कहते हैं कि किताबें हमारी सबसे अच्छी दोस्त होती हैं और अगर किताब कोई ऐसी मिल जाये जिसको पढ़कर लगे ‘‘यार कुछ ऐसी ही मेरी भी कहानी है, बस थोड़ा इधर का उधर है।’’ तो वही सुकून मिलता है जो एक प्यासे को पानी पीने के बाद मिलता है और शिकारी को अपना शिकार मिलने के बाद, जो खुशी होती है। बस वही खुशी मुझे ‘बनारस टाॅकीज’ को पढ़कर हुई।
हर घटना के पीछे कोई कारण होता है। संभव है कि यह घटित होते वक्त आपको न दिखे; जब यह सामने आएगा, आप सन्न रह जायेंगे।- ज़िग ज़िग्लर
इस किताब के शीर्षक से ही पता चलता है कि यह किताब बनारस के ऊपर है। इसमें लेखक ने सिर्फ बनारस को लिखा ही नहीं है, बल्कि बनारस की मिठास को घोल दिया है। जो भी इसको पढ़ेगा, उसको पक्का बनारस से प्यार हो जायेगा। इस किताब में बनारस की वो ठेठ बोली भी है और जहां बनारस है वहां महादेव न हो, ऐसा हो नहीं सकता। यहां सबके दिल में महादेव और मुंह में उनका प्रसाद है। यहां लंका गेट भी और अस्सी घाट भी है।
अस्सी घाट। दक्षिण से उत्तर की ओर जाते हुए पहला घाट। वरूणा और अस्सी नदियों के संगम का घाट। संतों का घाट, चंटों का घाट। कवियों का घाट, छवियों का घाट। गंजेड़ियों का घाट, भँगेड़ियों का घाट। मेरा घाट, दादा का घाट। हमारा घाट।
बनारस टाॅकीज बनारस यूनिवर्सिटी के भगवानदास होस्टल में रहने वाले भविष्य के वकीलों, मजिस्ट्रेट और जजों की कहानी है। वैसे तो इसमें बहुत से किरदार हैं। लेकिन किताब के पहले पन्ने पर बता दिया जाता है कि यह मुख्यतः तीन दोस्तों पर गढ़ी हुई कहानी है। जिसमें एक सूरज बाबा हैं, अनुराग डे हैं और जयवर्धने हैं। इनके अलावा रोशन हैं, नवेंदु जी हैं, दूबे जी हैं और शिखा है जिसकी प्रेम कहानी भी इसमें गढ़ी है। इनका परिचय सत्य व्यास बड़े रोचकता से देते हैं।
“रूम नंबर -73 में जाइए और जाकर पूछिये की भगवान दास कौन थे? जवाब मिलेगा ‘घंटा’! ये हैं जयवर्धन शर्मा जो बिहार से हैं। लेक्चर, घंटा! लेक्चरर, घंटा! भगवान, घंटा! गलत कहते हैं कहनेवाले की दुनिया किसी त्रिशूल पर टिकी है। यह दरअसल, जयवर्धन शर्मा की ‘घंटे’ पर टिकी हैय और वो खुद अपनी कहावतों पर टीके हैं। हर बात पर एक कहावत कहते हैं। उनकी कुछ कहावते, जैसे- ‘गई मांगने पूत को, खो गई भतार!’
‘बुड़बक की यारी और भादो में उजियारी!’
‘खुरपी के वियाह में, सुप का गीत!’
‘आन्हर गुरु बहिर चेला, मांगे गुड़ ता दे दे ढेला!’
ये कहावते खासकर यूपी-बिहार में खूब प्रचलित है और सत्य व्यास ने इनका बिलकुल सही जगह पर उचित अर्थ के साथ उपयोग किया है। इसके अलावे लोकल बोली का भी इस्तेमाल किया गया है जो इस किताब को एक अलग ही रूप देता है। और बनारस का रंग भर देती है।
ये तो थी जयवर्धन की बात। पर सभी दोस्त कुछ इसी तरह के थे। अनुराग डे दृ क्रिकेट प्रेमी और बातें भी क्रिकेट के स्टाइल में करते हैं! ‘अरे साल, का लेक्चर है जैसे की गार्नर का बाउंसर!’ कुछ इस तरह। इनके रूम पार्टनर हैं- सूरज ‘बाबा’। सूरज को गल्र्स हॉस्टल में कुछ ज्यादा ही इंटरेस्ट है। इनकी माने तो। ‘A B C D E F G का मतलब-। A boy can do every thing for girls.’
पूरी किताब उन तीनों के तीन साल के फेस तक चलती है। उनका हर एक किस्सा भगवानदास हाॅस्टल से ही जुड़ा होता है। वे रैगिंग से लेकर प्यार, मस्ती, खिचाई, टीचर की डाॅट खाना ये सब उन सबके साथ होता है। लेकिन पूरी किताब में कहानी कहीं भी कमजोर नहीं पड़ती है। इस किताब में लेखक की शैली की दादा देनी होगी कि उसने कहानी को इस प्रकार लिखा है कि आप एक बार शुरू हो जायें। तो बस लगे कि पढते जाओ। इसमें तीनों किरदारों का समान रूप से इंसाफ किया गया है। तीनों की बोलने की शैली अलग और उसी को पढ़कर कोई हंसे बिना नहीं रूक सकता।
किताब को हम पढ़ते जाते हैं और घुलते जाते हैं। हमारे मन में हंसी के न जाने कितने ठहाके लग गये होते हैं। लेकिन जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते जाते हैं। तब एक ऐसा चैप्टर भी आता है। जो सारी घटनाओं को जोड़ देता है। जैसा कि किताब के पहले पन्ने पर लेखक ने लिखा है ‘‘हर घटना के पीछे कोई न कोई कारण होता है।’’ शुरू में न मैंने उसको सीरियस लिया था और न ही कोई लेगा। लेकिन जब अंत में इसके पन्ने खुलेंगे तब आपको वह कथन जरूर याद आयेगा। भगवानदास हाॅस्टल में एक ऐसी साजिश होती है जो उनकी जिंदगी में भूचाल ला देता है और बनारस को भी हिला देती है। बस इस किताब में यही एक ऐसी चीज है जो आपके अंदर गंभीरता और घबराहट पैदा करेगी।
भारत के हर काॅलेज में प्रेम कहानी होती है। उसी तरह इसमें भी एक प्रेम कहानी है। जिसमें शुरूआत नाराजगी, तकरार और लड़ाई होती है। यह प्रेम कहानी होती है सूरज बाबा और शिखा की। लेकिन रांझणा का वो डाॅयलाग याद है न ‘‘ये बनारस है और लौंडा साला यहां भी हार गया तो जीतेगा कहाँ’’। बस वो बात यहां भी लागू होती है। पहले दोस्ती और फिर हो जाता प्यार का खुमार। फिर मुंह गालियों की जगह शायरियां और गजलें बरसने लगती। ऐसी ही इनकी लव स्टोरी है। लंका गेट से काॅलेज में साथ ही होते है। साथ में लंका गेट जाते और अस्सी घाट भी। अंत में इनकी कहानी भी सुखद ही जाती है।
किताब की खूबी यह है कि इसमें लेखक की लेखनी बड़ी दमदार है। वो हमें अंत तक बांधी रखता है। उसके शब्द आसान लेकिन मजेदार होते हैं। उसको पढ़कर ऐसे लगता है कि जब वह सब हो रहा था तब वह साथ ही लिख भी रहा था। जो हाॅस्टल में पढ़े हैं , उनको यह किताब बहुत पसंद आयेगी। उनको लगेगा जैसे कि वे खुद को पढ़ रहे हैं। कहानी को पढ़कर लगता नहीं है कि इसमें कोई भी चीज काल्पनिक है। हर स्थान वास्तविक है और हर किरदार अपने में जी रहा है।
इस किताब में मेरा कहीं भी फ्लो नहीं टूटा। यही बताता है कि इसमें कमी नहीं है। जो लोग हाॅस्टल वाली लाइफ नहीं जिये हैं, शायद उनको यह किताब पढ़कर अच्छी न लगे। लेकिन अगर उन्होंने भी अपने दोस्तों से जय-वीरू वाली दोस्ती की है तो उनको भी इसमें कोई कमी नहीं मिलेगी।
दोस्तों वाली, मस्ती वाली, हाॅस्टल लाइफ वाली, एक प्रेम कहानी, बनारस से प्यार करने सिखाने वाली किताब है ‘बनारस टाॅकीज’। शुरूआत गुदगुदाने से शुरू होती है और अंजाम थोड़ा गंभीर हो जाता है। एक पढ़ने और हमेशा के लिए याद रखने वाली किताब है ‘बनारस टाॅकीज’।
हर घटना के पीछे कोई कारण होता है। संभव है कि यह घटित होते वक्त आपको न दिखे; जब यह सामने आएगा, आप सन्न रह जायेंगे।- ज़िग ज़िग्लर
इस वाक्य के साथ शुरू होती है सत्य व्यास की बहुचर्चित किताब ‘बनारस टाॅकीज’।
इस किताब के शीर्षक से ही पता चलता है कि यह किताब बनारस के ऊपर है। इसमें लेखक ने सिर्फ बनारस को लिखा ही नहीं है, बल्कि बनारस की मिठास को घोल दिया है। जो भी इसको पढ़ेगा, उसको पक्का बनारस से प्यार हो जायेगा। इस किताब में बनारस की वो ठेठ बोली भी है और जहां बनारस है वहां महादेव न हो, ऐसा हो नहीं सकता। यहां सबके दिल में महादेव और मुंह में उनका प्रसाद है। यहां लंका गेट भी और अस्सी घाट भी है।
अस्सी घाट। दक्षिण से उत्तर की ओर जाते हुए पहला घाट। वरूणा और अस्सी नदियों के संगम का घाट। संतों का घाट, चंटों का घाट। कवियों का घाट, छवियों का घाट। गंजेड़ियों का घाट, भँगेड़ियों का घाट। मेरा घाट, दादा का घाट। हमारा घाट।
बनारस टाॅकीज के बारे में
बनारस टाॅकीज बनारस यूनिवर्सिटी के भगवानदास होस्टल में रहने वाले भविष्य के वकीलों, मजिस्ट्रेट और जजों की कहानी है। वैसे तो इसमें बहुत से किरदार हैं। लेकिन किताब के पहले पन्ने पर बता दिया जाता है कि यह मुख्यतः तीन दोस्तों पर गढ़ी हुई कहानी है। जिसमें एक सूरज बाबा हैं, अनुराग डे हैं और जयवर्धने हैं। इनके अलावा रोशन हैं, नवेंदु जी हैं, दूबे जी हैं और शिखा है जिसकी प्रेम कहानी भी इसमें गढ़ी है। इनका परिचय सत्य व्यास बड़े रोचकता से देते हैं।
“रूम नंबर -73 में जाइए और जाकर पूछिये की भगवान दास कौन थे? जवाब मिलेगा ‘घंटा’! ये हैं जयवर्धन शर्मा जो बिहार से हैं। लेक्चर, घंटा! लेक्चरर, घंटा! भगवान, घंटा! गलत कहते हैं कहनेवाले की दुनिया किसी त्रिशूल पर टिकी है। यह दरअसल, जयवर्धन शर्मा की ‘घंटे’ पर टिकी हैय और वो खुद अपनी कहावतों पर टीके हैं। हर बात पर एक कहावत कहते हैं। उनकी कुछ कहावते, जैसे- ‘गई मांगने पूत को, खो गई भतार!’
‘बुड़बक की यारी और भादो में उजियारी!’
‘खुरपी के वियाह में, सुप का गीत!’
‘आन्हर गुरु बहिर चेला, मांगे गुड़ ता दे दे ढेला!’
ये कहावते खासकर यूपी-बिहार में खूब प्रचलित है और सत्य व्यास ने इनका बिलकुल सही जगह पर उचित अर्थ के साथ उपयोग किया है। इसके अलावे लोकल बोली का भी इस्तेमाल किया गया है जो इस किताब को एक अलग ही रूप देता है। और बनारस का रंग भर देती है।
ये तो थी जयवर्धन की बात। पर सभी दोस्त कुछ इसी तरह के थे। अनुराग डे दृ क्रिकेट प्रेमी और बातें भी क्रिकेट के स्टाइल में करते हैं! ‘अरे साल, का लेक्चर है जैसे की गार्नर का बाउंसर!’ कुछ इस तरह। इनके रूम पार्टनर हैं- सूरज ‘बाबा’। सूरज को गल्र्स हॉस्टल में कुछ ज्यादा ही इंटरेस्ट है। इनकी माने तो। ‘A B C D E F G का मतलब-। A boy can do every thing for girls.’
पूरी किताब उन तीनों के तीन साल के फेस तक चलती है। उनका हर एक किस्सा भगवानदास हाॅस्टल से ही जुड़ा होता है। वे रैगिंग से लेकर प्यार, मस्ती, खिचाई, टीचर की डाॅट खाना ये सब उन सबके साथ होता है। लेकिन पूरी किताब में कहानी कहीं भी कमजोर नहीं पड़ती है। इस किताब में लेखक की शैली की दादा देनी होगी कि उसने कहानी को इस प्रकार लिखा है कि आप एक बार शुरू हो जायें। तो बस लगे कि पढते जाओ। इसमें तीनों किरदारों का समान रूप से इंसाफ किया गया है। तीनों की बोलने की शैली अलग और उसी को पढ़कर कोई हंसे बिना नहीं रूक सकता।
एक साजिश
किताब को हम पढ़ते जाते हैं और घुलते जाते हैं। हमारे मन में हंसी के न जाने कितने ठहाके लग गये होते हैं। लेकिन जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते जाते हैं। तब एक ऐसा चैप्टर भी आता है। जो सारी घटनाओं को जोड़ देता है। जैसा कि किताब के पहले पन्ने पर लेखक ने लिखा है ‘‘हर घटना के पीछे कोई न कोई कारण होता है।’’ शुरू में न मैंने उसको सीरियस लिया था और न ही कोई लेगा। लेकिन जब अंत में इसके पन्ने खुलेंगे तब आपको वह कथन जरूर याद आयेगा। भगवानदास हाॅस्टल में एक ऐसी साजिश होती है जो उनकी जिंदगी में भूचाल ला देता है और बनारस को भी हिला देती है। बस इस किताब में यही एक ऐसी चीज है जो आपके अंदर गंभीरता और घबराहट पैदा करेगी।
एक प्रेम कहानी भी है!
भारत के हर काॅलेज में प्रेम कहानी होती है। उसी तरह इसमें भी एक प्रेम कहानी है। जिसमें शुरूआत नाराजगी, तकरार और लड़ाई होती है। यह प्रेम कहानी होती है सूरज बाबा और शिखा की। लेकिन रांझणा का वो डाॅयलाग याद है न ‘‘ये बनारस है और लौंडा साला यहां भी हार गया तो जीतेगा कहाँ’’। बस वो बात यहां भी लागू होती है। पहले दोस्ती और फिर हो जाता प्यार का खुमार। फिर मुंह गालियों की जगह शायरियां और गजलें बरसने लगती। ऐसी ही इनकी लव स्टोरी है। लंका गेट से काॅलेज में साथ ही होते है। साथ में लंका गेट जाते और अस्सी घाट भी। अंत में इनकी कहानी भी सुखद ही जाती है।
किताब की खूबी
किताब की खूबी यह है कि इसमें लेखक की लेखनी बड़ी दमदार है। वो हमें अंत तक बांधी रखता है। उसके शब्द आसान लेकिन मजेदार होते हैं। उसको पढ़कर ऐसे लगता है कि जब वह सब हो रहा था तब वह साथ ही लिख भी रहा था। जो हाॅस्टल में पढ़े हैं , उनको यह किताब बहुत पसंद आयेगी। उनको लगेगा जैसे कि वे खुद को पढ़ रहे हैं। कहानी को पढ़कर लगता नहीं है कि इसमें कोई भी चीज काल्पनिक है। हर स्थान वास्तविक है और हर किरदार अपने में जी रहा है।
इस किताब में मेरा कहीं भी फ्लो नहीं टूटा। यही बताता है कि इसमें कमी नहीं है। जो लोग हाॅस्टल वाली लाइफ नहीं जिये हैं, शायद उनको यह किताब पढ़कर अच्छी न लगे। लेकिन अगर उन्होंने भी अपने दोस्तों से जय-वीरू वाली दोस्ती की है तो उनको भी इसमें कोई कमी नहीं मिलेगी।
दोस्तों वाली, मस्ती वाली, हाॅस्टल लाइफ वाली, एक प्रेम कहानी, बनारस से प्यार करने सिखाने वाली किताब है ‘बनारस टाॅकीज’। शुरूआत गुदगुदाने से शुरू होती है और अंजाम थोड़ा गंभीर हो जाता है। एक पढ़ने और हमेशा के लिए याद रखने वाली किताब है ‘बनारस टाॅकीज’।
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