बर्फ से ढके पहाड़ और आसमान की तरह ही सफेद जमीन और उसी मौसम में रोड ट्रिप करते लोग। हम सब लद्दाख के बारे में ऐसा ही सुनते आये हैं। कुछ साथी तो कहते भी हैं कि लद्दाख पर मोटरसाईकिल चलाना मेरा सपना है। लेकिन उन सपनों को तोड़ने का काम करती है नीरज मुसाफिर की किताब ‘सुनो लद्दाख’।
इससे पहले भी मैं नीरज मुसाफिर की ‘हमसफर एवरेस्ट’ पढ़ चुका हूं। दोनों की तुलना अगर मैं करूं तो पढ़ने के लिहाज से ‘सुनो लद्दाख’ अच्छी है जबकि मुश्किले वाले किस्से पढ़ने हैं तो हमसफर एवरेस्ट पढ़नी चाहिये।
नीरज मुसाफिर पेशे से इंजीनियर हैं और दिल्ली में रहते हैं। वे साल भर घूमते-रहते हैं और इसको जानने के लिये उनका फेसबुक अकाउंट देखना चाहिये। जिसमें वे हर रोज कहीं न कहीं घूम ही रहे होते हैं। नीरज किताब के अलावा अपने ब्लाॅग के जरिये लोगों से जुड़े रहते हैं। नीरज यात्रा करते हैं और उसको कलम से कभी ब्लाॅग पर तो कभी किताब में छानते हैं।
सुनो लद्दाख किताब में नीरज मुसाफिर के दो यात्रा वृतांत हैं और दोनों ही लद्दाख के हैं। एक सर्दियों में किया जो ज्यादा मुश्किलों से भरा रहा और दूसरा अगस्त के महीने में। नीरज मुसाफिर ने दो ट्रैक किये एक चादर ट्रैक और दूसरा जांस्कर ट्रैक।
लद्दाख के बारे में अपने नजरिये से बताने की कोशिश की है यानि कि जिंदगी चल रही थी और मैं देख रहा था। जो देखा वो सब किताब में। किताब में लेह की कपकपाती सर्दी है और रोड पर फिसलन वाली बर्फ है जो लेखक को चलने से डराती है। लेखक दिल्ली से लेह हवाईयात्रा करके आता है और फिर मुसाफिरों की तरह निकल पड़ता है कभी बाजार में, कभी गांव में और चिलिंग गांव में। किताब का पहला पड़ाव मुश्किलों से भरा दिखाई देता है जब वो चादर ट्रैक करता है। वो उस गांव के घर में ही पड़ा रहता है क्योंकि उस माइनस वाली बर्फ को झेलना बहुत मुश्किल होता है।
जब लेखक वापस लौटता है तो मेरे मन में ख्याल आता है कि अब आगे क्या होगा? लेखक फिर से वापस आयेगा या फिर पूरी किताब में अब लेह की कहानी होगी। तभी किताब का दूसरा भाग शुरू होता है, पदुम-दारचा ट्रैक।
लेखक एक बार फिर से दिल्ली से लद्दाख के सफर पर आता है लेकिन इस बार अपने साथियों के साथ इसमें सिर्फ चढ़ाई ही चढ़ाई होती है और खर्चा भी बहुत होता है। इस भाग में बस चलते रहना था। जिसका जिक्र नीरज बार-बार करते हैं। लद्दाख महंगी जगह है ये सुनो लद्दाख में जाना जा सकता है। किस-किस रास्ते से लद्दाख जाया जा सकता है? इन रास्तों पर कौन-कौन से ट्रैक मिलते हैं इनकी जानकारी भी इस किताब में है।
सुनो लद्दाख में नीरज मुसाफिर ने एक अच्छा काम किया है कि उन्होंने किताब के अंत में लद्दाख जाने के लिये कुछ प्वाइंट दिये हैं जिनको पढ़ लिया जाये तो यात्रा आसान हो जायेगी। कुल मिलाकर यह किताब नीरज मुसाफिर का एक और यात्रा वृतांत है जो साहित्यक से ज्यादा देखे हुये लिखने जैसा है।
किताब बिल्कुल सरल तरीके में लिखी गई है। किताब में साहित्यक भाषा न होने के बावजूद किताब अच्छी लगती है। जो भी होता है वे किताब में लिखते गये हैं बिल्कुल सीधी यात्रा की तरह। वो अपनी यात्रा को अपने अंदाज में बताते जाते हैं और यही कारण है कि किताब अच्छी है। इसके अलावा किताब जानकारियों से भरी है। सभी ने लद्दाख के बारे में सुना है लेकिन चादर, जांस्कर, चा जैसी जगहों के नाम इस किताब से मिलते हैं।
यह किताब उनको बड़ी पसंद आयेगी जो घुमक्कड़ स्वभाव के हैं। उनको भी मजा आयेगा जो सोचते हैं कि मैं लद्दाख घूमने जाऊंगा। ऐसे लोगों को इस किताब को अपने पास संभाल कर रखना चाहिये।
किताब अच्छी है इसमें कोई शक नहीं है लेकिन कमी न हो ऐसा भी नहीं है। किताब में ऐतहासिक बातें बड़ी हैं जो मुझे लगता है शायद इतिहास बताने की जरूरत नहीं थी। क्योंकि यात्रा वृतांत में यात्रा होनी चाहिये और कुछ नहीं। इसके अलावा सुंदर दृश्यों के वर्णन में रोचकता नहीं दिखती। सादा रास्ता और पहाड़ी रास्ता एक ही मनोदशा में लिखा हुआ लगता है।
सुनो लद्दाख नीरज मुसाफिर की किताबों का एक इंप्रूवमेंट है जो पिछली किताब से बेहतर है। इस किताब में पैदल यात्रा से लेकर गाड़ी यात्रा का अनुभव है। नीरज मुसाफिर की लेखनी में भी मुसाफिरपना है यानि कि बेफ्रिक, बेफ्रिक चले थे तो बेफिक्र ही लिख दिया है।
इससे पहले भी मैं नीरज मुसाफिर की ‘हमसफर एवरेस्ट’ पढ़ चुका हूं। दोनों की तुलना अगर मैं करूं तो पढ़ने के लिहाज से ‘सुनो लद्दाख’ अच्छी है जबकि मुश्किले वाले किस्से पढ़ने हैं तो हमसफर एवरेस्ट पढ़नी चाहिये।
नीरज मुसाफिर पेशे से इंजीनियर हैं और दिल्ली में रहते हैं। वे साल भर घूमते-रहते हैं और इसको जानने के लिये उनका फेसबुक अकाउंट देखना चाहिये। जिसमें वे हर रोज कहीं न कहीं घूम ही रहे होते हैं। नीरज किताब के अलावा अपने ब्लाॅग के जरिये लोगों से जुड़े रहते हैं। नीरज यात्रा करते हैं और उसको कलम से कभी ब्लाॅग पर तो कभी किताब में छानते हैं।
सुनो लद्दाख के बारे में
सुनो लद्दाख किताब में नीरज मुसाफिर के दो यात्रा वृतांत हैं और दोनों ही लद्दाख के हैं। एक सर्दियों में किया जो ज्यादा मुश्किलों से भरा रहा और दूसरा अगस्त के महीने में। नीरज मुसाफिर ने दो ट्रैक किये एक चादर ट्रैक और दूसरा जांस्कर ट्रैक।
लद्दाख के बारे में अपने नजरिये से बताने की कोशिश की है यानि कि जिंदगी चल रही थी और मैं देख रहा था। जो देखा वो सब किताब में। किताब में लेह की कपकपाती सर्दी है और रोड पर फिसलन वाली बर्फ है जो लेखक को चलने से डराती है। लेखक दिल्ली से लेह हवाईयात्रा करके आता है और फिर मुसाफिरों की तरह निकल पड़ता है कभी बाजार में, कभी गांव में और चिलिंग गांव में। किताब का पहला पड़ाव मुश्किलों से भरा दिखाई देता है जब वो चादर ट्रैक करता है। वो उस गांव के घर में ही पड़ा रहता है क्योंकि उस माइनस वाली बर्फ को झेलना बहुत मुश्किल होता है।
किताब में लद्दख के लोगों के बारे में पता चलता है, वहां की संस्कृति, रहन-सहन और उनके व्यवसाय के बारे में। लेखक थोड़ा सा चादर ट्रैक करता है और वापस लौट आता है।
जब लेखक वापस लौटता है तो मेरे मन में ख्याल आता है कि अब आगे क्या होगा? लेखक फिर से वापस आयेगा या फिर पूरी किताब में अब लेह की कहानी होगी। तभी किताब का दूसरा भाग शुरू होता है, पदुम-दारचा ट्रैक।
लेखक एक बार फिर से दिल्ली से लद्दाख के सफर पर आता है लेकिन इस बार अपने साथियों के साथ इसमें सिर्फ चढ़ाई ही चढ़ाई होती है और खर्चा भी बहुत होता है। इस भाग में बस चलते रहना था। जिसका जिक्र नीरज बार-बार करते हैं। लद्दाख महंगी जगह है ये सुनो लद्दाख में जाना जा सकता है। किस-किस रास्ते से लद्दाख जाया जा सकता है? इन रास्तों पर कौन-कौन से ट्रैक मिलते हैं इनकी जानकारी भी इस किताब में है।
सुनो लद्दाख में नीरज मुसाफिर ने एक अच्छा काम किया है कि उन्होंने किताब के अंत में लद्दाख जाने के लिये कुछ प्वाइंट दिये हैं जिनको पढ़ लिया जाये तो यात्रा आसान हो जायेगी। कुल मिलाकर यह किताब नीरज मुसाफिर का एक और यात्रा वृतांत है जो साहित्यक से ज्यादा देखे हुये लिखने जैसा है।
किताब से
सवा सात बजे एक गांव में पहुंचे, नाम था अबरान। भूख लग रही थी, एक जगह गाड़ी रोक दी गई। हमें पचास मीटर आगे एक दुकान दिखी तो पैदल ही उस दुकान की तरफ बढ़ चले। चार कप चाय बनवा ली। तीन हम और एक ड्राइवर। चाय बन गई तो हमने ड्राइवर को आवाज दी। तभी दुकान वाले ने कहा कि वो नहीं आयेगा क्योंकि वो कारगिल का रहने वाला है। ये लोग हम बौद्धों के यहां कुछ नहीं खाते, खायेंगे तो सिर्फ कारगिल वालों की दुकान पर। जहां उसने गाड़ी रोकी थी, वहां एक कारगिल वालों की दुकान है। उसने वहां चाय पी है, लेकिन हमें वो बिल्कुल दुकान नहीं लग रही थी। अगर लगती तो हम पचास मीटर आगे नहीं आये होते। हमने पूछा कि इस तरह का खान-पान का विचार आप लोग भी करते हो क्या? बोला कि नहीं, हम ऐसा नहीं करते। कारगिल जाते है तो इन्हीं लोगों के यहां खाना खाते हैं।
किताब की खूबी
किताब बिल्कुल सरल तरीके में लिखी गई है। किताब में साहित्यक भाषा न होने के बावजूद किताब अच्छी लगती है। जो भी होता है वे किताब में लिखते गये हैं बिल्कुल सीधी यात्रा की तरह। वो अपनी यात्रा को अपने अंदाज में बताते जाते हैं और यही कारण है कि किताब अच्छी है। इसके अलावा किताब जानकारियों से भरी है। सभी ने लद्दाख के बारे में सुना है लेकिन चादर, जांस्कर, चा जैसी जगहों के नाम इस किताब से मिलते हैं।
यह किताब उनको बड़ी पसंद आयेगी जो घुमक्कड़ स्वभाव के हैं। उनको भी मजा आयेगा जो सोचते हैं कि मैं लद्दाख घूमने जाऊंगा। ऐसे लोगों को इस किताब को अपने पास संभाल कर रखना चाहिये।
किताब की कमी
किताब अच्छी है इसमें कोई शक नहीं है लेकिन कमी न हो ऐसा भी नहीं है। किताब में ऐतहासिक बातें बड़ी हैं जो मुझे लगता है शायद इतिहास बताने की जरूरत नहीं थी। क्योंकि यात्रा वृतांत में यात्रा होनी चाहिये और कुछ नहीं। इसके अलावा सुंदर दृश्यों के वर्णन में रोचकता नहीं दिखती। सादा रास्ता और पहाड़ी रास्ता एक ही मनोदशा में लिखा हुआ लगता है।
सुनो लद्दाख नीरज मुसाफिर की किताबों का एक इंप्रूवमेंट है जो पिछली किताब से बेहतर है। इस किताब में पैदल यात्रा से लेकर गाड़ी यात्रा का अनुभव है। नीरज मुसाफिर की लेखनी में भी मुसाफिरपना है यानि कि बेफ्रिक, बेफ्रिक चले थे तो बेफिक्र ही लिख दिया है।
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