Thursday, 31 January 2019

हमसफर एवरेस्ट ‘नीरज मुसाफिर’ का एक बढ़िया मुसाफिर खाना है जो बस चलता रहता है

घुमक्कड़ स्वभाव जिंदगी में नयी-नयी चीजें, नये अनुभव, नये रास्ते दिखाता है। जब लगे कि जिंदगी ठहर गई कि वो घुमक्कड़ वाला स्वभाव आ जाना चाहिये। जो कल की न सोचे, बस चल दे। मुझे लगता है नई-नई जगह जाने से आप तरोताजा हो जाते हैं, कुछ अच्छा और बेहतर करने के लिये। उन्हीं घुमक्कड़ स्वभाव के लिये पहाड़ सबसे बढ़िया जगह होती है। वो गगन छूती पहाड़ियां, वो कलकल करती नदियां और हिचकोले लेते रास्ते जैसे हमारी जिंदगी लेती है। इस सफर में कभी अच्छा लगता है, कभी बुरा लगता है। लगता है बहुत हो गया, अब लौट लेते हैं कि फिर मन कहता है ‘अभी नही तो कभी नहीं’। ऐसी ही दो सैलानियों की यात्रा की कहानी है ‘हमसफर एवरेस्ट’।

एवरेस्ट बेस कैंप तक का यात्रा वृतांत है इस किताब में।


हमसफर एवरेस्ट को लिखा है नीरज मुसाफिर ने। नाम ही कह रहा है कि ये घूमते-फिरते रहते हैं। नीरज मेरठ के रहने वाले हैं। मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया है और दिल्ली में नौकरी कर रहे हैं। उसी नौकरी में से समय निकालकर भारत के हिस्सों में घूमते-फिरते रहते हैं। साल 2008 से अपनी तमाम यात्राओं के बारे में अपने ब्लाॅग में लिखते आ रहे हैं। नीरज ब्लाॅग और फेसबुक पर खासे एक्टिव रहते हैं। उन्होंने इस किताब के अलावा ‘सुनो लद्दाख’ और ‘पैडल-पैडल भी लिख चुके हैं।


हमसफर एवरेस्ट 


हमसफर एवरेस्ट एक ऐसे मुसाफिर का यात्रा वृतांत है। जो दिल्ली से मोटर साइकिल से शुरू होता है और नेपाल होते हुये एवरेस्ट बेसकैंप तक पहुंचता है। इस किताब में बारीकी से हर दिन और मिनट की चर्चा है। मतलब कि कहां-कहां रूके, कहां गये, क्या खाया? सबसे बड़ी बात हर जगह की कीमत दी हुई थी। लेखक कोई बड़े साहित्यक नहीं हैं न ही किताब में बनने की कोशिश करते हैं। वे अपनी यात्रा को सीधे-सीधे समझाते हैं और बताते हैं। उनके दिमाग में उस समय क्या चल रहा था। उसको भी किताब में उकेर देते हैं।

अगर किसी को एवरेस्ट या बेस कैंप तक जाना है तो ये किताब वाकई बहुत ही उपयोगी है। लेकिन सुंदरता और लेखन के हिसाब से पढ़ेंगे तो बोर हो उठेंगे। शुरूआत में आप बोर भी हो सकते हैं क्योंकि उसमें पहाड़ नहीं मिलता, नेपाल नहीं मिलता। लेखक गाड़ियों से हमें उत्तर प्रदेश ले जाते हैं यानि कि किताब की शुरूआत थोड़ी लंबी है लेकिन नेपाल में आने के बाद किताब आपको बांधने लगती है। इसमें जानकारी तो होती ही है और लेखनी भी ऐसी होती है जो आपको अच्छी लगती है।

किताब में नेपाल-भारत की दोस्ती का जिक्र है। जिक्र है कि एवरेस्ट पर जाना भी इतना भी आसान नहीं है। सब सोचते हैं कि पहाड़ पर चढ़ना आसान है बस हमें समय नहीं मिलता है लेकिन जब आप पढ़ते हैं कि ठंड की वजह से हाथ-पैर भी कांटने पड़ते है तब पता चलता है कि ये बच्चों का खेल नहीं है। किताब में ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे कि चढ़ाई के दौरान क्या-क्या परेशानी आती है? इन परेशानियों का सामना करने वाले ही उस चढ़ाई तक पहुंच जाते हैं और जो डर जाते हैं वे बीच में ही लौट आते हैं।

किताब में छब्बीस दिनों की कहानी है जिसमें बीस दिनों में एवरेस्ट तक चढ़ने की बातें हैं। उसके बीच में सुंदर दृश्य और कठिनाई भी हैं जो दिमाग में घूमते रहते हैं। लेखक अपनी यात्रा को आराम से पूरा करता है और चलता जाता है। हर चीज का प्लान बनाता है कि आज यहां पहुंचना है और अगर वो पूरा नहीं होता है तो अगले दिन फिर प्लान होता है। किताब में बताया जाता है नेपाल के पहाड़ तो सुंदर हैं लेकिल लोग भारत के ही अच्छे है। भारत सस्ता और अच्छा दोनों हैं।

एवरेस्ट का रास्ता होने के कारण नेपाल महंगा है। लेकिन एक बात अच्छी थी कि होटल फ्री में मिल जाते थे लेकिन शर्त रहती थी कि खाना होटल में ही खाना पड़ेगा। अच्छा तरीका है बिजनेस चलाने का।

एवरेस्ट तक जाने का बढ़िया जरिया है ये किताब।

अदना-सा अंश


27 मई 2016
सुबह साढ़े छः बजे क आसपास आंख खुली। बाहर निकले तो नजारा मंत्रमुग्ध कर देने वाला था। हो भी क्यों न? हम 4800 मीटर पर थे और आसमानों में बादलों का नाम तक नहीं था। दो चोटियों ने सारी महफिल अपने नाम कर रखी थी। एक तो यही बराबर में थी चोला-चे। इसे चोलात्से भी लिख देते हैं, लेकिन कहते चोला-चे ही हैं। 6300 मीटर पर यह चोटी बर्फ से लकदक थी। यह हमसे केवल इतनी दूर थी कि लगता कि हम तबियत से पत्थर फेकेंगे तो उससे पार परली पार जा गिरेगा।

किताब की खूबी


किताब जानकारी से लदालद भरी पड़ी है। किसी को अगर नेपाल होते ही एवरेस्ट या एवरेस्ट बेस कैंप जाना है तो नक्शे से ज्यादा यह किताब महत्ववपूर्ण है। किताब पुरानी नहीं है तो आराम से पहुंचा देगी। आपको उसमें बांधे रखती है। अगर कोई घुमक्कड़ स्वभाव का है, पहाड़ों में जाना अच्छा लगता है तो उसे यह किताब बढ़िया लग सकती है। कुल मिलाकर मुसाफिरों के लिये एक मुसाफिर खाना है।

किताब की कमी


जानकारी के हिसाब से अच्छा कहा जा सकता है लेकिन कुछ कमी भी हैं जो मुझे लगी। शुरूआत कुछ ज्यादा लंबी हो गई, जिसमें लग रहा था कि ये सब है ही क्यों? पाठक के हिसाब से थोड़ा साहित्यक होना चाहिये था। पहाड़ों और दृश्यों का वर्णन अच्छे से किया जाता है तो मजा ही आ जाता। यह किताब उनको अच्छी नहीं लगेगी जा घूमते नहीं हैं या जिनको घूमना पसंद ही नहीं है।

हमसफर एवरेस्ट कुल मिलाकर एक मुसाफिर का मुसाफिर खाना है जिसने कुछ दिनों में बहुत कुछ पाया और उसे पाने में क्या-क्या कठिनाईयां आई वो सब उसने अपने मुसाफिर खाने में रखी हुई है। मैं अक्सर यही सोचता हूं कि कहीं जाने के लिये सच में प्लान बनाना चाहिये या फिर कहीं जाने के लिये साथी होना जरूरी है। मैं हमेशा से नहीं ही कहता था, अब भी कहता हूं लेकिन अगर साथी हो तो क्या खराबी है? हमसफर मुसाफिर में भी लेखक का एक साथी है जो उसके साथ हमेशा चलते ही रहता है बिल्कुल हमसफर मुसाफिर की तरह।

नाॅन रेजिडेंट बिहारी, कैरियर और प्यार के बीच मस्ती और दुखड़ों से भरी पड़ी है

बिहार को मैंने दो ही आंखें से सुना है। एक तो यहां से आईएस बहुत निकलते हैं यानि कि पढ़ने वाले बहुत होते हैं और दूसरा बिहार बड़ा पिछड़ा राज्य है सोच में भी और बाकी चीजों में भी। तभी तो दिल्ली में कोचिंग करने वाले बिहार के लड़के मिल ही जायेंगे। दिल्ली उनका घर हो जाता है और बिहार टूरिस्ट स्पेस। जहां साल में एक-दो बार चक्कर लग ही जाता है। दिल्ली में लड़का तब तक रगड़ता है जब तक अपने पिता का सपना लालबत्ती न मिल जाये या फिर उसके सो चांस ही खत्म न हो जाये। इसी बिहार और दिल्ली के बीच चलती-फिरती कहानी है ‘नाॅन रेजिडेंट बिहारी’।

कसी हुई कहानी का उदाहरण है नाॅन रेजिडेंट बिहारी।

नाॅन रेजिडेंट बिहारी का पहला संस्कारण 2015 में आया था और 2017 में इसके तीन संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इस किताब के लेखक हैं शशिकांत मिश्र। शशिकांत मिश्र बिहार के कटिहार जिले में पले-बढ़े हैं। पत्रकारिता करने के बाद पत्रकार जगत में आये और तब से मीडिया जगत में सक्रिय हैं। 8 सालों से स्टार न्यूज, एबीपी न्यूज से जुड़े रहे और उससे पहले इंडिया टीवी में भी काम किया।

किताब में क्या है?


बिहार के जिला अस्पताल में एक लड़का पैदा होता है और उसी दिन उसका भविष्य लिख दिया जाता है कि यूपीएससी की तैयारी करने लड़का दिल्ली जायेगा और लाल बत्ती लेकर जायेगा। राहुल दिल्ली के मुखर्जी नगर पहुंच जाता है जहां उसके दोस्त पहले से ही आ गये थे। फिर कहानी में पढ़ाई, मस्ती, मूवी, घूमना-फिरना बना ही रहता है। दोस्तों की दोस्ती गहरी हो जाती है इतनी कि मुसलमान को मुल्ला कहते हैं और हनुभक्त को लतियाते हैं। जब तक पेपर नहीं आते हर रोज बातें और मटरगश्ती होती है। लेकिन जब पेपर नजदीक आ जाते हैं तो मुखर्जी नगर की सड़कें खाली हो जाती हैं और कमरे बंद।

यूपीएससी में फेल और पास की कहानी चलती रहती है। इसमें भी राहुल के साथ वही कहानी चलती है, कभी पास होता है तो कभी फेल। लेकिन उसके फेल होने में हर बार उसका प्यार बीच में आता है। हर कहानी में प्यार होता है तो इसमें कहां जाता

राहुल अपने ही गांव कटिहार की लड़की शालू से प्यार करता है और वो भी उससे बेइंतहा प्यार करती है। इनका प्यार शादी में तभी तब्दील हो सकता था जब राहुल यूपीएससी निकाल ले। क्योंकि शालू का परिवार बड़ी जाति और अमीर घराने से था और राहुल का परिवार तो इतना गरीब कि राहुल की पढ़ाई के लिये महाजन से कर्ज लिया जा रहा था। इस प्यार को पाने के लिये राहुल जी जान से मेहनत कर रहा था लेकिन थोड़ी सी चूक हो ही जा रही थी। उसके बाद खबर आती कि शालू की सगाई होने वाली है।

कहानी बिहार के लड़के की नहीं, प्यार और कैरियर के तालमेल की है।

दोस्ती बड़ी प्यारी चीज होती है। इस किताब में बड़े ही व्यवहारिक रूप में बताया गया है। सिर्फ शराब और दारू पीने के लिये दोस्ती नहीं होती है। जब दोस्त मुसीबत में हो तो साथ देने में कोई हिचकिचाहट न आये, वही सच्ची दोस्ती होती है।

राहुल के दोस्त उसका हर पल में साथ देते हैं दारू पीने से लेकर शालू से मिलवाने तक। अंत में मोड़ आता है जब राहुल का यूपीएससी का फाइनल एग्जाम और शालू की शादी एक ही दिन पड़ती है। तब कहानी कैसे मोड़ लेती है बिल्कुल फिल्मी स्टाइल में और सब बढ़िया हो जाता है। लेकिन उसके बढ़िया के पहले एक परीक्षा है राहुल की प्यार की और कैरियर की। शालू की परीक्षा है अपने धैर्य की और राहुल के प्यार पर टिके रहने की। कुछ दोस्त हैं जो इस कहानी में न होते तो कहानी रोचक नहीं होती। कहानी एक अच्छे सफर से शुरूआत होती है लेकिन आगे जाते-जाते यह मार्मिक हो जाती है और वही मार्मिकपन पाठकों को जोड़ने का काम करता है।

किताब का छोटा-सा अंश


राहुल अपने ख्यालों में खोया हुआ था। खिड़की से बाहर देखते हुए वह आगे की प्लानिंग कर रहा था। बनमनखी पहुंचना है और एक बार किसी तरह से शालू से मुलाकात करना है, लेकिन कैसे? वह घर के अन्दर होगी, बाहर उसके भाई के गुंडे-मवाली। मुझे पहचानते भी हैं ये सब। बहुत दिमाग लगाया राहुल ने, लेकिन अभी तक बहुत कुछ तय नहीं कर पाया था कि आखिर शालू से मिलेगा कैसे वह? इस सवाल पर वह सुबह से उलझा हुआ था। पुलिस से एक बार मदद मांगने का ख्याल आया और दूसरे ही पल निकल भी गया।

‘जाउंगा तो सब पुलिसवाले मुझे ही शक की नजर से देखेंगे। लोफर है साला, लोफर। एक शरीफ लड़की को तंग कर रहा है। कोई ठीक नहीं कि मुझे ही पकड़कर अंदर कर दें और शालू के बाप को फोन करके बख्शीश मांगने लगें।’ मन में मोटी गाली दी राहुल ने।

साला, अजीब माइंड सेट है बिहार है का। अगर कोई लड़का प्यार करता है तो इसका सीधा मतलब है कि जरूर वह लोफर होगा! हां, लड़कियों के मामले में थोड़ी रियायत दिखायेंगे। इसकी क्या गलती! बच्ची है, जरूर उसी लोफर ने बहका दिया होगा।

किताब की खूबी


किताब वाकई अच्छे ढंग से लिखी गई है। एक कहानी का पूरा-पूरा वर्णन। हास्य से लेकर यह कहानी मार्मिक तक जाती है और फिर सुखद हो जाती है। कहानी में शब्दों से अच्छी तरह से खेला गया है। लेखक एक पत्रकार है तो शब्द बढ़िया चुने हैं और वर्णन भी बढ़िया किया है। किताब में कहानी लचीली है, सस्पेंस बरकरार रखती है। जो बिहार से हैं उनको तो निश्चित ही ये किताब पसंद आयेगी और जो नहीं हैं उनको भी आयेगी। एक पाठक के तौर पर हर कोई पड़ सकता है।

किताब की कमी


किताब में कुछ कमी हैं जो मुझे लगीं। किताब में कहानी बिहार से है। जब बातें होती हैं तो हर बात हिंदी में ही लिखी गई है। कहीं कहीं हास्य बनाने या वास्तविक बनाने के लिये वहां की बोली का इस्तेमाल होता तो और भी बढ़िया होती। ये किताब उनके लिये बिल्कुल भी नहीं हैं जिनको कहानियां पढ़ने में मजा नहीं आता। क्योंकि ये किताब कोई जानकारी देने के लिये नहीं है। बस लेखक की सोच है जो शब्दों में उकेरी गई है।

नाॅन रेजिडेंट बिहारी किताब है एक लड़के की। जो लाल बत्ती और शालू को पाने के लिये दिल्ली के मुखर्जी नगर आता है और फिर वही दिल्ली दोनों को दूर करने की जद्दोजहद में लग जाता है। राहुल दोनों की पाने की भरसक कोशिश करता है। ये कहानी सिर्फ बिहार की एक लड़के की कहानी नहीं है। ये हर किसी की कहानी है। जिसमें कुछ पाना होता है और कुछ खोना। लेकिन हम टूटने लगते हैं, हमारी इम्तिहान की घड़ी आती है। हम पास हो जाते है तो खुश हो जाते हैं और नहीं होते तो फिर से पाने की कोशिश करते हैं, बिल्कुल राहुल की तरह।

बुक- नाॅन रेज़िडेंट बिहारी
लेखक- शशिकांत मिश्र
प्रकाशक- राधाकृष्ण का उपक्रम

यदा यदा हि योगी में योगी आदित्यनाथ ही नहीं बल्कि राजनीति के बेहद मजेदार किस्से हैं

मेरा मानना है कि पत्रकार एक अच्छी और बेहतर किताब लिख सकता है क्योंकि उसके पास शब्द हैं, ज्ञान है और तजुर्बा भी। अब दूसरी बात किताब काल्पनिक हो तो उसकी कहानी थोड़े दिनों में हमारे जेहन से उतर जायेगी। लेकिन किताब में अगर असलियत और वास्तविकता है तो उसका पढ़ा हुआ हमें काम ही आयेगा। ऐसी ही किताब आई है ‘यदा यदा हि योगी’। इसको पत्रकार विजय त्रिवेदी ने लिखा है।
यदा यदा हि योगी, योगी आदित्यनाथ पर रचित किताब है।

अक्सर होता है कि किताब अगर किसी व्यक्ति पर लिखी है तो वो उसके ही इर्द-गिर्द घूमती रहती है। ऐसा होता है कि किताब में उसका पक्ष होगा या उसकी बुराई हो सकती है लेकिन ऐसा कम होता है कि सारे पक्ष एक ही जगह, एक ही किताब में धर दिये जायें। इस किताब को पढ़ने के बाद मैं कह सकता हूं कि इसमें वो सब नहीं है।
सत्ता के सिंहासन पर संयासी का एक साल!

किताब के बारे में

यदा यदा हि योगी किताब की शुरूआत उनके मुख्यमंत्री बनने की कहानी से शुरू होती है। उस मुख्यमंत्री बनने को लेकर कई किस्से और कशमकश हैं। पहला अध्याय ही एक सवाल लेकर बनता है, कौन बनेगा मुख्यमंत्री?
इसमें बीजेपी का जिक्र आता है, आरएसएस का जिक्र है, नरेन्द्र मोदी का जिक्र है और अमित शाह का जिक्र है।
कहानी धीरे-धीरे किताब में मुख्यमंत्री से पीछे चलती है। योगी आदित्यनाथ के एक साल के कार्यकाल को बताया जाता है, उनकी उपलब्धि मिलती हैं और लोगों के कुछ कथन भी मिलते हैं। हिंदू और हिंदुत्व की बात होती है। इसमें उनके हिुंदुत्व वाले कुछ बयान आता है जिसमें वे मुसलमानों को मारने की बात कहते हैं।

‘अगर वो हमारे 1 आदमी को मारेंगे तो हम 100 को मारेंगे।’

किताब में सिर्फ योगी आदित्यनाथ नहीं है। आदित्यनाथ के बहाने लेखक राम मंदिर विवाद पर जाता है। राम मंदिर के सारे पहलुओं को बताता है। पूरा इतिहास, कोर्ट के फैसले और वो मूर्ति वाला किस्सा। उसके बाद राम मंदिर पर राजनीति लाते हैं जहां आडवाणी राम रथ यात्रा की बात करते हैं और अपने को हिंदुत्व बनने की होड़ में रहते हैं। वो बाबरी मस्जिद गिरने का किस्सा भी पूरे विस्तार से बताते हैं।
किताब में सबका साथ, सबका विकास का अध्याय रखा गया है। जिसमें बताया गया है कि नरेन्द्र मोदी इसे नारे के साथ भारत का विकास करना चाहते हैं। लेकिन इस नारे को छत्तीसगढ़ की बीजेपी ने दिया है। इसमें योगी के सबका साथ, सबका विकास की बात होती है। इसमें वो किस्सा आता है जब शांत रहने वाले योगी आदित्यनाथ संसद में चिल्लाते हैं और हिंदुओं की आजादी को खतरा बताते हैं। किताब में हर जगह इस बात पर बड़ा जोर दिया है कि योगी आदित्यनाथ सबसे बड़े हिंदू नेता हैं। जो फिर से देश को हिंदुत्ववादी बना सकते हैं।
कहानी बिल्कुल पीछे खिसकती जाती है। उत्तर प्रदेश में बीजेपी की जीत का कारण बताया जाता है। गोरखपुर और गोरक्षपुर मंदिर पर आते हैं, वहां के महंत पर बात होती है जो कि योगी आदित्यनाथ हैं।
योगी आदित्यनाथ के गोरखपुर मंदिर का इतिहास आता है। कुछ सबद और संस्कृत का श्लोक आता है। जिसमें गोरखपुर का जिक्र होता है वहां के महंत और उनके महाराज का जिक्र होता है। एक जगह ओशो का जिक्र होता है जिसमें वे कहते हैं कि भारत में अब भी जो संप्रदाय भला कर रहा है वह नाथ संप्रदाय है। योगी आदित्यनाथ की किताब में बीच-बीच कुछ बुराई भी होती हैं। ताजमहल को अपने कैलेंडर से बदलवाने और उसे खराब कहने के कारण उनकी आलोचना भी मिलती है।
कहानी और पीछे जाती है। गढ़वाल से गोरखपुर तक। गढ़वाल जहां पर उनका जन्म हुआ था और कैसे गोरखपुर आये, कैसे सन्यासी बने।

किताब कौन पढ़े

यदा यदा हि योगी, एक जानकारी से भरी किताब है। इसमें कहानी है और उन कहानियों में किस्से हैं जो वाकई मजेदार हैं। उन मजेदार किस्सों को जानने के लिये जरूर पढ़नी चाहिये। जिन्हें राजनीति अच्छी लगती है, जो राजनीति के उस दौर को जानना चाहते हैं तो उनको यह किताब पढ़नी चाहिये।

कौन न पढ़े

किताब में कुछ कमी भी है। बीच-बीच में योग और अध्यात्म की ओर किताब चली जाती है। ऐसा लगता है कि किताब योगी आदित्यनाथ पर नहीं अध्यात्म और योग पर है। इस किताब को वे लोग बिल्कुल भी न पढ़े जिनको राजनीति में मजा नहीं आता क्योंकि ये नाॅवेल नहीं है। वे लोग भी न पढ़े जिनको लगता है कि इसमें योगी आदित्यनाथ का पूरा जखीरा मिलेगा।
यदा यदा हि योगी एक अच्छे लेखक की एक बेहतर किताब है। जिससे हर पत्रकार को, हर नेता, हर छात्र को तो पढ़ना चाहिये। क्योंकि इनमें वो किस्से हैं जो हमने न कहीं सुने हैं और न ही पढ़े हैं।
किताब- यदा यदा हि योगी
लेखक- विजय त्रिवेदी
प्रकाशक- वैस्टलैंड लिमिटेड

आजादी मेरा ब्रांड हरियाणवी लड़की का बेफिक्र होकर दुनिया नापने का घुमक्कड़ शास्त्र है

हर कोई पैदा होते ही घुमक्कड़ नहीं हो जाता है। कोई चलते-चलते बनता है तो कोई किसी को देखकर बन जाता है। कोई घुमक्कड़ कभी बन ही नहीं पाता है कई कोशिशें के बाद भी। लेकिन जो घुमक्कड़ होता है उसे बस घूमना होता है और नई-नई चीजें देखना होता है। हम भारतीय अक्सर ग्रुप में घूमना पसंद करते हैं अकेले कहीं जाना हमें डरा देता है लेकिन ‘आजादी मेरा ब्रांड’ कहती है कि अगर सच में घूमने जा रहे हो तो अकेले जाओ। अकेले में आपको दूसरों की फिक्र नहीं करनी पड़ती है किसी की सहूलियत पर ध्यान नहीं देना पड़ता है। जहां चाहे जाओ, कुछ भी खाओ यानि मनमौजी।


असली घुमक्कड़ किसे कहते हैं, वो कैसे होते हैं इन सबका जवाब यायावरी आवारगी की पहली श्रृंखला ‘आजादी मेरा ब्रांड’ में मिल जाता है। इस किताब को लिखा है अनुराधा बेनीवाल ने। 


अनुराधा बेनीवाल हरियाणा के रोहतक जिले से ताल्लुक रखती हैं। वे अच्छी चेस प्लेयर हैं। 15 साल की उम्र में नेशनल शतरंज प्रतियोगिता की विजेता रहीं। 16 वर्ष की उम्र में विश्व शतरंज प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया। उसके बाद उन्होंने चेस को हमेशा के लिये अलविदा कह दिया। लेकिन जब उनको लंदन में काम की जरूरत पड़ी तो चेस ही काम आया। लंदन में वे शतरंज की कोच हैं और खेलती भी हैं।

किताब के बारे में


आजादी मेरा ब्रांड कोई यात्रा वृतांत नहीं है ये तो लेखिका के संस्मरण हैं जो वे कभी बस में सोचते हुये लिखती हैं तो कभी घर के कोने से बैठकर लिख रही है। इसमें उनके यूरोप के 13 देश घूमने के संस्मरण हैं। लेकिन लेखिका बताती हैं कि वे भारत से यूरोप क्यों आई? कैसे अचानक उनको घूमने का शौक लग गया? वो हर देश में भटकती-फिरती रहती हैं। लेखिका उस देश, शहर के बारे में बताती हैं, वहां के लोगों के बारे में, घरों के बारे में इमारतों के बारे में। उनको जो समस्याएं आती हैं उन सबके बारे में। कौन-सा देश महंगा है? कहां आकर उनको सुकून मिलता है और किन बातों से उनको डर लगता है।

उनके घूमते हुये संस्मरणों में वे जो भी सोचती हैं उसकी तुलना खुद से, इस समाज से या फिर हमारे देश यानि कि भारत से करती हैं। वे बताती हैं कि वे अपनी इच्छा दबा के रखती हैं क्योंकि समाज में उनको अच्छा बना रहना है। समाज में अच्छा बना रहने की शर्त सिर्फ लड़कियों पर लागू कर दी जाती है।

उनकी तुलना इतनी जायज होती है कि लगता है वे बता नहीं रही हैं, हमसे कह रही हैं कि अब हमें इस चीज को बदलना चाहिये। हम समाज के चक्कर में आखिर क्यों बेड़ियों में बंधने का काम करें।
यूरोप अगर लेखिका के नजरों से देखें तो अच्छा भी है और घूमना भी आसान है। घूमने में सबसे ज्यादा फिक्र होती है रूकने की। लेकिन लेखिका के संस्मरणों में कहीं भी पैसे से नहीं रूकी। वे बताती हैं कि यूरोप में लोग अपने घर होस्ट पर रखते हैं यानि कि वे कुछ दिनों के लिये आपको अपने घर में रूकने के लिये बुलाते हैं। इस तरह धीरे-धीरे वे 13 देशों को घूम लेती हैं। उनके संस्मरणों में कहीं नहीं लगता कि वे वापस लौट जाना चाहती हों। वे तो अपने को बेफिक्र, बेमंजिल मुसाफिर बताती हैं जो पूरी दुनिया घूमना चाहती हैं।

अपने संस्मरणों में लेखिका समाज की बुराई-अच्छाई पर बात करती है। वो यूरोप के खुलेपन और भारत के दब्बूपन पर बात करती हैं। उन्हें लोगों से बतियाना अच्छा लगता है वे देखती हैं कि यहां के लोगों और भारत के लोगों की सोच में कितना अन्तर है। उनके इन संस्मरणों और सोच के कारण ही किताब कहीं बोर नहीं होने देती है। कुल मिलाकर जानकारी के साथ एक घुमक्कड़ की आजाद सोच से वाकिफ कराती है किताब।

कुछ किताब से


1- मुझे रात की पार्टियों से दिक्कत नहीं है, जितना कि सुबह की चाय से प्रेम है। हां, घर में बैठकर रात-भर गप्पिया लो, चाय पर चाय, आधी रात को मैगी बनवा लो, पर तैयार होकर बाहर मत बुलाओ, प्लीज।

2- अकेले दुनिया फिरने का यह भी मजा है, आप इतनी सारी जिंदगी इतनी स्पीड से जी लेते हैं। कोई कमिटमेंट नहीं होती, तो कुछ भी कर लेते हैं। कई बार बहुत कुछ कर लेते हैं।

3- समय के साथ हम बदलते भी हैं, जनबा बदलते हैं, समय बदलता है। कई बार बदले-बदले भी पसंद हो जाते हैं, कभी-कभी हजम नहीं होते। यों रिश्तों का रहस्य कायम रहता है।

4- किसी से मिलकर सिर्फ सेक्स कर पाना या सिर्फ सेक्स करने की इच्छा करने की चाह भर रखना भी हमें पाप बताया जाता है। ऐसे में कितनी बार करना तो चाहते हैं हम सेक्स, लेकिन करते हैं दोस्ती।

5- ऐय्याशी सिर्फ देह की नहीं होती है। इसका संबंध किसी भी तरह के उपभोग की अधिकता या उसके मनमानेपन से है।

किताब की खूबी


किताब एक लड़की की यात्रा का संस्मरण है लेकिन इसमें कहीं बोरियत नहीं आती। क्योंकि यात्रा के साथ-साथ लेखिका फिल्मों की तरह कभी फ्लैशबैक में चली जाती है तो कभी समस्याओं से जूझती रहती है। हर शहर की खूबसूरती होती है और वही खूबसूरती इस किताब में है। ऐसा लगता है लेखिका अपनी यात्रा की बात-बात करते हमसे बात करने लगी है जो पाठक में पकड़ बनाये रखता है।

ये किताब घुमक्कड़ों को पढ़ना चाहिये, इस समाज के ठेकेदारों और पूर्वाग्रहों बनाये रखने वाले को पढ़ना चाहिये। उन लड़कियों को पढ़ना चाहिये जो कुछ करना तो चाहती हैं लेकिन समाज के डर से ग्रहस्थी में बंधी रखती हैं।

किताब की कमी


किताब में कोई खासा कमी नहीं है लेकिन जब-जब लेखिका इतिहास की बात बताती है तो ध्यान टूटने लगता है। शायद इसलिये क्योंकि अचानक से खूबसूरती से ज्ञान आ जाता है जिसे हजम नहीं कर पाते हैं।

पूरी किताब शानदार है एक कहानी की तरह। एक लड़की है जो आराम से अच्छी बनकर रहती है। अचानक एक और लड़की आती है और घूमने का चस्का लगा देती है। उसके बाद लड़की यूरोप घूमने निकल पड़ती है। किताब के आखिर में लेखिका ने लड़कियों के लिये नोट लिखा है जो लड़कियों को आजाद पंक्षी बनने की बात करता है।

लद्दाख यात्रा की अच्छी-खासी जानकारी देती है सुनो लद्दाख किताब

बर्फ से ढके पहाड़ और आसमान की तरह ही सफेद जमीन और उसी मौसम में रोड ट्रिप करते लोग। हम सब लद्दाख के बारे में ऐसा ही सुनते आये हैं। कुछ साथी तो कहते भी हैं कि लद्दाख पर मोटरसाईकिल चलाना मेरा सपना है। लेकिन उन सपनों को तोड़ने का काम करती है नीरज मुसाफिर की किताब ‘सुनो लद्दाख’।


इससे पहले भी मैं नीरज मुसाफिर की ‘हमसफर एवरेस्ट’ पढ़ चुका हूं। दोनों की तुलना अगर मैं करूं तो पढ़ने के लिहाज से ‘सुनो लद्दाख’ अच्छी है जबकि मुश्किले वाले किस्से पढ़ने हैं तो हमसफर एवरेस्ट पढ़नी चाहिये।


नीरज मुसाफिर पेशे से इंजीनियर हैं और दिल्ली में रहते हैं। वे साल भर घूमते-रहते हैं और इसको जानने के लिये उनका फेसबुक अकाउंट देखना चाहिये। जिसमें वे हर रोज कहीं न कहीं घूम ही रहे होते हैं। नीरज किताब के अलावा अपने ब्लाॅग के जरिये लोगों से जुड़े रहते हैं। नीरज यात्रा करते हैं और उसको कलम से कभी ब्लाॅग पर तो कभी किताब में छानते हैं।

सुनो लद्दाख के बारे में 


सुनो लद्दाख किताब में नीरज मुसाफिर के दो यात्रा वृतांत हैं और दोनों ही लद्दाख के हैं। एक सर्दियों में किया जो ज्यादा मुश्किलों से भरा रहा और दूसरा अगस्त के महीने में। नीरज मुसाफिर ने दो ट्रैक किये एक चादर ट्रैक और दूसरा जांस्कर ट्रैक।

लद्दाख के बारे में अपने नजरिये से बताने की कोशिश की है यानि कि जिंदगी चल रही थी और मैं देख रहा था। जो देखा वो सब किताब में। किताब में लेह की कपकपाती सर्दी है और रोड पर फिसलन वाली बर्फ है जो लेखक को चलने से डराती है। लेखक दिल्ली से लेह हवाईयात्रा करके आता है और फिर मुसाफिरों की तरह निकल पड़ता है कभी बाजार में, कभी गांव में और चिलिंग गांव में।  किताब का पहला पड़ाव मुश्किलों से भरा दिखाई देता है जब वो चादर ट्रैक करता है। वो उस गांव के घर में ही पड़ा रहता है क्योंकि उस माइनस वाली बर्फ को झेलना बहुत मुश्किल होता है।

किताब में लद्दख के लोगों के बारे में पता चलता है, वहां की संस्कृति, रहन-सहन और उनके व्यवसाय के बारे में। लेखक थोड़ा सा चादर ट्रैक करता है और वापस लौट आता है।

जब लेखक वापस लौटता है तो मेरे मन में ख्याल आता है कि अब आगे क्या होगा? लेखक फिर से वापस आयेगा या फिर पूरी किताब में अब लेह की कहानी होगी। तभी किताब का दूसरा भाग शुरू होता है, पदुम-दारचा ट्रैक।
लेखक एक बार फिर से दिल्ली से लद्दाख के सफर पर आता है लेकिन इस बार अपने साथियों के साथ इसमें सिर्फ चढ़ाई ही चढ़ाई होती है और खर्चा भी बहुत होता है। इस भाग में बस चलते रहना था। जिसका जिक्र नीरज बार-बार करते हैं। लद्दाख महंगी जगह है ये सुनो लद्दाख में जाना जा सकता है। किस-किस रास्ते से लद्दाख जाया जा सकता है? इन रास्तों पर कौन-कौन से ट्रैक मिलते हैं इनकी जानकारी भी इस किताब में है।

सुनो लद्दाख में नीरज मुसाफिर ने एक अच्छा काम किया है कि उन्होंने किताब के अंत में लद्दाख जाने के लिये कुछ प्वाइंट दिये हैं जिनको पढ़ लिया जाये तो यात्रा आसान हो जायेगी। कुल मिलाकर यह किताब नीरज मुसाफिर का एक और यात्रा वृतांत है जो साहित्यक से ज्यादा देखे हुये लिखने जैसा है।

किताब से

सवा सात बजे एक गांव में पहुंचे, नाम था अबरान। भूख लग रही थी, एक जगह गाड़ी रोक दी गई। हमें पचास मीटर आगे एक दुकान दिखी तो पैदल ही उस दुकान की तरफ बढ़ चले। चार कप चाय बनवा ली। तीन हम और एक ड्राइवर। चाय बन गई तो हमने ड्राइवर को आवाज दी। तभी दुकान वाले ने कहा कि वो नहीं आयेगा क्योंकि वो कारगिल का रहने वाला है। ये लोग हम बौद्धों के यहां कुछ नहीं खाते, खायेंगे तो सिर्फ कारगिल वालों की दुकान पर। जहां उसने गाड़ी रोकी थी, वहां एक कारगिल वालों की दुकान है। उसने वहां चाय पी है, लेकिन हमें वो बिल्कुल दुकान नहीं लग रही थी। अगर लगती तो हम पचास मीटर आगे नहीं आये होते। हमने पूछा कि इस तरह का खान-पान का विचार आप लोग भी करते हो क्या? बोला कि नहीं, हम ऐसा नहीं करते। कारगिल जाते है तो इन्हीं लोगों के यहां खाना खाते हैं।

किताब की खूबी


किताब बिल्कुल सरल तरीके में लिखी गई है। किताब में साहित्यक भाषा न होने के बावजूद किताब अच्छी लगती है। जो भी होता है वे किताब में लिखते गये हैं बिल्कुल सीधी यात्रा की तरह। वो अपनी यात्रा को अपने अंदाज में बताते जाते हैं और यही कारण है कि किताब अच्छी है। इसके अलावा किताब जानकारियों से भरी है। सभी ने लद्दाख के बारे में सुना है लेकिन चादर, जांस्कर, चा जैसी जगहों के नाम इस किताब से मिलते हैं।

यह किताब उनको बड़ी पसंद आयेगी जो घुमक्कड़ स्वभाव के हैं। उनको भी मजा आयेगा जो सोचते हैं कि मैं लद्दाख घूमने जाऊंगा। ऐसे लोगों को इस किताब को अपने पास संभाल कर रखना चाहिये।

किताब की कमी


किताब अच्छी है इसमें कोई शक नहीं है लेकिन कमी न हो ऐसा भी नहीं है। किताब में ऐतहासिक बातें बड़ी हैं जो मुझे लगता है शायद इतिहास बताने की जरूरत नहीं थी। क्योंकि यात्रा वृतांत में यात्रा होनी चाहिये और कुछ नहीं। इसके अलावा सुंदर दृश्यों के वर्णन में रोचकता नहीं दिखती। सादा रास्ता और पहाड़ी रास्ता एक ही मनोदशा में लिखा हुआ लगता है।

सुनो लद्दाख नीरज मुसाफिर की किताबों का एक इंप्रूवमेंट है जो पिछली किताब से बेहतर है। इस किताब में पैदल यात्रा से लेकर गाड़ी यात्रा का अनुभव है। नीरज मुसाफिर की लेखनी में भी मुसाफिरपना है यानि कि बेफ्रिक, बेफ्रिक चले थे तो बेफिक्र ही लिख दिया है।

किताब- सुनो लद्दाख,लेखक- नीरज मुसाफिरप्रकाशक- रेडग्रैब बुक्स।

आज के दौर के प्रेम को वापसी इम्पाॅसिबल ने बढ़िया ढंग से पिरोया है

आज के दौर में किताबें बहुत लिखीं जा रही हैं उनमें सबसे बड़ी कैटेगरी है प्रेम। इस प्रेम कबूतर ने सबकी जिंदगी में डुबकी लगाई है, इसलिये ऐसी किताबों को पाठक पढ़ते भी हैं। ऐसी किताबें एक सुलझी हुई स्क्रिप्ट की तरह होते हैं। पहले दूरियां, फिर पास आने का प्रयास और फिर मिलन में आती बहुत सारी दिक्कतें। लेकिन अंत सुखद कर ही देते हैं। ‘वापसी इम्पाॅसिबल’ का प्रेम कबूतर थोड़ा अलग है, आज के प्रेम जैसा। वापसी इम्पाॅसिबल कुछ फैसलों की, एक विश्वास की कहानी है जिसके टूटने पर वह उसकी कभी वापसी नहीं होती।




इस किताब की लेखिका हैं सुरभि सिंघल। सुरभि अपनी पढ़ाई के साथ लेखन में रूचि रखती हैं और उसी लेखन से निकली हैं उनकी किताबें। उनकी पहली किताब है ‘फीवर 104 डिग्री’ और उसके बाद दूसरी किताब आई ‘वापसी इम्पाॅसिबल’।

क्या है कहानी?


कहानी है एक लड़की की जो अकेली है खुद से भी और दुनिया से भी, नाम है सुरम्या। उसी अकेलेपन को दूर करने के लिये फेसबुक की गलियों में चक्कर लगाती है। उसी फेसबुक की गली में उसकी मुलाकात होती है अनुसार से। अनुसार से बात बढ़ती है और बात ऐसी हो जाती है कि सोने से पहले अनुसार और सोने के बाद अनुसार। इसी बीच सुरम्या काॅलेज के लिये देहरादून चली जाती है।

देहरादून में उसकी मुलाकात एक और लड़के से होती है विशेष से। विशेष शहरी लड़का है जिसे जो पसंद आता है वो फक्क से कह देता है। अनुसार से बात करते-करते वो विशेष को भी हां कह देती है। सुरम्या इश्क के परवान में थी लेकिन वक्त मोड़ लेता है और लिया भी।

बस इसी तीनों के बीच में कहानी डाल-मडोल होने लगती है। अनुसार बीच-बीच में देहरादून आता और फिर चला जाता। अब सुरम्या एक साथ दो जिंदगियों में चल रही थी अनुसार और विशेष की। अनुसार में उसे अपनापन दिखता था, फिक्र दिखती थी। वो जानती थी कि अनुसार उससे प्यार करता है लेकिन मन में ये भी कहती कि इस रिश्ते का कोई भविष्य नहीं है। इसी सोच से उसने विशेष को भी हां कह दी थी कि अनुसार तो है ही विशेष लोकल का है तो काम आयेगा।

इस फैसले के बाद सुरम्या की जिंदगी उखड़ने लगी थी और फिर लखनऊ, दिल्ली के कई सफर आये लेकिन सुरम्या का प्रेम कबूतर की वापसी नहीं हुई। उसी प्रेम कबूतर के ऊपर चढ़ने, फिर गिरने की कहानी है वापसी इम्पाॅसिबल। इश्क के शहर में विश्वास की डोर को बरकरार न रख पाई सुरम्या। किताब के अंत में वो आखिरी मुलाकत और बातें हैं जो आपके अंदर एक बेरूखी ला देंगी यानि वो दर्द पनपने लगेगा कि काश सुरम्या प्रेम को खेल न समझती।

किताब का अदना सा अंक

 मैं अब समझ चुकी थी कि अब अनुसार मेरा जरा भी नहीं रहा। वजह यही थी, या जो भी... अब मैं जानना नहीं चाहती थी। शायद मेरी सजा अब पूरी हो चुकी थी, इसलिए अब मुक्ति का वक्त आ गया था। मैंने अब निश्चय कर लिया था, अनुसार की जिंदगी में कभी वापस न लौट जाने का। जिसके लिये मैंने सब कुछ सहा- मार पिटाई, जिल्लत, ताने, गालियां, भूख, अंधेरी कोठरी का डर, जहां चूहे हर वक्त मुझ पर चढ़े रहते... सब कुछ। वो इस कदर नाराज हो जाएगा, ये सोच पाने से आसान मेरे लिये मौत थी, जो जाहिराना तौर पर इस जिंदगी से... इससे खूबसूरत ही होती। लेकिन मैंने वक्त और हालात के आगे घुटने टेक दिए; अपने तरीके से, अपनी जिंदगी पूरी तरह दूसरी शर्तों पर सौंप दी। अपने मन की तो करके देख चुकी थी, अब बारी अपनों के मन की करके देखने की थी।

किताब की खूबी


किताब की कहानी अच्छी है जो कुछ रोचक ढंग से बताई भी गई है, बिल्कुल एक मूवी की स्क्रिप्ट की तरह। जिसमें डायलाॅग भी पूरी तरह से लिखकर दिये गये हैं। प्रेम के परवानों से लेकर, प्यार का रूठना, मनाना और फिर वो नाटकीय मोड़ जो कहानी को अंत की ओर ले जाता है। लेखिका कोई साहित्यकार नहीं है तो शब्दों के चयन पर इतना जोर नहीं है हालांकि कहीं-कहीं अच्छे शब्द मिल जाते हैं। कहानी इस दौर के प्रेम को बखूबी बयां करती है।

वापसी इम्पाॅसिबल कहानी है एक लड़की की। जो अपने सपने और अनुसार के प्यार को लेकर देहरादून आती है और फिर वही प्यार उनकी जिंदगी में तीसरा मोड़ लेता है विशेष का। सुरम्या चाहती थी कि वो दोनों के बीच में बनी रही। कई बार उसे विशेष से दूर होने की कोशिश भी की, लेकिन वापसी इम्पाॅसिबल थी। इस कहानी के आखिर में पाठक न चाहकर भी वो अंत स्वीकार करता है जो लेखिका ने दिया है।

बुक- वापसी इम्पाॅसिबललेखिका- सुरभि सिंघलप्रकाशक- रेडग्रैब बुक्स।



दो दिलों के मेल की एक कहानी जिसमें भावनाओं और प्रेम का संगीत है

एक मूवी है लव स्टोरी की। लड़का और लड़की पहले दोस्त होते हैं और फिर प्यार हो जाता है लेकिन प्यार का इजहार कोई नहीं करता। एक दिन लड़की इजहार करना चाहती है तो लड़का गायब। फिर वही दिल टूटना और फिर जब सब नाॅर्मल था तो अचानक लड़के को दोबारा वापस आना। इसी तर्ज पर है ये किताब। लेकिन ऐसे कहना थोड़ा नकारात्मकता दिखा रहा है। अपने आस-पास कई कहानी हैं, हर किसी की कहानी है। चाय की चर्चा से लेकर, गली के नुक्कड़ में कहानी है लेकिन उसे ढ़ूढ़ना कहानीकार का काम है। बस उसी कहानी को ढ़ूढ़ने के चक्कर में वो फिल्म वाली स्टोरी बन जाती है। जिसका नाम है- ‘हर किसी की होती है कहानी’।


सवि शर्मा- लेखिका।
इस किताब को अपने शब्दों से तराशा है सवि शर्मा ने। सवि शर्मा ने सीए की पढ़ाई छोड़कर कहानीकार बनने का सपना पूरा किया। उनकी अब तक तीन किताबें आ चुकी हैं।उनका पहला उपन्यास ‘एवरी वन हैज ए स्टोरी’ है, जिसे उन्होंने खुछ प्रकाशित भी किया था। हाल ही में इसी का दूसरा पार्ट भी आ चुका है। सवि शर्मा सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव रहती हैं, खासा इंस्टाग्राम पर। उनके बारे में किताब में लिखा है कि उन्हें कैफे में बैठकर लोगों को परखना पसंद है, जहां से अक्सर उन्हें अपनी कहानियां मिलती हैं।

किताब में कहानी


एक लड़की है मीरा। जो एक अच्छे से कैफे में अक्सर आती है और काॅफी पीती है। उसे एक कहानी की जरूरत है जो वो यहां आए लोगों में खोजती है। ऐसे ही एक बुक लाॅचिंग के दिन उसे एक कहानी मिल जाती है, विवान की कहानी। उसी कहानी को पाने के लिये वो उस लड़के के बारे में जान लेना चाहती है लेकिन उनकी मुलाकात जल्दी नहीं हो पाती है। लेकिन एक तयशुदा योजना उनको मिला ही देती है उसी कैफे में, जहां मीरा ने पहली बार उसे देखा था।

किताब की कहानी दो एंगल से चलती है। एक नजरिया होता है मीरा का और दूसरा नजरिया विवान का। इसलिये ये कहने गलत है कि ये मीरा की कहानी है। इससे बेहतर ये है कि दो अजनबियो की कहानी जो एक-दूसरे से किसी न किसी मकसद से मिलना चाहते हैं।

मीरा तो किताब के लिए विवान से मिल रही थी क्योंकि उसे उसमें कोई कहानी दिखती थी। जबकि विवान घूमना चाहता था मुसाफिरों की तरह। विवान उसे वो कहानी सुनाता है जो वो सुनाना चाहता है। विवान की जिंदगी में कोई मोड़ न देखकर मीरा निराश हो जाती है। तभी किताब की कहानी पलटती है और वो पहुंच जाती है कैफे में काम करने वाले कबीर के पास। कबीर के पास भी एक कहानी है और उसी कहानी को वो सुनते हैं।

कहानी फिर भी विवान-मीरा से अलग नहीं भागती है दोनों अब हर पल साथ में गुजारने लगते हैं। ज्यादा देर तक वे उसी कैफे में होते और अपनी बातें करते। कहानी बड़े ही हौले-हौले चलती है मानों न लेखक को कोई जल्दी है और न ही पाठक को। मीरा-विवान को एक-दूसरे से प्यार हो जाता है लेकिन अगले दिन कुछ ऐसे घटता है जो एक सपना रहता है और दूसरे का दुःख बन जाता है। कहानी आखिर तक दो फेस तक चलती है। जब मीरा बेतरतीब होकर रोती रहती है और विवान दुनिया के बेहतरीन नजारों को देख रहा होता है। दोनों ही नजरियों में एक-दूसरे के लिए प्यार उमड़ ही आता है। कभी वो उन्हें सनसेट में दिखता, कभी रेत में।


कहानी इन खुशी के मोड़ के बाद, सपनों के सपोलों से होकर अंत तक बढ़ती है। जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ता हूं। मुझे अंत सताता है कि कहीं ऐसा न हो कि दोनों मिल न पायें। मैं जल्दी ही कहानी का आखिर जानना चाहता था लेकिन क्रम से। अंत दुख तक चला जाता है और फिर मीरा अंधेरे में डूब जाती है और विवान साथ होकर भी साथ नहीं हो पाता है लेकिन आखिर की कुछ लाइनें मेरे चेहरे पर मुस्कान ला देती है क्योंकि कहानी के आखिर वैसा ही हुआ था जैसा मैं चाहता था ‘खूबसूरत’।

अन्य किरदार


किताब की कहानी सिर्फ प्यार की कहानी नहीं है। ये कहानी है दोस्तों की भी है जिसमें मीरा और विवान तो हैं ही, उसके अलावा निशा और कबीर भी हैं। ऐसी दोस्ती जिसे अपना हक जमाना भी आता है और बुरे वक्त में साथ देना भी। दोस्त से अगर गलती हो जाए तो उसे माफ करके गले लगाना भी आता है। ऐसी ही दोस्ती की भी एक अच्छी कहानी है ये किताब।

किताब से कुछ


हमारी किस्मत और सफर का फैसला समय के हाथों में ही होता है। और जब समय बदलता है, तो सब बदल जाता है। सब कुछ। कभी बुरे के लिए, और कभी अच्छे के लिये। तुमसे मिलने से पहले तक मैं ऐसा कभी नहीं मानता था।
           यह कोई कहानी नहीं है, और शायद प्यार भी नहीं। यह कहानियों से ज्यादा वास्तविक और प्यार से ज्यादा ताकतवर है। यह तुम हो। हां, तुम। सच्ची और ताकतवर।

किताब की खूबी


किताब की खूबी उसकी कहानी से ज्यादा उसके शब्दों में है, जो बिना हड़बड़ाहट के धीरे-धीरे चलती है। मानों लगता है कहानी में रसता कहानी नहीं वो बातें हैं जो मीरा और विवान खुद से कहते हैं। उसके अलावा कहानी में उतार-चढ़ाव और अचानक से होती घटनाएं इसकी खूबी है और दो एंगल से कहानी बताई गई जो कहानी को बेहतर बनाता है।

इस किताब को मैंने हिंदी में पढ़ा है। मेरे ख्याल से लेखक ने जैसी अंग्रेजी में लिखी है अनुवादक ने वैसी ही हिंदी में रखा है। जो प्यार के बारे में पढ़ना चाहते हैं तो बकवास कहानियों से बेहतर है कि इस किताब को पढ़ें।

मुझे ये किताब अच्छी लगी। इसमें बोर होने के लिए कुछ नहीं है। मैंने किताब पढ़नी शुरू की और फिर पढ़ता चला गया। मुझ कई बार लगा कि ये कोई काल्पनिक कहानी नहीं है ये उसी लेखिका की तराशी हुई कहानी है जो उसने मीरा बनकर कह दी है। अब ये शायद लेखिका के लेखन की खूबी है कि उसे पाठक रम जाये। जहां उसे मोबाइल की घंटी की आवाज की बजाय किताब के पन्नों की सरकने की आवाज आये।

बुक- एवरीवन हैज स्टोरी(हिंदी)लेखिका- सवि शर्माअनुवादक- उर्मिला गुप्ताप्रकाशन- वेस्टलैंड पब्लिकेशन लिमिटेड।

इनरलाइन पासः लेखक के हर कदम के साथ मन भी निकल पड़ता है एक यात्रा पर

मुझे यात्रा का विवरण तभी पसंद आता है। जब उसके शब्द मुझे उसी यात्रा पर ले चलें, जिन पर वो घंटो चलता रहा है। मुझे भी उसी उमड़-घुमड़ गलियों के चक्कर लगाये और वो अपने मन की परतें खोल कर रख दे। ऐसा यात्रा विवरण कुछ आर्टिकलों में मिल जाता है लेकिन घुमक्कड़ अपनी कलम में वो जादू किताब में नहीं दिखा पाते। ‘इनरलाइन पास’ किताब ऊपर लिखी सारी बातों पर फिट बैठती है। इनरलाइन पास एक बेहतरीन यात्रा का रोमांच भरा विवरण है जो आपको शब्दों से अपने कैमरे की ओर खींच लेता है।



लेखकः उमेश पंत।
इस किताब के लेखक हैं उमेश पंत। उमेश पंत उत्तराखंड के रहने वाले हैं। उन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर से मास कम्युनिकेशन में एम.ए. किया। उमेश ने मुंबई की बालाजी टेलीफिल्म्स में बतौर एसोसिएट राइटर काम किया। उन्होंने रेडियो पर कहानी सुनाने वाले नीलेश मिसरा के लिए कहानी भी लिखीं। ग्रामीण अखबार गांव कनेक्शन के लिए लेखन कार्य करते रहे। उनकी ‘गुल्लक’ नाम की एक बेबसाइट भी है और हाल ही ‘यात्राकार’ नाम की बेबसाइट चला रहे हैं। जिसमें घुमक्कड़ों के यात्रा वृतांत पढ़े जा सकते हैं।

इनरलाइन पास


इनरलाइन पास में उमेश पंत का एक यात्रा विवरण है। विवरण मैदानी इलाके से पहाड़ी की चोटी तक पहुंचने का विवरण। लेकिन इसे सिर्फ यात्रा वृतांत या विवरण नहीं कहा जा सकता। ये तो अनुभव की एक श्रृंखला है जो मैदानी इलाके से होकर पहाड़, गलियारों, बुग्यालों में मिलते हैं। उसी अनुभव को लेखक ने इनरलाइन पास में रखा है। आदि कैलाश की यात्रा का एक बेहतरीन एहसासों वाला विवरण है जो लेखक के साथ-साथ विचरण करता है।

लेखक ने इसमें सिर्फ ये नहीं बताया कि मैं कहां था, कैसे पहुंचा? उन्होंने तो एक वक्त को थामकर पूरी यात्रा बताई है। मानों अपने हर एक कदम की जानकारी हमें दे रहे हों। वे जो देख रहे थे और जो सोच रहे थे उस सब को इस किताब मेें वे रखते गये हैं।

अपनी 200 किमी. की पैदल यात्रा का हर अनुभव, हर चित्र अपनी एहसासों से भर देते। उनकी इस यात्रा के बीच कई कहानियां भी हैं। इसमें एक मां की अपनी बेबसी की कहानी है, एक फौजी की मजबूरी की कहानी है और एक बाप भी है जो अपने बच्चे के भविष्य को सुरक्षित करना चाहता है। शुरूआती सफर में लेखक अपने घुमक्कड़पने की बातें करते हैं, अपने बारे में बताते हैं, शहर के बारे में बताते हैं और फिर जहां जैसी जगह मिले चल पड़ते हैं।

किताब का पहला पड़ाव बड़ा आसान सा दिखता है। जिसमें पहाड़ों की खूबसूरती है, वो हरे-भरे बुग्याल हैं जो सफर की थकान दूर कर देते हैं, रास्ते में मिलते नए चेहरे हैं जो अपने में एक कहानी लेकर बैठे हैं। ऐसे ही कुछ बातों और खुशफहमी के साथ वो आदि कैलाश की बर्फ वाली पहाड़ देखते हैं। जो बिल्कुल स्वर्ग के समान है, जहां इंसान तो नहीं रहते लेकिन रहती है इस प्रकृति की झलक।

खूबसूरत प्रकृति।

किताब का दूसरा पड़ाव अचानक बदल जाता है। जो मौसम उनके साथ था वो उनके विपरीत हो जाता है। हर पल, हर घड़ी उनको एक खतरा मिलता है। कभी वो बारिश के रूप में, कभी दरकती चट्टानों में और वो उफनती नदी जिसके आगे सब बेबस थे।

लेखक के लिए वो रात सबसे लंबी और दर्दनाक थी। जब उनको एक सुनसान जंगल में गुजारनी पड़ी। ठंड, बारिश और उनका बदन सब उस दास्तां के गवाह थे। पहले जिस लेखक को प्रकृति में रस, सुन्दरता नजर आ रही थी। अब वो बस उस जगह से निकलने की सोच रहा था, वो नई सुबह का इंतजार कर रहा था। वहां से निकलने के बाद किताब अब डर और हिम्मत की लड़ाई के बीच चलने लगी थी। ये लड़ाई खत्म हुई धारचूला में जाकर, जहां सब शांत था प्रकृति भी और लोग भी।

किताब से कुछ


चलो इस नदी के स्त्रोत की तरफ चलते हैं। हो सकता है किसी जगह पर यह संकरी हो और हमें फांदकर पार करने का मौका मिल जाए। हमारे दिमाग में आया यही ख्याल हमें सबसे मुफीद जान पड़ा। अपने बैग उठाए और नदी के किनारे-किनारे उस पहाड़ी पर चढ़ने लगे जहां से वो नदी आती हुई दिख रही थी।
              कुछ देर में हम नदी के एक किनारे एक पहाड़ी पर खड़े थे और अंदाजा लगा रहे थे कि कहां से कहां कूदकर हम नदी पार कर सकते हैं। जितनी देर में हम तय करते कि यहां से यहां कूदेंगे और फिर यहां से यहां। उतनी देर में नदी उस यहां का अस्तित्व मिटा देती। ऐसा लग रहा था कि वो हमारे मनुष्य होने का मजाक उड़ा रही हो। मैं अपने पर आ गई तो तुम्हारी कोई औकात नहीं।

किताब की खूबी


किताब की खूबी उसकी भाषा है जो सीधे-सीधे चलते हुए भी सीधी नहीं होती। लेखक हर वक्त-बेवक्त कुछ न कुछ बताता रहता है। वो सफर के छोर से लेकर, हर संभावना पर बात करता है। उसके यही भाषा और शब्द पाठक को बांधने में एक आकर्षण ला देते हैं। इसके अलावा किताब जानकारी से भरी हुई है। अगर आपको आदि कैलाश जाना है तो इस किताब को साथ में रख लेना चाहिए।

इस किताब को कौन पढ़े? जो घुमक्कड़ हैं, जो घूमने की सोच रहे हैं, जिन्हें घूमना पसंद है उन सबके लिए ये किताब है। इस किताब को पढ़कर एकबारगी लगेगा जाना चाहिए फिर ख्याल आयेगा कि कहीं हम जंगल में फंस गये तो?

इनरलाइन पास, उमेश पंत की एक बेहतरीन किताब है। मैंने अभी तक पहाड़ों के यात्रा वृतांत की किताबें पढ़ी हैं। उसमें सबसे अच्छी किताब मुझे यही लगी। इस किताब ने मुझे अपने में ऐसा बांधा कि एक बार किताब शुरू की तो लगातार घंटों पढ़ता रहा और उस सफर के अंत के साथ ही किताब पूरी की। किताब का लेखक पत्रकार है, कहानी भी लिखता है। शायद इसलिए किताब को बेहतरीन ढंग से लिख पाया, बिल्कुल एक कहानी की तरह।

किताब- इनरलाइन पासलेखक- उमेश पंतप्रकाशन- हिन्द युग्म।