विकास की घटनाएं, आदिवासी समस्या, राज्यों का पुनर्गठन और चीन से युद्ध के बारे में विस्तार से बताया है।

किताब में 17 चैप्टर हैं। हर अध्याय में देश की एक कहानी है, एक समस्या है और उन पर लिए कुछ कदम हैं। जो पढ़ते हुए कभी सही लगता है तो कभी लगता है ये नहीं होना चाहिए। फिर चाहे केरल सरकार को बर्खास्त करना हो या आंध्र प्रदेश के शख्स का अनशन करते हुए मर जाना हो या फिर बात हो नेहरू का हमेशा वी के मेनन के पीछे खड़ा रहना हो। जिसका नतीजा निकला भारत का 1962 में चीन से पराजय का मुंह देखना पड़ा। देश के कई राज्य उसी 17 सालों में बने। वो कैसे बने? क्या समस्याएं आई? बंबई महाराष्ट्र का हो, गुजरात में जाए या अलग ही रहे? ये सब जानकारी ये किताब देती है।

हर चैप्टर की शुरूआत में ऐसे ही कथन हैं।

ये किताब कुल मिलाकर हमें जागरूक करती है। हमें वो सब जानकारी देती है। जिनके बारे में या तो बहुत कम पता है या पता ही नहीं है। मुझे नहीं पता था कि जवाहर लाल नेहरू ने अपने खास दोस्त शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार करवाया। मुझे नहीं पता था जब नेहरू की मौत हुई तो शेख फूट-फूटकर रो रहे थे। मुझे नहीं पता था कि चीन और भारत के बीच क्या बातें हुईं थी? ये किताब संविधान में बने कुछ प्रमुख कानूनों की भी बात करता है। जिनको लेकर संविधान सभा में बहुत बहस हुई। चाहे भाषा का मामला हो, अल्पसंख्यकों के अधिकार का मामला हो या झंडे पर विचार की बात हो। संविधान सभा के स्वरूप और उस समय दिए गए बहुत सारे कथनों को भी किताब में डाला गया है।

रामचन्द्र गुहा ने ये किताब बहुत रिसर्च के बाद लिखी है। जो पढ़ते हुए समझ में भी आता है। उन्होंने इसके लिए कितनी मेहनत की है, ये किताब के आखिर में संदर्भ देखने के बाद समझ आता है। 525 पेज की इस किताब के आखिरी 47 पेज में सिर्फ संदर्भ हैं। लेखक ने हर चैप्टर के अलग-अलग संदर्भ लिखे हैं। जो इस किताब को और भी विश्वसीन बनाता है। आप इस किताब को पढ़ने के बाद सिर्फ उस दौर के इतिहास, परिस्थितियों और घटनाओं को ही नहीं समझते। आपको समझ आता है भारत, आप खोज पाते हैं भारत। भारत को जानने और समझने के लिए एक मुकम्मल किताब है, भारत गांधी के बाद।

क्यों पढ़ें?


वैसे तो मुझे ये बताना नहीं चाहिए क्योंकि अब तक बहुत सारे लोग इसको पढ़ चुके हैं। इस किताब को कई अवाॅर्ड भी मिल चुके हैं। आउटलुक ने तो इसे बुक आॅफ द् ईयर से नवाजा है। फिर भी मुझे ये अच्छी लगी क्योंकि इसमें जानकारी बहुत है, वो भी रोचक तरीके से। पढ़ते हुए मैं कभी बोर नहीं हुआ। आगे पढ़ने की लालियत बनी ही रहती थी। ये किताब लेखक ने अंग्रेजी में लिखी। इसका हिन्दी अनुवाद सुशांत झा ने किया। मैंने ये किताब हिन्दी में ही पढ़ी। भाषा बिल्कुल सहज और सरल है। आपको पढ़ते हुए दिक्कत नहीं आएगी। लेखक ने किताब में कुछ ऐसे लोगों के बारे में बताया है। जिन्होंने बहुत जरूरी काम किए हैं लेकिन उनके बारे में बहुत कम लोगों को पता है।

किताब में बहुत कम चित्र हैं।

किताब में तस्वीरें बहुत कम हैं। लेखक ने पूरी किताब में तस्वीरें रखने की बजाय, कुछ पेज तस्वीरों के लिए छोड़ दिए हैं। ये तस्वीर उन लोगों की हैं जिनका किताब में जिक्र है। तस्वीरें सिर्फ लोगों की नहीं हैं कुछ घटनाओं की तस्वीरें है। तस्वरों के अलावा कुछ नक्शे भी किताब में दिए हुए हैं। किताब को एक और चीज रोचक बनाती है। हर चैप्टर की शुरूआत में किसी न किसी व्यक्ति का कथन है। जो उस चैप्टर के मुद्दे से संबंधित होता है। भारत गांधी के बाद मुझे काफी कुछ जानने को मिला। ये किताब ज्ञान का एक भंडार है जिसे हर किसी को पढ़ना चाहिए। ये उस दौर की समस्याओं को भी बताता है, हमारी कमियों को भी बताता है और हमने क्या किया वो भी। आखिर में किताब में दिए एक अमेरिकी पत्रकार की टिप्प्पणी, जो कछ हद तक सही है और कुछ हद तक गलत।

हमारे लिए हिन्दुस्तान का सिर्फ दो ही मतलब हैं, अकाल और जवाहर लाल नेहरू।

किताबः इंडिया ऑफ्टर गांधी।
लेखक- रामचन्द्र गुहा।
अनुवादक- सुशांत झा हिन्दी।
प्रकाशक- पेंगुइन बुक्स।
कीमत- 399 रुपए।


Thursday, 11 June 2020

वन लाइनर के अलावा मुसाफिर कैफे में मुसाफिर जैसा कुछ भी नहीं है

असल में किताबें दोस्त तब बनती हैं जब हम सालों बाद उन्हें पहली बार की तरह छूते हैं। किताबें खोलकर अपनी पुरानी अंडरलाइन्स को ढूंढ़-ढूंढ़कर छूने की कोशिश करते हैं। किसी को समझना हो तो उसकी शेल्फ में लगी किताबों को देख लेना चाहिए। किसी की आत्मा समझनी हो तो उन किताबों में लगी अंडरलाइन को पढ़ना चाहिए।

ऐसी गहरी और अच्छी बातें किताब को रोचक बनाती हैं। दिव्य प्रकाश दुबे इस काम को बहुत अच्छी तरह से करते हैं। उनकी हर किताब में ऐसी ही बातें मिल जाती हैं जिनको नोटडाउन करने का मन करता है। आज मैं जिस किताब के बारे में बात कर रहा हूं वो है, मुसाफिर कैफे।

लड़की देखने गए और वहां वो पहले से ही ...

किताब का नाम उसके बारे में काफी कुछ बता देता है। उसी को देखकर हम किताब को पढ़ने या न पढ़ने का मन बनाते हैं। मुसाफिर कैफे को मैंने उसके नाम से ही पसंद किया था। पूरी किताब में मुसाफिर खोजता रहा मगर मिला नहीं। मुसाफिर कैफे में एक कहानी है जो कुछ हद तक लव स्टोरी है और कुछ हद तक आज की जिंदगानी है। मुसाफिर कैफे में लेखक ने बहुत हद तक आज के नौजवानों की रग पकड़ने की कोशिश की है। शायद इसलिए ये किताब युवाओं को पसंद आई है।

लेखक के बारे में 

Divya Prakash Dubey (@divyapdubey) | Twitter                                                             
मुसाफिर कैफे को लिखा है दिव्य प्रकाश दुबे ने। दिव्य प्रकाश चार किताबें लिख चुके हैं। हाल ही में उनकी किताब अक्टूबर जंक्शन आई है। मुसाफिर कैफे उनकी तीसरी किताब है। इसके अलावा उनकी दो किताबें शर्तें लागू और मसाला चाय है। उनकी स्टोरीबाजी और संडे वाली चिट्ठी काफी पापुलर रही है। पढ़ने-लिखने में उन्होंने बीटेक और एमबीए किया है। 2017 में अपनी नौकरी छोड़कर पूरी तरह से लेखक बन चुके हैं। इन दिनों सोशल मीडिया पर लाइव करके लोगों से बात करते हैं। वहां अपना कुछ सुनाते हैं और दूसरों का सुनते भी हैं।


कहानी


ये कहानी है तीन नौजवानों की, सुधा, चंदर और पम्मी की। लेखक ने धर्मवीर भारती के उपन्यास गुनाहों के देवता के तीन मुख्य पात्रों को आज के समय में दिखाने की कोशिश की है। सुधा, चंदर और पम्मी के अपने सपने हैं और अपनी जिंदगी से कुछ अलग चाहते हैं। इसके बावजूद तीनों की जिंदगी एक-दूसरे से जुड़ी रहती है। ये कहानी कोई ट्राइंग्ल लव स्टोरी नहीं है कि कोई किसी को प्यार करता है तो कोई किसी से। सुधा वकील है जो तलाक दिलवाती है। जिससे उसका शादी से विश्वास उठ चुका है इसलिए वो शादी नहीं करना चाहती। चंदर थोड़ा कन्फ्यूज्ड है वो जिंदगी से क्या चाहता है? उसे खुद नहीं पता। पम्मी कहानी में थोड़ा देर से आती है। सुधा और चंदर की मुलाकात मुंबई के एक काॅफी हाउस में होती है। दोनों जल्दी दोस्त बनते हैं और फिर साथ रहने लगते हैं।

साथ रहते हुए चंदर को लगता है कि अब उसे शादी कर लेनी चाहिए जबकि सुधा का मानना है कि हम बिना शादी के भी साथ रह सकते हैं। चंदर मुंबई और सुधा को छोड़कर  निकल पड़ता है एक सफर पर। ये सफर उसे मसूरी पहुंचाता है। यहीं उसकी मुलाकात छोड़कर पम्मी से होती है। दोनों मिलकर मसूरी में ही कैफे खोलते हैं मुसाफिर कैफे। कहानी फिर सीधे दस साल आगे जंप करती है। उसके बाद सुधा और चंदर कैसे मिलते हैं। दोनों शादी करते हैं या नहीं, अगर करते हैं पम्मी का क्या होता है? ये सब जानने के लिए आपको मुसाफिर कैफे पढ़नी होगी।

किताब के बारे में


किताब में कहानी क्या है? उसको शाॅर्ट में बताने की कोशिश की है। किताब को इस प्रकार रोचक तरीके से लिखा गया है कि आप एक बार में पढ़ लेंगे। किसी किताब को अच्छा बनाती है कहानी के बीच की बातचीत। इस किताब में वो बातचीत पढ़ने में तो अच्छी लगती है लेकिन ऐसा बहुत कम होता है। वो सब फसाना-सा लगता है, खासकर सुधा और चंदर की बातचीत। पढ़ते हुए लगता है कि ऐसा सिर्फ मूवीज में हो सकता है वास्तव में नहीं। चाहे फिर वो दोस्त बनने की बात हो या फिर बिना शादी के हनीमून जाने की बात। हो सकता है कि बहुत-से लोगों को ये पसंद आया हो लेकिन ये मुझे किताब की सबसे बड़ी कमी लगी।

                                    मुसाफिर कैफे : दिव्य प्रकाश ने ...

किताब की भाषा बहुत सहज और सरल है। जिसे पढ़ने में आसानी होती है। इसके अलावा बहुत सारे वन लाइनर हैं और बहुत सारी ऐसी बातें हैं जिनको आप अंडरलाइन जरूर करना चाहेंगे। बीच-बीच में अंग्रेजी शब्द और अंग्रेजी भी है मगर वो खटकती नहीं है। इसके अलावा टाइटल भी अनोखे ढंगे से लिखे गए हैं जैसे कि ‘उ से उस दिन की बात’, ‘अ से अंडमान निकोबार’।

लेखक अपनी किताब को बहुत मेहनत से लिखता है। मगर पाठक को कैसी लगेगी? ये उसके हाथ मे नहीं होता है। दिव्य प्रकाश दुबे की अक्टूबर जंक्शन पढ़ने के बाद मुझे मुसाफिर कैफे थोड़ी कम पसंद आई। मुसाफिर कैफे मेरे लिए वो पहली किताब है जिसे मैंने किंडल पर पढ़ा। इसके बावजूद जिन्होंने ये किताब नहीं पढ़ी है उनको पढ़नी चाहिए। मगर ये सोचकर मत पढ़िए कि इसमें यात्रा और मुसाफिर जैसा कुछ होगा। 

सबकी मंजिल भटकना है, कहीं पहुंचना नहीं।

किताब- मुसाफिर कैफे।
लेखक- दिव्य प्रकाश दुबे।
प्रकाशक- हिन्दी युग्म और वेस्टलैंड लिमिटेड।
कीमत- 150 रुपए।
किंडल प्राइस- 115 रुपए।

Friday, 17 April 2020

जल थल मल: कुछ अहम मुद्दों पर सोचने को मजबूर करती है ये किताब

इस समय पूरी दुनिया में स्वच्छता पर बहुत ध्यान दिया जा रहा है। भारत में तो इस पर एक अभियान चल रहा है। जिसके तहत पूरे देश में शौचालय बनाए जा रहे हैं। शौचालय में लोग जा रहे हैं या नहीं जा रहे हैं वो अलग बात है। मगर सवाल ये है कि क्या शौचालय से स्वच्छता आएगी? ये शौचालय करते क्या हैं? हमारे मल को जल और मिट्टी तक ले जाते हैं। इससे तो हमारी नदियां, हमारा भूजल और हमारी जमीन को नुकसान हो रहा है। इसी मल का जल और थल के संबंधों, समस्याओं और इन्हीं के इर्द-गिर्द सवालों पर सोचने को मजबूर करती है सोपान जोशी की किताब ‘जल थल मल’।


जल थल मल में सिर्फ शौचालय की बात नहीं की गई है। इसमें विज्ञान, पर्यावरण, नदियां, भोजन के बारे में बहुत गहन तरीके से बताया गया है। सोपान जोशी उन अनदेखे पहलुओं के बारे में बताते हैं। जिनके बारे में हमें या तो पता नहीं है या फिर हम उस ओर ज्यादा ध्यान नहीं देते। इस किताब को सिर्फ पढ़ना ही नहीं चाहिए बल्कि इसके हर पहलुओं पर बात और चर्चाएं भी करनी चाहिए।

लेखक के बारे में

लेखक।

जल थल मल को लिखा है सोपान जोशी ने। सोपान जोशी का जन्म 1973 में मध्य प्रदेश के इंदौर में हुआ। दिल्ली में स्कूली शिक्षा पूरी की और 1996 में दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य से गे्रजुएशन किया। सोपान जोशी पेशे से पत्रकार हैं। पहले वो अखबारों और पत्रिकाओं में काम किया करते थे। खेती-किसानी, विज्ञान, पर्यावरण, जल प्रबंधन, खेल पर रिपोर्टिंग की है। अब दिल्ली में रहकर ही स्वतंत्र लेखन करते हैं। इस किताब के अलावा उनकी दो और किताबें हैं, एक था मोहन और बापू की पाती।


किताब के बारे में


सोपान जोशी ने अपनी इस किताब को 10 अध्यायों में बांटा है। हर अध्याय में अलग-अलग विषय पर बात होती है। किताब के पहले पन्ने पर भगवान बराह का सुअर रूपी चित्र बना हुआ है। आगे पढ़ते हुए इस बारे में समझमें आ जाता है। किताब का पहला अध्याय है ‘जल थल मल’। शुरू में लेखक इस सृष्टि के बनने और उसमें रहने वाले जीवों के बारे में बताते हैं। वे इस संसार के नियमों के बारे में बात करते हैं। प्रलय कैसे हुआ, मनुष्य की प्रजाति कैसे आई? इस बारे में पता चलता है। शुरू में पढ़ते हुए लगता है कि मैं कोई विज्ञान की किताब पढ़ रहा हूं। लेकिन जल्दी ही लेखक मूल विषय पर चर्चा करते हैं, मल। लेखक लिखते हैं, ’हमारी आबादी चौगुनी हुई है तो हमारा मल-मूत्र भी चौगुना बढ़ा है लेकिन उसके ठिकाने चौगुने नहीं हुए हैं।’

इस बारे में किताब में कई आंकड़े दिए जाते हैं जो बेहद भयावह हैं। जिन आधुनिक शौचालय का हम इस्तेमाल करते हैं वो जल प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है। इस मल का विर्सजन कैसे किया जाए? कहां किया जाए? इस बारे में उदाहरण सहित बताती है ये किताब। इसमें लंदन की टैम्स नदी का उदाहरण है जो 1850 में नाला बन गई थी। इसके अलावा कोलकाता के भेरिया के बारे में बताते हैं जो शहर के गंदे पानी से मछली पालन करते हैं। सोपान जोशी बताते हैं कि सबसे ज्यादा मल कहीं पैदा होता है तो वो है, ट्रेन। मल और रेल का पूरा गणित समझाती है ये किताब। तब लगता है कि इस बारे में हमने तो कभी सोचा ही नहीं। सरकार शौचालय के लिए योजनाएं सालों से बनवा रही है। हर बार स्वच्छता के नाम पर बस उनके नाम बदल दिए जाते हैं। न तो इन सालों में शौचालय की पद्धति बदली और न ही उनका निकासी तंत्र।


किताब में बहुत सारे चित्र बने हुए हैं। जिनको उकेरा है सोमेश कुमार ने। इस वजह से किताब पढ़ते हुए उन चित्रों को घटनाओं और लेखक की बातों से जुड़ पाते हैं। ये चित्र किताब को और अधिक प्रभावी बनाते हैं। आगे बढ़ने पर किताब आधुनिकता वाले मल के एक बेहद चिंताजनक पहलू को बताती है। ये पहलू है उस प्रथा का जिसमें एक जाति विशेष के लोग मैला ढ़ोते हैं। दूसरे देशों में इसके लिए प्रशिक्षण और उपकरण दिए जाते हैं लेकिन हमारे देश में ऐसा कुछ नहीं है। किताब में ही ऐसी कई घटनाओं का जिक्र है जिसमें सीवर सफाई करते हुए लोगों की मौत हो गई। 1993 में इस प्रथा को बंद कर दिया गया था। किताब में एक जगह लेखक लिखते हैं कि देश भर में करीब सात लाख लोग हाथ से मैला ढो रहे हैं। लेखक ऐसा काम करने वाली जातियों और उनके इतिहास के बारे में भी बताते हैं।

शुचिता का विचार


लेखक किताब में बार-बार शुचिता का जिक्र करते हैं। शुचिता का अर्थ है पवित्र भाव। आगे किताब में नदी से हमारी दूरी के बारे में जिक्र है। हमने कैसे नदियों को नाला बना दिया और फिर उसे साफ करने के लिए सीवर तंत्र लगा दिए। इन सबकी खामियां और आलोचना करती है ये किताब। मैले पानी को कैसे साफ किया जाए? उसकी कुछ सफल पद्धतियों के बारे में भी बताती है ये किताब। हमारे मल और शौचालय ने कितनी की नदियों को पाट दिया है। इसमें इसमें दिल्ली की यमुना की सहायक नदियां, मुंबई की मिट्ठी जैसी तमाम नदियां हैं। पहले ये देश तालाबों और नदियों का देश कहलाया जाता था। लेखक कहता है कि आज पानी को सहेजने की प्रणाली ‘नाले’ बन चुकी हैं।


किताब में लिखा है कि पहले मल को सिर्फ नदियों में नहीं बहाया जाता था। मल को खाद के रूप में उपयोग किया जाता था। इतिहास के कई उदाहरण भी इसमें बताए गए हैं जिसमें लोग मल को खेती के लिए खरीदते हैं। गांव के लोग पहले इसलिए खेतों मल विर्सजन करने जाते थे। सोपान जोशी बताते है, मल को पहले सोने की उपमा दी जाती थी। हरित क्रांति आई तो ये मल खेतों की जगह नदियों में जाने लगा। लद्दाख में एक पद्धति है ‘छागरा’। जिससे मल खेतों के लिए आज भी इस्तेमाल किया जाता है। शौचालय कैसे होेने चाहिए? उस बारे में भी विस्तार से बताती है ये किताब। इसमें इतिहास के कई घटनाएं, विषयों के बारे में गहन चर्चा और उदाहरण से इसमें गहनता आती है।

क्या है खास?


ये किताब कई अहम मुद्दों पर लिखी गई है। जल प्रदूषण, मल तंत्र और थल के बारे में। इन तीन मुददों को लेकर किताब कई विषयों को समेटती है जिसमें नदियां, उद्योग, सीवर, खाद्य तंत्र, शौचालय और फसल आदि चीजें हैं। ये किताब इसलिए खास है क्योंकि एक जगह पर इतनी सारी बातों पर गहन अध्ययन मिलना मुश्किल है। इसमें एक और खास चीज है, संदर्भ। लेखक ने संदर्भ के लिए 20 पेज दिए हैं। हर अध्याय के लिए संदर्भ कहां से और कैसे लिया? इसको विस्तार से बताया है। इस प्रकार से संदर्भ बहुत कम किताबों में मिलते हैं। ऐसे ही संदर्भ मुझे अनुपम मिश्र की ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में मिले थे।

किताब पढ़ने पर पता चलता है कि इसमें कितना रिसर्च की गई, लेखक ने कितनी स्टडी की है। जैसा कि मैंने शुरू में ही कहा कि आप ज्यों-ज्यों इसको पढ़ेंगे आप उसके बारे में सोचना शुरू कर देंगे। किताब में भाषा बिल्कुल सहज और सरल है। इसे पढ़ने में किसी भी प्रकार की समस्या नहीं होगी। इस किताब को देश के हर नागरिक को पढ़ना चाहिए। अगर हम इन विषयों के बारे में अच्छे से जान लेेंगे। उसके बाद शायद हम वो गलतियां न करें जो आज करते हैं।


जल थल मल की कीमत समझाती है ये किताब। ये सब कुछ आता है शुचिता के भाव से। लेखक कहता है कि शुचिता की परख हमारे सामाजिक संबंधों की पड़ताल है। शुचिता का काम आधुनिकता और परंपरा की थकी हुई बहस नहीं है। इसमें आधुनिकता भी होनी चाहिए और परंपरा भी। ये किताब पढ़ी जानी चाहिए क्योंकि ये शुचिता के पटल को खोलती है। इसको पढ़ा जाना चाहिए ताकि हम विवश को उस गंदगी के बारे में सोचने को। जो हमें जल थल मल के मोल को नहीं समझने दे रही है।

किताब- जल थल मल
लेखक- सोपान जोशी
कीमत- 278 रुपए
प्रकाशन- राजकमल प्रकाशन
कुल पृष्ठ- 208।

Thursday, 26 March 2020

सौंदर्य की नदी नर्मदाः अमृतलाल वेगड़ ने इस किताब से करा दी नर्मदा की यात्रा

यात्रा करना हर किसी को अच्छा लगता है लेकिन उसे ठीक वैसे ही शब्दों में बयां करना थोड़ा कठिन होता है। कई यात्रा वृतांत कलम की जादू की वजह से अच्छे लगते हैं तो कुछ अनुभव और किस्सों से। ऐसे ही कई मनोरंजक और छोटे-छोटे किस्से, कहानियों से अमृतलाल वेगड़ की किताब मुझे पसंद आई। कहते हैं कि अच्छी किताब वो है जो एक ही बार में पढ़ ली गई हो। वो अच्छी किताब हो सकती है लेकिन कुछ किताबों को पढ़ते हुए लगता है कि इसे आराम-आराम से पढ़ा जाए। ‘सौंदर्य की नदी नर्मदा’ ऐसी ही एक किताब है।


‘सौंदर्य की नदी नर्मदा’, अमृतलाल वेगड़ की नर्मदा यात्रा का अनुभव है। नर्मदा, भारत की पांचवी सबसे बड़ी नदी है। इसे मध्य प्रदेश की जीवन रेखा भी कहा जाता है। नर्मदा अमरकंटक से अरब सागर तक 1,312 किमी. की यात्रा करती है। अमृतलाल वेगड़ ने भी नर्मदा के किनारे-किनारे पैदल यात्रा की। उन्होंने ये यात्रा एक ही बार में पूरी नहीं की। उन्होंने नर्मदा यात्रा 1977 से 1987 के बीच में की। उस यात्रा को और उसके अनुभव को अमृतलाल वेगड़ ने अपनी किताब में समेटा है।

लेखक के बारे में

लेखक अर्मतलाल वेगड़।

अमृतलाल वेगड़ अच्छे साहित्यकार और चित्रकार रहे। वे मध्य प्रदेश के जबलपुर के रहने वाले थे। उन्होंने नर्मदा संरक्षण के लिए आवाज उठाई। 47 साल की उम्र से उन्होंने नर्मदा की यात्रा शुरू की और 2009 तक करते रहे। उन्होंने नर्मदा की कई बार यात्रा की और उसके बारे में पूरी दुनिया को बताया। सौंदर्य की नदी नर्मदा के लिए उन्हें 2004 में साहित्य अकादमी पुरस्कार भी दिया गया। इस किताब के अलावा उन्होंने नर्मदा पर ही दो किताबें ‘अमृतस्य नर्मदा’ और ‘तीरे-तीरे नर्मदा’ लिखी है। 6 जुलाई 2008 को उनका देहांत हो गया।


किताब के बारे में


लेखक अपनी यात्रा शुरू करता है अपने घर जबलपुर से। लेखक शुरू में अपने जाने की वजह और साथियों के बारे में बताता है। पूरी यात्रा में हर बार लेखक के साथी बदलते रहते हैं। नर्मदा के किनारे-किनारे पैदल यात्रा करते हैं। वो नर्मदा के गांवों, आसपास के इलाके और लोगों के बारे में बताते जाते हैं। अपने अनुभवों को भी लेखक अच्छे से बताता है। पढ़ते हुए लगता है कि हम भी लेखक के साथ नर्मदा यात्रा पर निकल गए हैं। नर्मदा के बारे में लेखक बहुत कुछ बताते हैं। वो कहते हैं, गंगा श्रेष्ठ है लेकिन ज्येष्ठ नर्मदा है। नर्मदा, गंगा से पहले की है और लाखों लोगों की जीवन रेखा है।

इस किताब को पढ़ते हुए आपको नर्मदा के स्वरूप को समझ में आएगा। नर्मदा, किस जगह कैसी है, उसकी सहायक नदियों का स्वरूप क्या है? गर्मियों में नर्मदा कैसी बहती है और जब सूख जाती है तब कैसी उजाड़ लगती है। नर्मदा के बारे में सब कुछ किताब को पढ़ते हुए समझ में आता है। उस समय गांव कैसे होते थे, वहां का परिवेश और लोगों के बारे में बताते हैं। बीच-बीच लोगों से हुई बातचीत को डालकर इसे और अच्छा बनाते है। इस किताब से ही पता चलता है 80 के दशक में गांव के लोग स्टोव देखकर कितने खुश होते थे। आज तो हमारी जिंदगी से स्टोव पूरी तरह से गायब हो चुका है।

लेखक की यात्रा का पूरा रूट।

नर्मदा की यात्रा बढ़ती जाती है लेखक नई जानकारी देता रहता है। कभी झाड़ी में रहने वाले भीलों के बारे में, जो वहां आने वाले लोगों को पूरी तरह लूट लेते। शरीर से सारे कपड़े तक उतार लेते। तब लगता कि भील उस जमाने के चोर हैं लेकिन आगे जाकर उनकी भुखमरी और गरीबी को देखकर दुख होता। इसके अलावा नर्मदा अपने वाले डैम के बारे में भी बताते। जो आसपास के इलाके को डुबा देगा। अमृतलाल वेगड़ कहते हैं, ’आज जैसी नर्मदा मैं देख रहा हूं, जिस रास्ते पर मैं चल रहा हूं। कुछ सालों बाद इन पर कोई नहीं चल पाएगा। यहां दूर-दूर तक पानी होगा’। बातचीत में लेखक को गांव वाले डैम से होने वाले नुकसान के बारे में भी बताते हैं। हालांकि लेखक डैम का बनाना अच्छा मानते हैं।

लेखक एक बार में जहां तक की यात्रा करता, अगली बार वहीं से शुरू करता। ऐसे में उसने नर्मदा को अलग-अलग साल और अलग-अलग महीनों में देखा। नर्मदा कैसे बढ़ती है और कैसे बदल जाती है लेखक ने अच्छी तरह से वर्णन किया है। नर्मदा पहाड़ और मैदान दोनों से होकर गुजरती है। लेखक ने जिस कुशलता से नदी के बारे में बताते चले हैं वो वाकई बेहतरीन है। मैंने कभी नदियों के किनारे-किनारे यात्रा नहीं की लेकिन इस किताब को पढ़ने के बाद ऐसी ही किसी यात्रा पर जाने का मन करता है।

जैसे-जैसे नर्मदा मध्य प्रदेश छोड़कर गुजरात पहुंचती है तो पढ़ने में और मजा आने लगता है। नर्मदा का उद्गम है मध्य प्रदेश के अमरकंटक में और समुद्र में मिलने से पहले आखिरी पड़ाव है, गुजरात का विमलेश्वर गांव। समुद की झलक, अमरकंटक का उद्गम, ओंकरेश्वर का मन मोहने वाला नजारा, ये सब पढ़कर लगता है नर्मदा की यात्रा करनी चाहिए। नदी के बारे में अमृतलाल वेगड़ किताब में लिखते हैं, ‘नदी है- जन्मजात यात्री। जन्म लेते ही चल पड़ती है और एक बार जो चली तो एक क्षण के लिए भी नहीं रूकती।’ इसके अलावा हर चैप्टर के पीछे उनका स्केच बना है। जो उन्होंने अपनी नर्मदा यात्रा में बनाया था। उन्होंने ये यात्रा किन मुश्किलों का सामना करते हुए की? खाना कैसे खाते थे? ठहरते कहां थे? ये सब आपको इस किताब में पढ़ते हुए आनंद आएगा।

सौंदर्य की नदी नर्मदा।

किताब से कुछ


पुजारी जी से खूब बातें होती हैं। नवागाम बांध की बात चली तो कहने लगे, ‘बांध के बन जाने पर सबसे पहले डूबेगा शूलपाणेश्वर मंदिर। शूलपाण की पूरी झाड़ी डूब जाएगी।’ जाने-अनजाने में मेरे मन मे यह बात है कि इस सुंदर, एकांत स्थान में जितना हो सके, रह लो। जी भरकर देख लो। पन्द्रह वर्ष के बाद तो इसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। शायद इसलिए चार दिन से मैं यहां घूम रहा हूं।

किताब की खूबी और कमी


किताब की सबसे बड़ी खूबी तो ये यात्रा है जो लेखक ने पैदल की। उसे जिस तरह से बताया है वो भी काफी रोचक है। इसमें जो जानकारी हैं, भीलों क बारे में , बैगा स्त्रियों के बारे में, उस समय के रीति-रिवाजों के बारे में, ये सब इस किताब को और रोचक बनाते हैं। इसके अलावा नर्मदा यात्रा के लिए ये किताब एक नक्शे की तरह है हालांकि डैम बनने के बाद इसमें काफी कुछ बदलाव आ गया है। अगर आप घुमक्कड़ हैं तो आपको इसे जरूर पढ़ना चाहिए। अगर आप नहीं घूमते हैं तो इस किताब से आप नर्मदा यात्रा कर सकते हैं।

इस किताब में मुझे कमी तो नहीं लगी लेकिन भाषा पूरी तरह से साहित्यक है। शायद जिस समय ये यात्रा हुई तब ऐसे ही बोलचाल हो। ये भी हो सकता है कि पहले किताबों की भाषा साहित्यक होती थी। इसी वजह से कुछ-कुछ शब्दों का अर्थ पता ही नहीं होता है। जिसे समझने में थोड़ी मुश्किल आती है। ऐसे यात्रा वृतांत आज के समय में नहीं लिखे जाते। तब के यात्रा वृतांत की भाषा और आज के यात्रा वृतांत की भाषा में आया बदलाव इस किताब को पढ़कर समझ सकते हैं।

इस किताब को पढ़ने के बाद सच में समझ में आता है कि नर्मदा, सौंदर्य की नदी है। अमृतलाल वेगड़ ने इस किताब से हमें अपनी यात्रा के बारे में नहीं बताया। इससे हमने नर्मदा को समझा, नर्मदा के किनारे रहने वाले लोगों के जीवन के बारे में पता चला। किताब इतनी अच्छी तरह से लिखी गई है लेखक के साथ पाठक भी नर्मदा की यात्रा कर लेता है।

किताब- सौंदर्य की नदी नर्मदा,
लेखक- अर्मतलाल वेगड़,
प्रकाशन- पेंगुइन बुक्स,
कुल पेज- 176,
लागत- 199 रुपए।