प्रेम को इस दुनिया की सबसे बेहतरीन इजाद कहा गया है। एक-दूसरे में खो जाना, प्रेम की तस्दीक में लगे रहना, उन प्रेमियों के हर किस्से में प्रेम होना। ऐसा ही तो प्रेम के बारे में कहा और सुना गया है। लेकिन जब दिल्ली के प्रेम के बारे में बात करते हैं। तो वो प्रेम अलग ही होता है। लड़की अच्छी लगी, तो अपने स्वैग से आई लव यू बोल दिया। बात बनी तो मौजा ही मौजा नहीं बनी तो फिर दूसरी आयेगी न। ऐसा ही है दिल्ली और यहां आने वाले लोग।
दिल्ली के बारे में और यहां के निखठ्ठेपन के बारे में बताती है दिल्ली दरबार। दिल्ली में कभी इंग्लैंड के राजा का दरबार लगा था और इस बार दरबार लगाने का काम किया है, सत्य व्यास ने। सत्य व्यास ने अब दिल्ली को लिखा है और इसके पहले बनारस के बारे में।
अगर न जोहरा-जबीनों के दरमियाँ गुजरे
तो फिर ये कैसे कटे जिंदगी, कहाँ गुजरे।
तो फिर ये कैसे कटे जिंदगी, कहाँ गुजरे।
जिगर मुरादाबादी के इस दो पंक्ति से शुरू होता है सत्य व्यास का दिल्ली दरबार।
किताब का जैसा नाम है दिल्ली दरबार यानि कि कहानी दिल्ली के इर्द-गिर्द घूमती है। इसमें दिल्ली को ज्यादा कशिश से नहीं दिखाया है लेकिन दिल्ली के लोगों के बारे में, उनके कामों के बारे में और यह कि दिल्ली, दिल्ली वालों का तो कतई नहीं है। इस किताब में जैसे ही दिल्ली शुरू होता है उसके बाद दिल्ली खत्म ही नहीं होता है। कभी दिल्ली अस्पताल में होता है तो कभी वह दिल्ली मेट्रो में पहुंच जाता है। कभी वह दो प्रेमियों के बिस्तर पर होता है तो दो दोस्तों की गालियों में भी होता है दिल्ली। दिल्ली के कसीदे में कुछ बातें कसी हैं- सत्य व्यास ने।
छोटे शहर के छोटे सपनों को विस्तार देते शहर का उनवान है, दिल्ली। खानाबदोशों के मजमे का मैदान है, दिल्ली। यहां खानाबदोश कई शक्लों में आते हैं। मजदूर, मजबूर, खरीददार और सबसे ज्यादा बेरोजगार। हम यहां एक अलग ही नस्ल के खानादोश थे जो यहीं ठौर जमाने की सोचकर आते हैं। ऐसे खानाबदोश स्टूडेंट्स कहलाते हैं। स्टूडेंट्स, जो बेहतर जिंदगी की तलाश में अपना शहर छोड़ते तो हैं; मगर फिर कभी अपने शहर लौट ही नहीं पाते। यह शहर, दिल्ली खुद चाहे जितनी भी दफा पामाल हुई हो, खानाबदोशों का स्वागत खुले दिल से ही करती रही है।
दिल्ली दरबार के बारे में
दिल्ली दरबार, एक प्रेम पुजारी की कहानी है। एक लापारवाह इश्किए की कहानी है जो अपना हर काम इश्क में करता और जुगाड़ में लगा ही रहता। उसके इश्किए को दो ही काम थे एक प्रेम करना और दूसरा हर समस्या का शाॅटकर्ट निकाल लेना। दिल्ली दरबार एक मनोरंजन टेक्नो जैसी कहानी है जिसमें पहले प्यार होता, फिर टूटता और जिम्मेदार प्यार हो जाता। बस दिल्ली दरबार में सिर्फ वही और वही है। इनके अलावा भी कई लोग हैं जो बस उस इश्किए की कहानी पूरी करने के लिए बने हैं।
किताब का कुछ अंश
उस रोज दो घटनाएं हुई थीं। दिन में मुहल्ले वालों ने शुक्ला जी के टीवी पर रामायण देखा था और रात में महाभारत हो गया था। दिन में सीता जी अपनी कुटिया से गायब हुईं थीं और रात में गीता जी (शुक्ला जी की बेटी) अपनी खटिया से। सीता जी जब गायब हुईं तो रावण के पुष्पक विमान पर नजर आईं। गीता जी जब गायब हुईं तो पुजारी जी के मचान पर नजर आईं। रावण ने सीताहरण में बल प्रयोग किया था। पुजारी जी के बेटे देवदत्त मिश्रा ने गीतावरण में लव प्रयोग किया था। सीता जी को पुष्पक विमान पर जटायु ने देखा था और उन्हें बचाने की भरपूर कोशिश की थी। गीताजी को पुजारी के मचान पर जटाशंकर चाचा ने देख लिया था और बात फैलाने की भरपूर कोशिश की थी। (बात फैलाने में कोई कोताही नहीं की)
खैर, वो वक्त कुछ दूसरा था। नादानों के कन्यादान में देर नहीं की जाती थी और अफवाह उड़ने से पहले विवाह की खबर उड़ा दी जाती थी। पकड़ुआ लव अक्सर अरेंज मैरेज में तब्दील कर दिया जाता था। सो, पुजारी जी और शुक्ला जी ने भी मिल कर देवदत्त और गीता जी का विवाह करा दिया और जैसा कि होना था, राहुल मिश्रा पैदा हुए।
राहुल मिश्रा कौन? जी, राहुल मिश्रा वह जिनकी यह कहानी है।
कहते हैं कि बच्चे के भविष्य में उसके जन्म के साल के ग्रह-नक्षत्रों का बहुत योगदान होता है। राहुल मिश्रा जिस साल पैदा हुए उस साल फिल्मी दुनिया में प्यार, हमारी दुनिया में तकरार और आभासी दुनिया में ऑप्टिकल फाइबर के तार तेजी से फैल रहे थे। जाहिर था कि इसका असर राहुल मिश्रा पर भी पड़ना था। पड़ा भी।
खैर, इधर राहुल मिश्रा पैदा हुए और उधर राहुल के पिताजी की नौकरी की डाक आई थी। देवदत्त मिश्रा को गांव-घर छोड़ कर टाटानगर आने का सरकारी फरमान जारी हुआ था। वो आखिरी दिन था जिस दिन राहुल मिश्रा के पिता खुश हुए थे। क्योंकि उसके बाद तो।
राहुल मिश्रा धरती पर आ चुके थे।
राहुल मिश्रा धरती पर आ चुके थे।
कहानी
कहानी उस दौर की है जब तकनीक इंसान से ज्यादा स्मार्ट होकर उसकी हथेलियों में आनी शुरू हो गई थी। नई तकनीकों ने नई तरकीबों को जन्म देना शुरू ही किया था। यह पूरी किताब राहुल मिश्रा पर रचित है। कहानी शुरू होती है टा से टानगर से और फिर पहुंच जाते हैं दिल्ली। जहां हर दिन, हर रात, हर पल कांड होते ही रहते। इसमें उनके साथी होते झाड़ी यानि कि मोहित मिश्रा। मोहित मिश्रा जो इस किताब के नैरेटर हैं। किताब में झाड़ी पढ़ाकू टाईप का है और राहुल मिश्रा वहीं है। एक बिहारी सब पर भारी। राहुल मिश्रा और झाड़ी दिल्ली में आते तो हैं पढ़ने लेकिन उन्हें घर में ही एक और पढ़ाई मिल जाती है, परिधि। फिर क्या था पढ़ाई गई तेल लेने। राहुल मिश्रा खेलते रासलीला और झाड़ी कमरे के बाहर पहरा देते। परिधि यानि कि मकान मालिक बटुक शर्मा की बेटी। जो कंजूस तो था, लेकिन अपनी इज्जत के लिए कुछ भी कर सकता था और उसी इज्जत के डर ने उनकी आखिर लुटाई हो जाती है।
राहुल मिश्रा को परिधि के बाद नई लड़की मिली, लेकिन दोनों के काम निकलने के बाद एक खतरनाक रीजन से ब्रेकअप भी हो गया। लेकिन फिर कहानी में राहुल मिश्रा के साथ ऐसा कुछ होता है कि वे मजाकिया और लफाड़े राहुल मिश्रा से एक जिम्मेदार राहुल मिश्रा बन जाते हैं जो सिर्फ और सिर्फ परिधि को अपना बनाना चाहते हैं। लेकिन समस्या यह आती है कि राहुल मिश्रा अपने जोश भरे अंदाज में बटुक शर्मा यानि ससुर का पूरा मोबाईल वही इंग्लिश वाली वीडियो से भी देते हैं।
खतरनाक कारनामा
राहुल मिश्रा के कमरे में एक छोटू भी था जो हर रोज खाना बनाने आता था। जिसको राहुल मिश्रा हर रोज डांट-पटकता था। राहुल मिश्रा ने एक शाॅटकर्ट निकाला था अपने मालिक के किराये से बचने के लिये। लकिन आलसी राहुल मिश्रा ने अपने आलस में कुछ काम छोटू को दे दिये। ये समझकर कि पागल है। लेकिन एक दिन बटुक मिश्रा के अकाउंट से लाखों रूपये का चूरन लग जाता है। तब राहुल मिश्रा को पता लगता है कि काट गया है हम सबका छोटू।
अंत भला सो सब भला
राहुल मिश्रा ने पढ़ाई तो कभी की नहीं थी, लेकिन जुगाड़ बहुत की थी। अब जो अपने माई लव को पाने के लिये बटुक शर्मा का दिल जीतना जरूरी था और वो सिर्फ जीत सकते थे, नौकरी से। फिर क्या था पुरानी डार्लिंग के जासूसी में मिल गई नौकरी। रिस्क था, लेकिन राहुल मिश्रा ऐसा गुल्ल खिलाये कि नौकरी मे सबसे ऊपर थे राहुल मिश्रा। इसके बाद तो वही बात हो गई कि मिश्राजी जिम्मेदार आशिक तो बन गये, लेकिन शाॅटकर्ट लगाना कभी नहीं छोड़े।
किताब की खूबी
इस किताब में सत्य व्यास ने हर बार की तरह अपने ढंग में लिखा है दोस्ताना भरे अंदाज में। आप दिल्ली के हो य न हों लेकिन अगर आपके पास राहुल मिश्रा जैसा जुगाड़ू और झाड़ी जैसा हरदम तैयार दोस्त है तो समझ लो कि यह कहानी तुम्हारी है। इसके लेखन में तो गजब का जादू है जो प्रेमियों के बीच, जिसमें खोने का मन करता है, हंसने का मन करता है। कुल मिलाकर हम जैसों को तो पढ़कर मजा आया। किताब के किरदार काल्पनिक हो सकते हैं लेकिन उनकी बातें बढ़ी शायराना सी हैं।
किताब की कमी
कहते हैं कि पहली चीज हरदम अच्छी होती है और दूसरी थोड़ी कमजोर। ऐसा ही कुछ दिल्ली दरबार में मुझे लगा। ऐसा इसलिए क्योंकि मैंने सत्य व्यास की बनारस टाॅकीज पढ़ी है। दिल्ली दरबार पूरी तरह से एक किरदार में घूमती रहती है जो इतना रोचकता नहीं दे पाता है। ये कहानी एक फिल्म की तरह है जिसमें हीरो है, लव है, साजिश है और अंत मे सब बढिया है। कलम में थोड़ी कमी सी लगी मुझे। जो दिल्ली के न होकर दिल्ली के प्रेमी हैं, बस वही तो है ‘दिल्ली दरबार’।
दिल्ली दरबार में दिल्ली है, प्रेम है, जुगाड़ है, गुदगुदाने वाले थोड़े सीन भी हैं और मजाकिये लहजे वाला प्यार है जो बाद में एक जिम्मेदार बनाकर उभरता है। बस यही कुछ हुआ है इस दिल्ली दरबार में।
नाम- दिल्ली दरबार
लेखक- सत्य व्यास
प्रकाशक- हिंदी युग्म।
लेखक- सत्य व्यास
प्रकाशक- हिंदी युग्म।
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